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भारत की लालफीताशाही में फंसे अफगानी शरणार्थी

२७ जुलाई २०१०

भारत में 9 हजार अफगान शरणार्थी रहते हैं जिनमें ज्यादातर सिख और हिंदू हैं. ये लोग भारत की नागरिकता चाहते हैं, पर यह प्रकिया बहुत लंबी और टेढ़ी है. ऐसे में, इन लोगों को जमीन खरीदने और रोजगार पाने में बहुत मुश्किल आती है.

तस्वीर: AP

यूं तो अफगानी शरणार्थी भारतीयों में आसानी से घुलमिल गए हैं, लेकिन उनकी मुश्किलें बदस्तूर जारी हैं. 1992 में जब अफगानिस्तान में रूस के समर्थन वाली सरकार गिर गई और देश में गृह युद्ध छिड़ गया तो 62 साल के अरदित सिंह काबुल से भागकर दिल्ली आ गए. वह कहते हैं कि उस समय अफगानिस्तान में लगभग बीस हजार हिंदू और सिख रहते हैं जिनकी संख्या अब सिमटकर कुछ सौ रह गई है.

नागरिकता नहीं आसान

1997 में तालिबान के सत्ता में आने के बाद अफगानिस्तान से और हिंदू और सिख भारत आए. अब भारत में लगभग नौ हजार अफगान शरणार्थी रहते हैं जिनमें से 8,500 हिंदू और सिख हैं. इनमें से बहुत से लोग भारत की नागरिकता चाहते हैं. लेकिन इसकी प्रक्रिया बहुत मुश्किल है. नागरिकता पाने के लिए किसी भी शरणार्थी को 12 साल भारत में रहना होता है या फिर उसे किसी भारतीय से शादी किए सात साल हो गए हों. बाकायदा दस्तावेजों से साबित करना पड़ता है कि आप इतने समय से भारत में रह रहे हैं. इसके लिए भारत सरकार एक रेजिडेंस परमिट जारी करती है.

आसान नहीं नागरिकता पाने की प्रक्रियातस्वीर: AP

अरदित सिंह कहते हैं कि नागरिकता हासिल करने में उन्हें बहुत मुश्किलें आ रही हैं. उनके मुताबिक, "बहुत सारे गरीब लोग हैं जिन्हें नागरिकता नहीं मिली है. मैंने भी 2003 में आवेदन किया. मैंने अपने परिवार चार सदस्यों के लिए आवेदन किया. मुझे, मेरी बेटी और बेटे को नागरिकता मिल गई है लेकिन मेरी पत्नी को नहीं मिली है. ऐसे बहुत सारे मामले हैं."

करें तो क्या

जो लोग भागकर भारत आए हैं, उनके पास अफगानिस्तान में खेती की बड़ी जमीनें, अंगूर के खेत, बड़े बड़े मकान और कारोबार थे. लेकिन अब इनमें से सैकड़ों परिवार छोटा मोटा बिजनेस भी नहीं कर सकते क्योंकि उन्हें कानूनी रूप से नागरिकता नहीं मिला है.

खालसा दीवान कल्याण समिति एक गैर सरकारी संगठन है जिसे 1998 में अफगानिस्तान से आए सिखों ने ही बनाया ताकि शरणार्थियों की मदद की जा सके. अरदित सिंह जरूरत मंद परिवारों के बच्चों की मदद करते हैं. वह कहते हैं, "हमने गरीब बच्चों की शिक्षा के लिए खालसा दीवान समिति बनाई है. हम इस संगठन के जरिए उनके स्कूल की फीस देते हैं. खालसा दीवान बहुत पुराना है. यह अफगानिस्तान में भी था."

नागरिकता हासिल करने की लंबी और मुश्किल प्रकिया से तंग आकर बहुत से लोग तो कोशिश करना ही छोड़ देते हैं. एक बार नागरिकता के लिए आवेदन करने के बाद कोई व्यक्ति उस वक्त तक भारत नहीं छोड़ सकता है जब तक यह प्रक्रिया पूरी न हो जाए. ऐसे बहुत से परिवार है जिनमें सिर्फ महिलाओं ने नागरिकता के लिए आवेदन किया है जबकि पुरूष ने माहौल बेहतर होने पर अफगानिस्तान जाने का विकल्प खुल रखा है.

अब तो भारत ही घर

संयुक्त राष्ट्र के शरणार्थी उच्चायोग से जुड़ी नयना बोस कहती हैं, "भारत में आठ हजार हिंदू और सिख शरणार्थी हैं. इनमें से 4,400 लोगों ने नागरिकता के लिए आवेदन किया है. लेकिन प्रक्रिया बहुत मुश्किल है. फॉर्म जमाकर करने के बाद दो से तीन साल लग जाते हैं क्योंकि उनका आवेदन कई सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाता है."

तालिबान के आने से बढ़ी मुश्किलेंतस्वीर: dpa

अफगानिस्तान से भाग कर भारत आने वाले लोगों के लिए स्थानीय आबादी में घुलना मिलना आसान होता है क्योंकि उनकी भाषा और संस्कृति एक जैसी ही है. तालिबान के सत्ता में आने के बाद कंधार से भाग कर आए नरिंदर सिंह कहते हैं कि बहुत से परिवार अपने दम पर भारत में रह रहे हैं. वह कहते हैं, "मैं एक बात कहता हूं. हमारे लोगों ने बहुत मेहनत की है. हमें किसी का डर नहीं है. दिन हो या रात, हम कुछ भी काम कर सकते हैं. हमें यहां रहते हुए 18 साल हो गए हैं, लेकिन मैंने कभी भीख नहीं मांगी. लेकिन मैं भारत सरकार से निराश हूं."

इन शरणार्थी परिवारों ने भारत को ही अपना घर बनाने की सोची है. हालांकि कई लोगों को अब भी अफगानिस्तान की याद आती है. खासकर वहां के मेवे और काबुल की गलियां, जो उनकी जिंदगी का अहम हिस्सा है. लेकिन अब वे यही चाहते हैं कि उन्हें जल्द से जल्द भारत की नागरिकता मिल जाए.

रिपोर्टः मुरली कृष्णन, नई दिल्ली

संपादनः ए कुमार

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