आईसीएमआर ने भारत में रैपिड ऐंटीजेन जांच को स्वीकृति दे दी है जिसके नतीजे आधे घंटे के अंदर आ जाते हैं. इसकी वजह से आने वाले दिनों में देश में पहले से कहीं ज्यादा टेस्ट किए जाने की उम्मीद है.
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भारत में कोविड-19 के मामलों की जांच की रणनीति में एक बड़ा बदलाव आ सकता है, क्योंकि आईसीएमआर ने एक नई किस्म की जांच पद्धति को स्वीकृति दे दी है जिसकी वजह से आने वाले दिनों में पहले से कहीं ज्यादा टेस्ट किए जाने की उम्मीद है. नई पद्धति को रैपिड ऐंटीजेन टेस्ट कहते हैं और इसके नतीजे आधे घंटे के अंदर आ जाते हैं. अभी तक जो टेस्ट किए जा रहे थे उन्हें आरटी-पीसीआर टेस्ट कहते हैं.
इसे बड़ा आसान सा टेस्ट बताया जा रहा है जिसे करने के लिए नाक से लिए गए सैंपल को लैब तक ले जाने की जरूरत नहीं होती. जहां भी सैंपल लिया गया वहीं पर जांच की जाती है और 15 मिनट से 30 मिनट में नतीजा सामने आ जाता है. आरटी-पीसीआर टेस्ट में नतीजा सामने आने में तीन से पांच घंटों तक का समय लगता है. इसके अलावा सैंपल को लैब तक पहुंचाने में भी समय लगता है, जिसकी वजह से नतीजे सामने आने में कुल मिलाकर कम से कम एक पूरा दिन लग जाता है.
देखा ये जा रहा है कि देश में अधिकांश जगहों पर दो से तीन दिन लग रहे हैं और कहीं कहीं उस से भी ज्यादा. रैपिड ऐंटीजेन से टेस्ट जल्दी हो पाएंगे और देश में की जा रही जांचों की संख्या को बड़ी संख्या में बढ़ाया जा सकेगा. बताया जा रहा है कि इस तकनीक से एक जांच की कीमत सिर्फ 500 रुपये रखी जाएगी जब की मौजूदा स्थिति में कर जांच में कम से कम 4500 रुपये का खर्च आता है.
आईसीएमआर ने दक्षिण कोरिया स्थित कंपनी 'एसडी बायोसेंसर' के दिल्ली के पास मानेसर के प्लांट में विकसित की गई जांच किट का इस्तेमाल करने का निर्देश दिया है. इस किट से लिया हुआ सैंपल सिर्फ एक घंटे तक स्थिर रहता है, इसीलिए जांच को सैंपल ले लेने के एक घंटे के अंदर करना होता है. आईसीएमआर के निर्देश के अनुसार कंटेनमेंट इलाकों और हॉटस्पॉट इलाकों में इस किट के जरिए हर उस व्यक्ति की जांच की जानी चाहिए जो इन्फ्लुएंजा जैसे लक्षण दिखा रहा हो.
इसके अलावा उनकी भी जांच होनी चाहिए जिनमें कोई लक्षण ना हों लेकिन वो संक्रमित व्यक्तियों के सीधे संपर्क में आए हों और उन्हें डायबिटीज, हाइपरटेंशन इत्यादि जैसी जैसी कोई और बीमारी भी हो जिसकी वजह से उन्हें ज्यादा जोखिम हो सकता है. आईसीएमआर ने कहा है कि जहां भी इस टेस्ट का इस्तेमाल किया जाए वहां नतीजा कोविड-19 पॉजिटिव आने की सूरत में व्यक्ति को कोरोना संक्रमित मान लिया जाए. अगर जांच नतीजा नेगेटिव आए तो उस व्यक्ति का आरटी-पीसीआर टेस्ट भी किया जाए ताकि उसके संक्रमित ना होने की पुष्टि हो सके.
भारत में पिछले 24 घंटों में 1,54,935 सैंपलों की जांच की गई. अभी तक कुल मिला कर 59,21,069 सैंपलों की जांच की गई है जिसे जानकार देश की आबादी की तुलना में बहुत कम बताते हैं. भारत में अभी भी हर 10 लाख की आबादी पर महज 4,000 के आस-पास टेस्ट किए जा रहे हैं, जब कि अमेरिका में लगभग 75,000 और रूस, ब्रिटेन और स्पेन में लगभग एक लाख टेस्ट किए जा रहे हैं.
डॉनल्ड ट्रंप ने भारत से मलेरिया की दवा हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन मंगाई थी. लेकिन क्या यह दवा वाकई कोविड-19 का इलाज कर सकती है?
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किस दवा की बात हो रही है?
डॉनल्ड ट्रंप भारत से जो दवा मंगाना चाहते हैं उसका नाम है हाइड्रॉक्सी-क्लोरोक्वीन. 1940 के दशक से इस दवा का इस्तेमाल मलेरिया का इलाज करने के लिए होता रहा है.
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मलेरिया और कोरोना का क्या नाता है?
मलेरिया मच्छर के काटने से होता है और कोविड-19 वायरस से. इसलिए दोनों का एक दूसरे से कोई लेना देना नहीं है. ऐसा नहीं है कि जिन लोगों को मलेरिया का खतरा ज्यादा होता है उन्हें कोविड-19 का खतरा भी होगा.
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कोरोना के लिए मलेरिया की दवा क्यों?
हाइड्रॉक्सी-क्लोरोक्वीन का इस्तेमाल मलेरिया के अलावा ऑटो-इम्यून बीमारियों को ठीक करने के लिए भी होता रहा है. कोरोना वायरस शरीर के इम्यून सिस्टम पर हमला करता है. इसलिए इस दवा से इम्यून सिस्टम को बचाने की बात हो रही है.
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क्या अमेरिका के पास नहीं है यह दवा?
ऐसी रिपोर्टें हैं कि अमेरिका में यह दवा पहले से ही भारी मात्रा में मौजूद है लेकिन डॉनल्ड ट्रंप इसे स्टॉक करना चाह रहे हैं. अमेरिका में बिना डॉक्टर की पर्ची के भी यह दवा खरीदी जा सकती है लेकिन इस बीच आम लोग इसे नहीं खरीद पा रहे हैं.
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डॉक्टरों का क्या कहना है?
खुद अमेरिका में ही डॉक्टरों की राय इस पर बंटी हुई है. ट्रंप के समर्थक इसे आजमाने की पैरवी कर रहे हैं लेकिन अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन की अध्यक्ष का कहना है कि वे इसके इस्तेमाल की सलाह नहीं देंगी.
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रिस्क क्या है?
इस दवा का साइड इफेक्ट होने पर दिल पर बुरा असर पड़ सकता है. ब्लड प्रेशर कम हो सकता है, मांसपेशियों और नसों को नुकसान हो सकता है. सीने में दर्द के साथ साथ धड़कनें कम हो सकती हैं.
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क्या पहले कभी इस्तेमाल हुई है?
राजस्थान में डॉक्टरों ने स्वाइन फ्लू, मलेरिया और एचआईवी की दवाओं को मिला कर इस्तेमाल किया और उन्हें सफलता मिली. हालांकि इस मिश्रण के बाकी मरीजों पर इस्तेमाल की बात सामने नहीं आई है.
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कहां से आया दवा के इस्तेमाल का आइडिया?
किसी भी दवा को मरीजों पर तब ही इस्तेमाल किया जाता है जब लैब में उस पर टेस्ट हो चुके हों. इस दवा के मामले में भी ऐसा ही है. कुछ ऐसे टेस्ट हुए जिनके परिणाम आशाजनक दिखाई दिए.
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रिसर्च क्या कहती है?
एक रिसर्च ने दिखाया कि इस दवा के सेवन से कोरोना वायरस का शरीर की कोशिकाओं में प्रवेश करना मुश्किल हो जाता है. एक अन्य रिसर्च के अनुसार इस दवा लेने से मरीजों को कोई फायदा नहीं हुआ. लेकिन यह रिसर्च सिर्फ 11 लोगों पर की गई.
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क्या ज्यादा लोगों पर भी हुई रिसर्च?
चीन में हुई एक रिसर्च ने दिखाया कि 10 अस्पतालों में कुल 100 मरीजों को जब यह दवा दी गई तो उनकी तबियत में सुधार आया. लेकिन तुलना करने के लिए इस रिसर्च में ऐसे मरीजों का कोई आंकड़ा नहीं था जिन्हें यह दवा नहीं दी गई.
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ट्रंप ने कौन सी रिसर्च पढ़ी?
डॉनल्ड ट्रंप ने कहा है, "फ्रांस में उन्होंने (रिसर्चरों ने) एक बहुत अच्छा टेस्ट किया है." इसी को आधार बनाते हुए उन्होंने अमेरिका में इसके इस्तेमाल की अनुमति दी है.
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कितनी विश्वसनीय है फ्रांस की रिसर्च?
मार्च में जब फ्रांस में कोरोना वायरस फैलने लगा तब वहां कुछ रिसर्चरों ने हाइड्रॉक्सी-क्लोरोक्वीन पर शोध शुरू किया. इस शोध पर अमेरिकी चैनल फॉक्स न्यूज पर हुई चर्चा के तुरंत बाद ट्रंप ने इसकी तारीफ शुरू कर दी.
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WHO का क्या कहना है?
विश्व स्वास्थ्य संगठन इस वक्त कोरोना वायरस पर छह अलग अलग दवाओं को टेस्ट कर रहा है. इस वायरस को ले कर जल्दी प्रतिक्रिया ना देने को लेकर WHO की काफी आलोचना हो रही है.
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अब आगे क्या?
कोरोना स्थिति को देखते हुए अमेरिका समेत कई देश लैब टेस्टिंग का इंतजार नहीं करना चाहते हैं. ऐसे में बहुत मुमकिन है कि मौजूदा मरीजों पर ही ट्रायल एंड एरर किया जाएगा और शायद उसके बाद ही पता चलेगा कि दवा कारगर है या नहीं.