भारत में कछुए को विष्णु का अवतार माना जाता है. लेकिन दूसरे देशों की तरह वहां भी उसका भविष्य खतरे में है, क्योंकि उसके मांस, अंडे और चमड़े की बड़ी मांग है.
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कछुए का इस्तेमाल कोई खाने में करता है तो कोई एफ्रोडिजियाक के रूप में. बढ़ती मांग के कारण ट्रॉपिकल देशों में समुद्र तटों पर कछुओं की तादाद तेजी से गिर रही है. लेकिन एक भारतीय एनजीओ इसे रोकने की कोशिश कर रहा है. पर्यावरण संरक्षक वीरेंद्र पाटिल समुद्र तट पर कछुओं के निशान ढूंढकर उसे बचाने के प्रयास में लगे हैं. इसके लिए वे कई दिनों तक सुराग ढूंढते हैं. एक समुद्री कछुआ अपने भारी पांवों से धीमे धीमे चलता हुआ रात में समुद्र तट पर आया था. वे बताते हैं, "हमारा ध्यान इस ट्रैक पर सुबह में गया. निशान के पीछे पीछे हम वहां तक ये देखने गए कि कछुए ने अंडा दिया है या नहीं. निशान के पीछे चलकर हमने एक पिट पाया. लेकिन उसके अंग जड़ों में उलझ गए लगते हैं. वह अंडा दिए बिना समुद्र में लौट गया."
हर सुबह पांच बजे वीरेंद्र पाटिल और उनके सहयोगी समीर महादिक समुद्र तट पर कछुओं के निशान और अंडे खोजते हैं. वे कछुओं के संरक्षण के एक प्रोग्राम में काम कर रहे हैं जिसका संचालन मोहन उपाध्याय करते हैं. जब उन्हें कहीं कोई अंडा मिलता है तो वे उन्हें लेकर यहां ब्रीडिंग सेंटर पर आते हैं, ताकि उन्हें शिकारी जानवरों और इंसानों से बचाया जा सके. वे उन्हें फिर से रेत के अंदर दबा देते हैं. टोकरी अंडों को ठंड से बचाती है. ब्रीडिंग में 50 दिन लगता है. समीर महादिक कहते हैं, "जब अंडे नहीं मिलते तो हम रेत में गड्डों को देखते हैं. अगर अंदर कोई हलचल होती है, तो रेत नीचे चली जाती है. ऐसे में हम सावधान हो जाते हैं क्योंकि संभव है कि अंडे में से कछुए निकल गए हों और वे रेत में ही रेंग रहे हों. यदि ऐसा होता है तो हम कछुए के बच्चों को समुद्र में छोड़ आते हैं."
कछुए का जादुई कम्पास
अंडे देने के लिए समुद्री कछुए आखिर इतनी दूर से उसी तट पर कैसे पहुंच जाते हैं, जहां वे खुद जन्मे थे? वैज्ञानिक बताते हैं कि वे धरती के चुंबकीय क्षेत्र के हिसाब से खुद दिशा का अंदाजा लगाते हैं.
तस्वीर: Robert Harding
शरीर में कम्पास
लॉगरहेड कछुए धरती के चुंबकीय क्षेत्र को अपने कम्पास या दिशा सूचक की तरह इस्तेमाल करते हैं. वे अपने घर के रास्ते का चुंबकीय पैटर्न याद कर लेते हैं. 'करेंट बायोलॉजी' में छपी एक स्टडी में बताया गया है कि कछुए इसी तरह उस समुद्र तट का रास्ता याद रखते हैं जहां उन्होंने आंखें खोली थीं.
तस्वीर: Robert Harding
चुंबकीय इशारे समझना
कछुओं में खास चुंबकीय सेंस होने के कारण ही वे करीब 12 साल बाद भी अपने घर का रास्ता नहीं भूलते. कई हजार किलोमीटर की दूरी तय कर वे अपने तट पर पहुंचते हैं. हर जगह की चुंबकीय स्थिति और पैटर्न अलग होते हैं.
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केवल कछुए ही नहीं
कबूतर, कई प्रवासी पक्षी, केकड़े, कुत्ते और गायों जैसे कई जानवरों में ऐसे पैटर्न याद रखने की क्षमता होती है. चुंबकीय क्षेत्र के ही हिसाब से कोई गाय हमेशा एक ही दिशा में खड़ी होकर चरती है.
तस्वीर: M. Abdollahi
सबसे कठिन परीक्षा
क्या हो अगर किसी जगह का चुंबकीय क्षेत्र थोड़ा बदल जाए? नॉर्थ कैरोलाइना यूनिवर्सिटी के रिसर्चरों ने पता किया है कि ऐसे बदलावों होने पर कछुओं के अंडे देने की जगह भी उसी हिसाब से बदल जाती है.
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सुरक्षित ठिकाने की तलाश
इस स्टडी में यह पता नहीं चलता कि कछुए बिल्कुल अपने जन्म की जगह पर ही अंडे देते हैं. इसके लिए वह तापमान, बालू की गुणवत्ता और तट से दूरी जैसी बातों का भी ध्यान रखते हैं.
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हमारे लिए अदृश्य
धरती की चुंबकीय रेखाएं उसके केन्द्र में स्थित मिश्रधातुओं की विद्युतीय तरंगों के कारण पैदा होती हैं. इंसान में इस चुंबकीय क्षेत्र को महसूस करने का गुण नहीं होता. 2014 से शुरू हुए यूरोपीय स्पेस एजेंसी के स्वॉर्म मिशन से धरती के चुंबकीय क्षेत्र को दिखाने वाली अभूतपूर्व स्पष्टता वाली तस्वीरें मिलने लगी हैं.
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लेकिन उनमें से बहुत कम ही जीवित बचते हैं. एक कारण है पानी का गंदा होते जाना. 1000 कछुओं के बच्चों में सिर्फ औसत एक ही प्रजनन की 20 साल की उम्र तक पहुंच पाता है. यहां तट पर आने वाला कछुआ ओलिव रिडली प्रजाति का है और उसका कुछ इतना बड़ा आकार होता है. वह करीब 50 किलो का होता है. समुद्री कछुओं में ओलिव रिडली सबसे छोटा होता है. जब वह यहां आता है तो अंडे देने को तैयार होता है. तीनों पर्यावरण संरक्षक वेलास गांव में रहते हैं. 500 निवासियों वाला यह गांव भारत के पश्चिमी तट पर स्थित है. यहां के लोग पीढ़ियों से खेती बाड़ी में लगे हैं. वे गोल मिर्च, काजू और आम उपजाते हैं. पर्यावरण संरक्षण का विषय अब स्कूलों में भी पहुंच गया है. मोहन उपाध्याय नियमित रूप से इसके बारे में शिक्षकों से बात करते हैं. इसमें कछुओं की भी अहम भूमिका होती है. इलाके के बच्चों को जानना चाहिए कि समुद्री तट की रक्षा क्यों जरूरी है. इस पर्यावरण संरक्षण प्रोग्राम का यही मकसद है कि लोगों को इसके महत्व का पता चले.
मोहन उपाध्याय को हमेशा से ही पशु और पक्षियों से प्यार रहा है. जब उन्होंने सुना कि कछुए विलुप्त होने के कगार पर हैं तो उन्होंने भारतीय एनजीओ एसएनएम में काम करना शुरू किया. इस संगठन ने 13 साल पहले यह प्रोजेक्ट शुरू किया था और इस बीच वे वन विभाग के साथ भी सहयोग कर रहे हैं. कभी कभी यहां अंडे से अभी अभी बाहर निकले बेबी कछुए अपने आप समुद्र की ओर जाते दिखते हैं. लेकिन इनमें से कौन जिंदा बच पाएगा, पता नही. मोहन उपाध्याय बताते हैं, "कछुआ हमेशा से वेलास और कोंकण के इलाके में आते रहे हैं और समुद्र तट पर अंडे देते रहे हैं. लेकिन लोग उन्हें चुरा कर खा लेते थे या फिर शिकारी जानवर उन्हें खा जाते थे. एक बार संरक्षणकर्ताओं ने यहां अंडे के खोल देखे और अंडों और कछुओं को बचाने का फैसला किया. हम उनकी तादाद में कमी को रोकना चाहते थे और लोगों को बताना चाहते थे कि वे कितने मूल्यवान हैं. इसीलिए यह प्रोजेक्ट शुरू हुआ."
लंबे जीवन का रहस्य
कछुए की मेथुसालेह प्रजाति से लेकर बुजुर्ग व्हेलों तक, ऐसे कई जानवर हैं जो बेहद लंबा जीवन जीते हैं. अभी तक वैज्ञानिक इनकी लंबी उम्र के राज पूरी तरह नहीं खोल पाए हैं, जिससे ये गुत्थी और भी दिलचस्प हो जाती है.
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सैकड़ों साल, हजारों मील का सफर...
स्टुअर्जियॉन: लंबे शरीर, नुकीली नाक और बेहद स्वादिष्ट अंडों वाली ये मछली, कैवियार का बेहतरीन स्रोत है. इसके बारे में जो दूसरी बात सबसे ज्यादा उल्लेखनीय है, वह है इसकी लंबी उम्र. ये 100 साल तक जी सकती हैं और अपने जीवनकाल में कई हजार किलोमीटर की यात्रा करती है. ये ताजे पानी में जन्म लेती हैं और फिर सागरों में दूर दूर तक जाती हैं. जब इन्हें अंडे देने होते हैं तो ये फिर ताजा पानी की ओर लौट आती हैं.
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उड़ने से मिली मदद
ऐसा लगता है कि उड़ते रहना ना केवल सेहत बल्कि उम्र के लिए भी फायदेमंद है. शायद इसीलिए सभी जीवों में सबसे लंबा जीवन जीने वाले पक्षी ही हैं. जैसे कि ये - ग्रे पैरट - जो 70 साल तक जी सकता है. अब तक का सबसे बड़ी उम्र का पक्षी लंदन जू में मिला है, जो 80 साल से भी ज्यादा जिया. इसके अलावा रेवन पक्षी तो 90 साल से भी बूढ़े हो सकते हैं.
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आंखों में छिपे उम्र के राज
विशाल आकार की ही तरह व्हेल की बोहेड प्रजाति का 200 साल लंबा जीवन भी एक मिसाल मिसाल है. इनकी सही सही उम्र जान पाना एक चुनौती है, क्योंकि इसके लिए व्हेल की आंखों का विशेष बायोकेमिकल विश्लेषण करना होता है. कुछ साल पहले एक बोहेड व्हेल के शरीर में 1890 की एक बर्छी मिली, जिससे जाहिर है ये व्हेल उससे भी पहले की ही होगी.
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विशाल और निर्बाध घूमंतू
हाथी झुंड में रहने वाले उन चुनिंदा जंगली जानवरों में शामिल हैं जिनके बहुत ज्यादा प्राकृतिक शत्रु नहीं हैं. अगर इंसानी शिकारियों से बच जाएं तो ये 70 साल तक जी सकते हैं. एक वरिष्ठ हथिनी के नेतृत्व में ये झुंड अफ्रीका के सवाना में ताजा घास और पानी की तलाश में घूमते रहते हैं. जब कभी ये किसी ऐसी जगह से दुबारा गुजरते हैं जहां उनके किसी साथी की मौत हुई थी, तो वे वहां रूक कर शोक भी मनाते हैं.
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मेथुसालेह का है 'सेलेब्रिटी' स्टेटस
'लोनसम जॉर्ज' को कौन नहीं जानता. गालापागोस द्वीप समूह के पिंटा द्वीप पर उसने 100 साल से भी ज्यादा अकेले ही बिताए थे. चेलोनॉयडिस नीग्रा एबिंगडोनी प्रजाति का यह आखिरी कछुआ था. मरने के बाद भी उसे प्यार से याद किया जाता है. ऐसी दूसरी विशाल प्रजातियों वाले कछुए तो और भी लंबा जीते हैं. जैसे कि गालापागोस का ही हैरिएट नाम का कछुआ 2006 में 175 साल की उम्र में मरा.
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पेड़ों जैसे छल्ले
इस साधारण सी दिखने वाली सीपी को कम मत समझिएगा. वैज्ञानिकों की इसमें खास दिलचस्पी है. असल में यह आज तक मिले बुजुर्ग जीवों में सबसे बड़ा है. इस समुद्री क्वाहौग की उम्र है 410 साल. हर साल इसकी उम्र को दर्शाती एक रिंग इसके शेल पर बन जाती है. वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि वे इन कछुओं की मदद से जलवायु और समुद्र में बीते दशकों में आए कई बदलावों के बारे में जान सकेंगे.
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धीरे बढ़ो, लंबा चलो
स्पंज बहुत धीरे धीरे बढ़ता है लेकिन रहता है लंबे समय तक. स्कोलीमास्त्रा जुबीनी अंटार्कटिक सागर के तल में पाया जाता है. अंदाजा है कि इनकी उम्र 10,000 साल से भी ज्यादा होती है. ये दुनिया के सभी जीवों में सबसे बुजुर्ग कहे जा सकते हैं.
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उनकी आस्था उनके काम में भी बड़ी भूमिका निभाती है. कछुओं को भारत में भगवान का दर्जा मिला हुआ है. मोहन उपाध्याय कहते हैं, "हम कछुए को भगवान विष्णु का अवतार मानते हैं. इसलिए आप इसे अधिकांश घरों में पाएंगे. इसके साथ बहुत सारी भावनाएं जुड़ी हैं. यह सौभाग्य और विकास का प्रतीक है, इसलिए इसे भगवान का अवतार माना जाता है. इसे हमेशा भगवान की जगह दी जाती है और पूजा जाता है." वेलास में कछुए आर्थिक प्रगति का कारक भी बन गए हैं. उन्हें देखने के लिए लोग मुंबई तक से यहां आते हैं.
वेलास में अभी तक होटल नहीं हैं. इसलिए यहां आने वाले लोग यहां के परिवारों के यहां टिकते हैं. पांच साल पहले 10 घर थे जहां होम स्टे संभव था, अब उनकी संख्या 40 हो गई है. इलाके में होम स्टे बिजनेस चलाने वाली सुनीता सकपाल को चिंता है कि अगर कछुओं ने अंडे न दिये तो इलाके की अर्थव्यवस्था का क्या होगा. "कछुओं की वजह से बेरोजगार लोगों को रोजगार मिला है. लेकिन इस साल सिर्फ 8 कछुओं ने अंडे दिये हैं. उनकी संख्या हर साल गिरती जा रही है. इसलिए हम बहुत तनाव में हैं. कछुओं के बिना हमें नहीं पता कि यहां क्या होगा. " और क्या होगा यदि समुद्र कचरे को तट पर पहुंचाता रहे. ठीक वहां जहां कछुए अंडे देते हैं. मोहन उपाध्याय और उनके साथियों के लिए यह लड़ाई जीतनी आसान नहीं. हालांकि वे कछुओं को बचाने के लिए लगातार प्लास्टिक का कचरा जमा करने में लगे रहते हैं.