भारत की बायोमीट्रिक पहचान योजना का भुखमरी से संबंध
धारवी वैद
२ अप्रैल २०२१
भारत सरकार की बायोमीट्रिक पहचान योजना तमाम वजहों से आलोचनाओं का शिकार रही है लेकिन कुछ नई रिपोर्टों से पता चलता है कि यह योजना अब देश भर में भुखमरी बढ़ाने और भूख से होने वाली मौतों की वजह बन रही है.
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साल 2017 में भारत के पूर्वी राज्य झारखंड की एक दलित महिला कोइली देवी की 11 वर्षीय बेटी की मौत हो गई. कोइली देवी का कहना था कि मौत भूख की वजह से हुई है जबकि स्थानीय अधिकारियों का कहना था कि लड़की की मौत मलेरिया से हुई.
कोइली देवी का दावा था कि उनकी बेटी को खाना इसलिए नहीं मिल पाया क्योंकि उन्होंने अपने राशन कार्ड को ऑनलाइन तरीके से आधार से लिंक नहीं कराया था. आधार केंद्र सरकार की एक बायोमीट्रिक पहचान योजना है.
कोइली देवी का राशन कार्ड भी उन तीन करोड़ सरकारी दस्तावेजों में से एक है जिन्हें देश भर में साल 2013 से 2016 के बीच आधार से लिंक न होने के कारण निरस्त कर दिया गया है. सरकार ने इन दस्तावेजों को आधार से लिंक कराने के लिए एक समय सीमा तय की थी और उसके भीतर ऐसा न कराने वालों के कार्ड यह मानकर निरस्त कर दिए गए कि ये फर्जी थे.
कोइली देवी कहती हैं कि उनकी तरह कई और लोगों के भी राशन कार्ड आधार से लिंक न होने के कारण निरस्त कर दिए गए जिसकी वजह से सरकारी राशन की दुकानों पर उन्हें राशन मिलना बंद हो गया.
20 से अधिक देशों के दरवाजे पर गंभीर भूख का संकट
संयुक्त राष्ट्र की दो एजेंसियों का कहना है कि राजनीतिक संघर्ष, कोरोना महामारी और कठोर मौसम की घटनाओं के कारण 20 से अधिक देशों में गंभीर भूख का संकट बढ़ने वाला है.
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20 देशों में गंभीर खाद्य असुरक्षा
संयुक्त राष्ट्र की दो एजेंसियों विश्व खाद्य कार्यक्रम (डब्ल्यूएफपी) और खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) ने साझा रूप से हंगर हॉटस्पॉट नाम की एक रिपोर्ट जारी की है. इस रिपोर्ट में बढ़ती भुखमरी के लिए हिंसक संघर्ष, कठोर मौसम की घटनाओं और कोविड-19 को जिम्मेदार बताया गया है. एजेंसियों ने हालात ना बिगड़ने देने के लिए सरकारों से तत्काल कार्रवाई की मांग की है.
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युद्ध वाले देश सबसे ज्यादा प्रभावित
रिपोर्ट के मुताबिक सबसे ज्यादा प्रभावित देश यमन, दक्षिण सूडान और उत्तरी नाइजीरिया हैं. दुनिया में सबसे ज्यादा संकट अफ्रीकी देशों में है, लेकिन अब अफगानिस्तान, सीरिया, लेबनान और हैती जैसे देश भी भूख के तेजी से बढ़ने की आशंका का सामना कर रहे हैं.
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दुनिया में भूख
डब्ल्यूएफपी और एफएओ की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में 3 करोड़ 40 लाख लोग पहले ही आपात स्तर पर गंभीर भूख का सामना कर रहे हैं. यानि भुखमरी से एक कदम ही दूर हैं. डब्ल्यूएफपी के कार्यकारी निदेशक डेविड बेस्ले कहते हैं, "हम अपनी आंखों के सामने तबाही देख रहे हैं. संघर्ष, जलवायु परिवर्तन के चौंकाने वाले प्रभाव और कोविड-19 के कारण लाखों परिवारों के दरवाजे पर अकाल दस्तक दे रहा है."
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कैसे मिटेगी भूख
हंगर हॉटस्पॉट रिपोर्ट के मुताबिक, "इन अत्यंत संवेदनशील समुदायों को बचाने के लिए और संवेदनशील क्षेत्रों को लक्षित करने के लिए मानवीय कार्रवाई की जरूरत है." रिपोर्ट में कहा गया है, "इन देशों में आबादी के कुछ हिस्से पहले से ही गंभीर आर्थिक संकट, कुपोषण और गंभीर कुपोषण का सामना कर रहे हैं." ऐसी अनिश्चित स्थिति में एक ही झटके में गरीबी या भुखमरी के कगार पर लोगों की एक बड़ी संख्या आ सकती है.
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तीन उपाय
विश्व खाद्य कार्यक्रम के कार्यकारी निदेशक डेविड बीजली के मुताबिक भुखमरी से लाखों लोगों को बचाने के लिए तत्काल तीन चीजों की जरूरत है- लड़ाई को रोकना, कमजोर समुदायों तक मदद पहुंचाने की इजाजत मिलना और दानदाताओं का आगे आकर दान करना.
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भूख क्यों बढ़ रही है?
संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों के मुताबिक दुनिया के कई हिस्सों में चल रहे संघर्ष, कोविड-19 वैश्विक महामारी, चरम जलवायु परिवर्तन, टिड्डी दल का फसलों पर हमला और सबसे कमजोर समुदायों तक पहुंच की कमी, भूख को बढ़ावा दे रहे हैं.
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संकट में करोड़ों, सरकारों से अपील
यूएन खाद्य और कृषि एजेंसी के महानिदेशक क्यू डोन्गयू का कहना है कि पीड़ा का स्तर बेहद चिंताजनक है. वे कहते हैं, "यह हम सभी का दायित्व है कि जिंदगियां बचाने, आजीविकाओं की रक्षा करने और बदतर हालात को टालने के लिए तुरंत और तेज कार्रवाई की जाए."
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पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने बड़े पैमाने पर निरस्त किए गए राशन कार्डों के मामले को एक "गंभीर मामला" बताते हुए केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया और इस संबंध में लग रहे आरोपों पर स्पष्टीकरण देने को कहा. कोइली देवी के वकील कोलिन गोंजाल्विस ने डीडब्ल्यू को बताया, "कोइली देवी का मामला सिर्फ उनका अकेला नहीं है, बल्कि देश भर में ऐसे लाखों मामले हैं. कम से कम 10-15 राज्यों में इस वजह से कई लोगों की मौत भूख की वजह से हुई है."
गोंजाल्विस कहते हैं कि राशन कार्डों को इस आधार पर निरस्त करना गैरकानूनी था. गोंजाल्विस मानवाधिकार कार्यकर्ता भी हैं और ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क नाम की संस्था से जुड़े हैं जिसकी मदद से कोइली देवी की याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई.
गोंजाल्विस कहते हैं, "यदि आप किसी व्यक्ति के सरकारी अधिकार को निरस्त करते हैं तो कानून के मुताबिक, पहले आपको इसके लिए नोटिस देना होगा. अधिकारियों को यह बताना होगा कि उन्हें इस बात का यकीन है कि उनका कार्ड फर्जी है और वे इसकी जांच करने उनके घर आएंगे. पर ऐसा कुछ नहीं किया गया."
भोजन का अधिकार
साल 2013 में भारत में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून पारित किया गया जिसके तहत भोजन के अधिकार को संवैधानिक गारंटी प्रदान की गई. इसी कानून के तहत स्कूलों में मिड डे मील और जन वितरण प्रणाली यानी पीडीएस व्यवस्था शुरू की गई जिसके तहत गरीब लोगों को खाद्य और अन्य जरूरी उपभोग की सामग्री सस्ते दर पर उपलब्ध कराई जाती है. खाद्य सुरक्षा के लिए काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि इन राशन कार्डों की बायोमिट्रिक पहचान योजना से लिंक कराने की बाध्यता देश में खाद्य असुरक्षा को बढ़ावा दे रही है.
बंजर जमीन पर हरियाली
05:07
डीडब्ल्यू से बातचीत में अर्थशास्त्री और सामाजिक कार्यकर्ता ज्यां द्रेज कहते हैं, "सरकार यह साबित करना चाहती है कि आधार फर्जी राशन कार्डों को निरस्त करने में सक्षम है. ये कार्ड तमाम ऐसे लोगों के हैं जिन्हें वास्तव में इनकी बहुत जरूरत है."
जानकारों का कहना है कि ज्यादातर निरस्त किए गए कार्ड उन लोगों के हैं जो बहुत ही गरीब हैं और समाज की "निम्न जातियों" और आदिवासी समुदाय से आते हैं. साथ ही ये लोग ग्रामीण और दूर-दराज इलाकों में रहते हैं.
ज्यां द्रेज कहते हैं कि राशन कार्ड को आधार से लिंक न करा पाने के तमाम कारण हैं लेकिन प्रमुख समस्या यह है कि बायोमीट्रिक तकनीक ही भरोसेमंद नहीं है, "कार्डों को आधार से लिंक कराना एक समस्या है लेकिन समस्याएं कई और भी हैं. मसलन, बायोमीट्रिक सिस्टम की विश्वसनीयता भी एक समस्या है. कई बार यह सिस्टम काम ही नहीं करता है. यदि कोई व्यक्ति बायोमीट्रिक के जरिये अपनी पहचान स्पष्ट नहीं कर पाता है, फिर भी पीडीएस का डीलर उसे राशन देने के लिए बाध्य है और राशन देने के बाद वह रजिस्टर पर उसका विवरण दर्ज कर सकता है. लेकिन दिक्कत यह है कि डीलर आधार के रिकॉर्ड के हिसाब से ज्यादा से ज्यादा राशन प्राप्त कर लेते हैं लेकिन उसे बांटते नहीं हैं."
वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ ने ऐसे कई साक्ष्य इकट्ठा किए हैं जब बायोमीट्रिक सिस्टम फेल हुआ है. कई बार तो फिंगर प्रिंट का ही मिलान नहीं हो पाता और इस वजह से लोगों को राशन देने से मना कर दिया जाता है. सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि इसके लिए स्मार्ट कार्ड जैसी आसान तकनीक का भी इस्तेमाल किया जा सकता है, जो कि ग्रामीण इलाकों में भी ठीक से काम करेगी क्योंकि उसके लिए बायोमीट्रिक की तरह इंटरनेट की निर्भरता नहीं रहेगी.
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अधिकारी नहीं मानते भूख से मौत की बात
हालांकि अधिकारी इस बात से हमेशा इनकार कर देते हैं कि देश में किसी की भी मौत भूख की वजह से हो रही है. ज्यां द्रेज कहते हैं कि यह स्थिति बहुत ही चिंताजनक है, "राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण और दूसरे अन्य स्रोतों से हमें पता चलता है कि यह भारत में कोई असामान्य स्थिति नहीं है कि बहुत से लोगों को हर दिन दो वक्त का भोजन नहीं मिल पाता है. भूख से होने वाली मौतों के प्रमाण हैं और तमाम मामलों की बहुत ही गंभीरता से पड़ताल भी की गई है. भूख एक राष्ट्रीय मुद्दा है लेकिन दुर्भाग्य से केंद्र सरकार इसे स्वीकार नहीं कर रही है."
केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री पुरुषोत्तम रुपाला ने पिछले हफ्ते संसद में कहा कि गैर सरकारी संस्थाओं की ओर से भूख के मामलों में तैयार की गईं रिपोर्ट्स खारिज की जानी चाहिए क्योंकि हमारे यहां तो 'गली के कुत्ते भी खाना पा जाते हैं'. रुपाला संसद में उस रिपोर्ट पर पूछे गए सवाल का जवाब दे रहे थे जिसमें साल 2020 में ग्लोबल हंगर इंडेक्स के मामले में भारत को 107 देशों की सूची में 94वां स्थान दिया गया था.
पत्रकार साईनाथ कहते हैं कि भूख की समस्या को सरकारी हस्तक्षेप के बिना सुलझाया नहीं जा सकता. उनके मुताबिक, "यह राज्यों की जिम्मेदारी और उनका कर्तव्य है कि इस मुद्दे को सुलझाएं. साल 1980 में तमिलनाडु में मिड डे मील योजना लागू की गई. तमाम लोगों ने इसकी आलोचना की लेकिन योजना बहुत ही सफल रही और यूनिसेफ तक ने इसे एक मॉडल की तरह अपनाया."
ज्यां द्रेज मानते हैं कि योजनाओं को सिर्फ प्रतीकात्मक तरीके से लागू करने के अलावा भी बहुत कुछ करने की जरूरत है, "केंद्र सरकार ने कम बजट से प्रतीकात्मक योजनाएं शुरू की हैं लेकिन उनका कोई मतलब नहीं है. हम इतने गंभीर मुद्दों को इतने हल्के तरीके से नहीं सुलझा सकते हैं."
ग्रीस के आखिरी खानाबदोश गड़ेरिये
भेड़-बकरियों के साथ स्थायी खेती का चलन सदियों से चला आ रहा है. मिलिए कुछ ऐसे लोगों से जिन्होंने औद्योगिक कृषि, पर्यटन और जलवायु परिवर्तन के दबाव के बावजूद इस परंपरा को जीवित रखा हुआ है.
तस्वीर: Dimitris Tosidis
दशकों से गड़ेरिये का काम
इलेनी त्जिमा और उनके पति नासोस त्जिमा करीब 53 सालों से अपने पशुधन को गर्मियों में चरने लायक घास तक उत्तर पश्चिम ग्रीस के पहाड़ी इलाकों में ले जाते हैं और फिर सर्दियों में तराई में स्थित अपने घर वापस ले आते हैं.
तस्वीर: Dimitris Tosidis
हजारों साल पुरानी परंपरा
त्जिमा परिवार हजारों साल पुरानी परंपरा का हिस्सा है. मौसम के मुताबिक वे अपने जानवरों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं. लेकिन ग्रीस में इस तरह की परंपरा खत्म हो रही है और वे देश में इस प्रकार की खेती करने वाले कुछ ही लोगों में से हैं.
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बुढ़ापे में भी जीवित रखी है परंपरा
गर्मियों के महीनों के दौरान ये दंपति जो कि 80 साल के करीब हैं, एक रेडियो, मोबाइल फोन और रोशनी के लिए सौर ऊर्जा का उपयोग करते हुए, एक अस्थायी झोपड़ी में रहते हैं. वे अल्बानिया के साथ लगने वाली ग्रीस की सीमा के पास पहाड़ी पिंडस नेशनल पार्क में "डियावा" के रूप में जाने जाने वाले एक वार्षिक ट्रेक में भाग लेने वाले सबसे पुराने चरवाहों में से हैं.
तस्वीर: Dimitris Tosidis
संघर्ष करते हुए
इलेनी त्जिमा कहती हैं, "हम हर दिन सुबह से शाम तक संघर्ष करते हैं. मैंने कभी भी एक दिन की छुट्टी नहीं ली क्योंकि जानवर भी कभी छुट्टी नहीं लेते." वे बताती हैं कि उन्हें पहाड़ों में गर्मी का मौसम पसंद है और उन्हें वहां शांति मिलती है. वे कहती हैं, "मैंने इस जीवन को नहीं चुना, लेकिन अगर मेरे पास कोई विकल्प होता, तो वह यही होता."
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गायब होती सांस्कृतिक विरासत
मौसम के मुताबिक जानवरों को चराने ले जाने का दस्तूर मुख्य तौर पर ग्रीस के स्वदेशी समूहों जैसे व्लाच्स और साराकात्सानी द्वारा किया जाता है, साथ ही अल्बानिया और रोमानिया के प्रवासियों द्वारा भी किया जाता है. 1960 और 70 के दशक में मशीनीकृत कृषि और नई खेती प्रौद्योगिकी जब लोकप्रिय हुई तो इस तरह की परंपरा खत्म होती चली गई.
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यूनेस्को से मिली पहचान
यूनेस्को ने 2019 में पशु चराने के इस अभ्यास को एक "अमूर्त सांस्कृतिक विरासत" नाम दिया और इसे कृषि पशुधन के लिए सबसे टिकाऊ और कुशल तरीकों में से एक के रूप में करार दिया.
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खत्म होते रास्ते
आज कम ही चरवाहे पहले से बने हुए रास्तों पर जाते हैं. एक समय में गड़ेरियों ने मार्गों का एक व्यापक नेटवर्क स्थापित किया था और अब वह नेटवर्क धीरे-धीरे खत्म हो रहा है. साथ ही जंगल भी सिमटते जा रहे हैं.
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जानवरों को अलग रखने के लिए रंग
थोमस जियाग्कस अपने भेड़ों को लाल मिट्टी की मदद से रंग दे रहे हैं ताकि वे अन्य जानवरों के झुंड से मिल ना जाए. आजकल वह शायद ही रास्ते पर अन्य चरवाहों से मिलते हैं.
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दूध का कारोबार
यहां के चरवाहे आमतौर पर दूध का इस्तेमाल पनीर बनाने के लिए करते हैं. इस तरह के दूरदराज के स्थानों से दूध को प्रोसेसिंग प्लांट तक ले जाना मुश्किल है. कभी-कभी वे उन स्थानीय लोगों या व्यापारियों को पनीर बेचते हैं जो उनसे यहां मिलने आते हैं.
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पहाड़ी घास के फायदे
गड़ेरिये निकोस सैटाइटिस बताते हैं कि पहाड़ी घास से भेड़ों को उच्च गुणवत्ता वाला चारा मिलता है. जिससे स्वस्थ पनीर, दूध और दही का उत्पादन होता है जो खेतों से मेल नहीं खाता. हालांकि चरवाहों को अपने उत्पाद को कम कीमतों पर बेचने के लिए मजबूर किया जाता है. उनके मुताबिक डेयरी फार्म में बनने वाले उत्पादों से उनके उत्पादों की तुलना सही नहीं है क्योंकि उसके लिए वे कड़ी मेहनत करते हैं.