टीज़र: सुप्रीम कोर्ट ने कहा है की सेना में स्थायी कमीशन पुरुष अधिकारियों की ही तरह हर महिला अधिकारी को भी मिलेगा और महिलाओं को कमांड पोस्टिंग में तैनात किये जाने का पूरा अधिकार है.
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भारत की सेना में महिलाओं की भूमिका पर सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया है. महिलाओं की काबिलियत को पूरा समर्थन देते हुए, अदालत ने कहा की सेना में स्थायी कमीशन हर महिला अधिकारी को मिलेगा, चाहे वो कितने भी वर्षों से सेवारत हों. इसके अलावा अदालत ने यह भी कहा कि महिलाओं को कमांड पोस्टिंग में भी तैनात किये जाने का पूरा हक है.
केंद्र सरकार को फटकार लगते हुए, जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस अजय रस्तोगी की बेंच ने कहा कि सरकार की दलीलें "भेदभावपूर्ण" और परेशान करने वाली थीं और स्टीरियोटाइप पर आधारित थीं. सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि सैनिक महिला अधिकारियों के नेतृत्व में काम करने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हैं. इस पर अदालत ने कहा कि लिंग के आधार पर आक्षेप करना महिलाओं की मर्यादा और देश का अपमान है. दो जजों की पीठ ने यह भी कहा कि महिलाओं की शारीरिक विशेषताओं का उनके अधिकारों से कोई सम्बन्ध नहीं है और इस तरह की सोच को बढ़ाने वाली मानसिकता अब बदलनी चाहिए.
अदालत ने सरकार को तीन महीने में फैसले को लागू करने के लिए कहा है. फैसले को सेना में महिलाओं के अधिकारों के लिए एक बड़ी जीत माना जा रहा है. इस मामले में 2010 में ही दिल्ली उच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि शार्ट सर्विस कमिशन के जरिए सेना में भर्ती हुई महिलाएं भी पुरुषों की तरह स्थाई कमीशन की हकदार हैं. केंद्र ने इस फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील की थी, जिस पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जब तक सुनवाई चल रही है तब तक फैसले को लागू करवाने के लिए कोई बलपूर्वक कदम नहीं उठाये जाएंगे.
अदालत ने कहा कि इसका मतलब यह नहीं था कि हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लग लग गई थी और केंद्र सरकार को तुरंत हाई कोर्ट के फैसले पर अमल करना चाहिए था. केंद्र सरकार ने हाई कोर्ट के फैसले के नौ साल बाद, फरवरी 2019 में एक अधिसूचना जारी की थी, जिसके तहत महिला सैन्य अधिकारियों को सेना के कुल 10 विभागों में स्थाई कमीशन देने की इजाजत दी गई थी. हालांकि यह सिर्फ उन महिला अधिकारियों के लिए था जो 14 से कम वर्षों सें सेवा में हों. इसके अलावा यह इजाजत सिर्फ स्टाफ पोस्टिंग के लिए था, कमांड पोस्टिंग के लिए नहीं. सुप्रीम कोर्ट के फैसले से ये दोनों ही प्रतिबंध हट गए हैं.
फैसला देते वक्त अदालत ने एक महत्वपूर्ण बात और कही, कि यह एक दोषपूर्ण धारणा है कि महिलाएं पुरुषों से कमजोर हैं.
इस निर्णय पर महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वालों ने अदालत की सराहना की है.
वरिष्ठ पत्रकार हरिंदर बवेजा ने ट्वीट किया कि सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं के पंख कतरने की सरकार की कोशिश को रोक दिया है.
वरिष्ठ पत्रकार बरखा दत्त ने इसे एक अत्यंत अहम् फैसला बताते हुए कहा, "अपना टाइम आएगा."
फिल्मों के पटकथा लेखक वरुण ग्रोवर ने ट्विटर पर लिखा है कि यह बड़ा बदलाव है.
सेना में भर्ती होने के लिए महिलाओं को लंबा संघर्ष करना पड़ा है. लेकिन तीन देश भी ऐसे हैं जहां महिलाओं के लिए भी सैन्य सेवा अनिवार्य है. एक नजर इस्राएल की महिला सैनिकों की जिंदगी पर.
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जर्मनी, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में महिलाएं सेना में बतौर लड़ाकू सैनिक भर्ती हो सकती है. भारत में 2015 में इसका एलान हुआ. लेकिन इस्राएल इस मामले में अपवाद है.
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इस्राएली सेना में महिलाओं की आधिकारिक भर्ती सितंबर 1949 से शुरू हुई. 2014 में नॉर्वे में लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए इसकी शुरुआत की गई. वहां 2016 की गर्मियों से महिलाओं के लिए सेना के दरवाजे खुले.
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इस्राएल की स्थापना से पहले भी करीब 4,000 यहूदी महिलाओं ने ब्रिटेन के नेतृत्व में फलीस्तीनी अरबों के खिलाफ लड़ाई में हिस्सा लिया. 26 मई 1948 को इस्राएल की स्थापना के साल भर बाद संसद ने सेना में महिलाओं को आधिकारिक रूप से प्रवेश दिया.
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सेना को हमेशा सपोर्टिंग, टेक्निकल और मेडिकल स्टाफ की जरूरत होती है. शुरुआत में इस्राएली सेना में महिलाओं को इन क्षेत्रों में बड़ी जिम्मेदारियां दी गईं.
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इस्राएल में युवक और युवतियों के लिए अनिवार्य सैन्य सेवा की अवधि 21 महीने से तीन साल तक है. शादीशुदा महिलाओं, मांओं और इस्राएली अरब महिलाओं को छूट है. 20 साल से बड़े युवक युवतियों को इस्राएल आने पर अनिवार्य सैन्य सेवा से छूट मिलती है.
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लंबे समय तक यूनिट की महिलाओं को शिक्षा, स्वास्थ्य, टेलिकम्युनिकेशंस और ऑफिस वर्क दिया जाता था. उन्हें लड़ने की इजाजत नहीं थी. 1967 में छह दिन के अरब-इस्राएल युद्ध में एक महिला अफसर ने इस नियम को तोड़ा और वह मोर्चे पर चली गईं. बाद में उन्हें चार हफ्ते की सजा हुई.
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महिला सैनिकों से भेदभाव की शिकायतें भी समय समय पर सामने आती रहीं. 1994 में पायलट बनने की ख्वाहिश रखने वाली महिला को ट्रेनिंग नहीं दी गई. मामला अदालत में गया और महिला की जीत हुई. 1995 से इस्राएल में महिलाओं को फाइटर पायलट की ट्रेनिंग दी जाने लगी.
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भेदभाव की शिकायतों के बीच अदालत ने एक अहम फैसला सुनाया. उसके तहत सरकार और इस्राएली संसद को सन 2000 में सैन्य नियम बदलने पड़े. बदलावों के जरिये सेना में महिलाओं और पुरुषों को पूरी समानता का अधिकार दिया गया.
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उस आदेश के बाद से महिलाओं और पुरुषों की अलग अलग यूनिटें आपस में मिला दी गईं. अब आर्म्ड यूनिट्स, इंफैट्री और आर्टिलरी में महिलाएं और पुरुष साथ साथ होते हैं. महिलाएं सीमा पर निगरानी का काम भी करती हैं.
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2006 में दूसरे लेबनान युद्ध के दौरान महिलाओं ने पहली बार लड़ाई में हिस्सा लिया. 1948 के बाद यह पहला मौका था जब महिलाएं मोर्चे पर गईं.
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2006 के युद्ध में हेलिकॉप्टर फ्लाइट इंजीनियर क्रेन टंडलर की मौत हुई. वह युद्ध में जान गंवाने वाली इस्राएल की पहली महिला सैनिक थीं.
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2008 में एक समिति ने महिलाओं के लिए अनिवार्य सैन्य सेवा की अवधि कम करने की सिफारिश की. सहमति के बाद इस प्रस्ताव को अगले एक दशक में लागू किया जाना है.
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यहूदी धार्मिक नेता रब्बाई सेना में महिलाओं की भर्ती को पंसद नहीं करते. हालांकि रुढ़िवादी स्कूलों में पढ़ने वाले पुरुषों को अनिवार्य सैन्य सेवा से छूट मिली है.
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तमाम नियम कायदों के बावजूद महिला सैनिकों की जिंदगी आसान नहीं. कड़ी मेहनत के अलावा करीब हर दिन यौन उत्पीड़न की शिकायतें सामने आती हैं. सेना में काम करने वाली 20 फीसदी महिलाएं यौन उत्पीड़न का शिकार होती हैं.
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कई युद्ध लड़ चुके और आए दिन हिंसा का शिकार बनने वाली इस्राएली सेना में फिलहाल एक तिहाई महिलाएं हैं. 51 फीसदी अफसर हैं, 15 फीसदी तकनीकी क्षेत्र में हैं और सिर्फ तीन फीसदी ऑपरेशनल यूनिट्स में तैनात हैं.