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समाज

कैसी हो स्कूलों में भाषा नीति?

चारु कार्तिकेय
१० सितम्बर २०२०

नई शिक्षा नीति में सुझाया गया तीन भाषाई फॉर्मूला भारत के लिए नया नहीं है, लेकिन यह हमेशा से विवादों में घिरा रहा है. देश के मौजूदा स्वरूप और भविष्य की जरूरतों को देखते हुए यह भाषा नीति कितनी कारगर है?

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तस्वीर: Reuters/P. Waydande

कई राज्यों में बस खानापूर्ति के लिए तीन भाषाएं पाठ्यक्रम में डाल दी गईं तो कई दूसरे राज्यों में कभी तीन भाषाएं पढ़ाई ही नहीं गईं. तमिलनाडु ऐसे ही राज्यों में हमेशा से शामिल रहा है और एक बार फिर उसने दृढ़तापूर्वक तीन भाषाई फॉर्मूला को अस्वीकार कर दिया है. तमिलनाडु में स्कूलों में सिर्फ तमिल और अंग्रेजी पढ़ाई जाती है.

तीन भाषाई फॉर्मूला के अनुसार राज्य के स्कूलों को तमिल के अलावा एक और भारतीय भाषा पढ़ानी चाहिए. लेकिन ऐसा कभी हुआ नहीं और मौजूदा एआईडीएमके सरकार ने एक बार फिर कह दिया है कि राज्य में दो भाषाई नीति ही जारी रहेगी. इससे यह संकेत मिल रहे हैं कि संभव है कि पहले की ही तरह अभी भी देश में तीन भाषाई फॉर्मूला बस कागज पर ही रह जाए.

नई शिक्षा नीति कहती है कि जहां तक संभव हो सके कम से कम पांचवीं कक्षा तक बच्चों को स्कूल में उसी भाषा में पढ़ाया जाना चाहिए जो उनके घर पर बोली जाती हो, या उनकी मातृ-भाषा हो, या उनकी स्थानीय या प्रांतीय भाषा हो. अगर संभव हो तो ऐसा आठवीं कक्षा तक जारी रखने की अनुशंसा की गई है.

उत्तर भारत के जिन नौ राज्यों में हिंदी बोली जाती है वहां मौजूदा नीति के तहत छात्रों की पहली भाषा हिंदी, फिर संस्कृत और फिर अंग्रेजी हो सकती है.तस्वीर: picture-alliance/dpa/F. Rumpenhorst

क्या कहती है नई शिक्षा नीति

उसके बाद इस भाषा को एक विषय की तरह पढ़ाया जा सकता है और धीरे धीरे पाठ्यक्रम में दो नई भाषाओं को शामिल किया जा सकता है, जिनमें से कम से कम एक और भारतीय भाषा होनी चाहिए. छठी या सातवीं कक्षा में छात्र चाहें तो एक या एक से ज्यादा भाषाओं को बदल सकते हैं, लेकिन उन्हें दसवीं कक्षा के अंत तक तीन भाषाओं पर कम से कम बुनियादी पकड़ बना लेनी होगी. उन्हें इनमें से कम से कम एक भारतीय भाषा के साहित्य पर भी पकड़ बना लेनी होगी.

नई शिक्षा नीति में भारत की शास्त्रीय भाषाओं पर भी जोर दिया गया है, लेकिन इनमें संस्कृत को प्राथमिकता दी गई है. संस्कृत को स्कूलों में और उच्च शिक्षा के संस्थानों में हर स्तर पर उपलब्ध कराया जाएगा और तीन भाषाई फॉर्मूला में से एक विकल्प के रूप में भी उपलब्ध कराया जाएगा. लेकिन तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, ओड़िया, पाली, प्राकृत और फारसी जैसी दूसरी शास्त्रीय भाषाओं को सिर्फ एक विकल्प के रूप में उपलब्ध कराने की बात की गई है.

नीति में संस्कृत के प्रोत्साहन में जितनी ऊर्जा का निवेश नजर आता है उतना दूसरी शास्त्रीय भाषाओं के प्रति नजर नहीं आता. नौवीं कक्षा से कोरियाई, जापानी, थाई, फ्रेंच, जर्मन, स्पैनिश, पुर्तगाली और रूसी जैसी विदेशी भाषाएं भी उपलब्ध कराई जाएंगी. चीन की भाषा मैंडरिन का जिक्र नीति में नहीं है. इसके अलावा भारतीय सांकेतिक भाषा का मानकीकरण भी किया जाएगा और स्थानीय सांकेतिक भाषाओं को भी पढ़ाने की कोशिश की जाएगी. 

पश्चिम बंगाल के बसीरहाट में रहने वाले प्रणब बोर का परिवार आपस में संस्कृत में ही बात करता है, ताकि उसे जीवित रखा जा सके. कुछ जानकार मानते हैं कि सरकार को आम जनता की भाषाओं को बचाना चाहिए.तस्वीर: DW/S. Bandopadhyay

बहु-भाषाई फॉर्मूले की जरूरत

अब सवाल यह उठता है कि देश के मौजूदा स्वरूप और भविष्य की जरूरतों को देखते हुए यह भाषा नीति कितनी कारगर है? कई जानकारों का मानना है कि इस भाषा नीति का आज के भारतीय समाज के स्वरूप के साथ समंवय नहीं है. जाने माने भाषाविद पद्मश्री गणेश देवी कहते हैं कि जहां तक बच्चों में ज्ञान के विकास का सवाल है, तीन भाषाई फॉर्मूला अच्छा है, लेकिन अब इसकी अवधारणा पुरानी हो चुकी है.

देवी कहते हैं कि सबसे पहली समस्या मातृ भाषा को लेकर है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट अपने एक फैसले में कह चुका है कि छोटे बच्चों की मातृ भाषा कौन सी है इस निर्णय का अधिकार सरकार या स्कूलों को नहीं बल्कि बच्चों के माता पिता को है. देवी के अनुसार 1960 के दशक तक तीन भाषाई फॉर्मूला भारतीय समाज के लिए सटीक था लेकिन अंतर-राजकीय प्रवासन की वजह से आज देश में 25 लाख से ज्यादा आबादी वाला ऐसा एक भी शहर नहीं है जहां मातृ भाषा का एक सरल ढांचा हो.

देवी कहते हैं इन हालात में सरकारों को स्कूलों में तीन भाषाई फॉर्मूला की जगह बहु-भाषाई फॉर्मूला अपनाना चाहिए, जो आज लंदन, टोरंटो, एम्स्टडर्म इत्यादि जैसे शहरों में चल रहा है. उन्होंने बताया कि हाल ही में यूरोपीय संघ के सौजन्य से कैंब्रिज विश्वविद्यालय ने बिहार और आंध्र प्रदेश में एक अध्ययन किया है जिसके नतीजे यह स्पष्ट दिखलाते हैं कि स्कूलों में अगर बहु-भाषाई फॉर्मूला अपनाया जाए तो लर्निंग आउटकम पहले से काफी ज्यादा बेहतर होंगे.

भारत में कम से कम चार से पांच करोड़ लोग ऐसे हैं जो उनमें से कोई भी भाषा नहीं बोलते जो संविधान में सूचित हैं. ऐसी भाषाओं का क्या होगा?तस्वीर: P. Samanta

आम लोगों की भाषाएं

देवी यह भी कहते हैं कि सरकार अगर भाषाओं को बचाना चाहती है तो उसे आम जनता की भाषाओं को बचाना चाहिए ना कि अपनी पसंद की भाषाओं को. वो उदाहरण देते हैं की उत्तर भारत के जिन नौ राज्यों में हिंदी बोली जाती है वहां मौजूदा नीति के तहत स्वाभाविक रूप से छात्रों की पहली भाषा होगी हिंदी, फिर संस्कृत और फिर अंग्रेजी. इनमें से संस्कृत की बाजार और रोजगार के लिहाज से कोई उपयोगिता नहीं है, इसलिए उसमें सरकारी पैसे का निवेश बेकार है.

देवी मानते हैं कि आदिवासी भाषाएं भी इस नीति की शिकार हो जाएंगी. भारत में कम से कम चार से पांच करोड़ लोग ऐसे हैं जो उनमें से कोई भी भाषा नहीं बोलते जो संविधान में सूचित हैं. तमिलनाडु के बारे में देवी कहते हैं कि वहां भी और भाषाएं पढ़ाई जा सकती हैं लेकिन वो उसी भाषा परिवार से होने चाहिए जिस परिवार में तमिल शामिल है. हिंदी उस परिवार से बाहर की भाषा है और छोटे बच्चों के लिए तमिल और अंग्रेजी के साथ अंग्रेजी पढ़ना उनके लिए तनाव पैदा कर देगा.

देवी के अनुसार कई अध्ययनों में अब ये वैज्ञानिक रूप से साबित भी हो चुका है कि कम उम्र में ही एक से ज्यादा भाषाएं सीखने से दिमाग का बेहतर ज्ञान-संबंधी विकास होता है. इसलिए बहु भाषाई फॉर्मूला इस लिहाज से भी बेहतर है. और इसे लागू करने में खर्च बढ़ जाता है ये एक मिथक है.

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