स्वास्थ्य और शिक्षा को बेहतर बनाने के उपायों में मामले में भारत पिछड़ा हुआ है. ह्यूमन कैपिटल की अनदेखी की वजह से उसकी समग्र विकास पर केंद्रित वैश्विक रैकिंग गिर रही है. एक नए अध्ययन में यह बात सामने आई है.
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विख्यात अंतरराष्ट्रीय जर्नल 'द लांसेट' में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि 1990-2016 के दौरान स्कूली शिक्षा, प्रशिक्षण, कौशल और स्वास्थ्य जैसे विषयों पर दुनिया के देशों में भारी उतार-चढ़ाव देखा गया है. भारत जैसे देश की स्थिति सोचनीय है जो अपनी श्रम पूंजी या ह्यूमन कैपिटल के मामले में फिसड्डी है. 195 देशों की सूची में उसका नंबर 158वां है. और यह तब है जबकि शिक्षा और स्वास्थ्य को लेकर 1990 के बाद न जाने कितने अभियान, कार्यक्रम, नीतियां और निवेश किए जा चुके हैं.
ताजा मामला पिछले दिनों लागू हुई स्वास्थ्य बीमा की आयुष्मान भारत योजना का है. हालांकि इस अध्ययन में 2016 तक की ही तस्वीर पेश की गई है लेकिन अलग अलग वैश्विक सूचकांकों में 2017 और 2018 का अब तक का हाल भी भारत के लिए संतोषजनक तो नहीं कहा जा सकता.
भारत में ह्यूमन कैपिटल की बदहाली कोई छिपी हुई बात नहीं है. और यह भी छिपा नहीं है कि अमीर और गरीब के बीच खाई निरंतर चौड़ी हुई है और संसाधनों पर कब्जे भीषण हुए हैं. लांसेंट पत्रिका में प्रकाशित यह रिपोर्ट भले ही यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन के हेल्थ मीट्रिक्स और इवैल्युएशन संस्थान के एक विशद् अध्ययन से सामने आई हैं, लेकिन इसे यह कहकर खारिज नहीं किया जा सकता कि एक यूनिवर्सिटी का डाटा भला इतनी बड़ी दुनिया के इतने सारे देशों के इतने सारे लोगों से जुड़ी जमीनी हकीकत को कैसे दर्ज कर सकता है.
आज भी अनपढ़ हैं भारत के करोड़ों लोग
साक्षरता के मामले में भारत एशिया के टॉप 20 देशों में नहीं आता. देश की करीब 30 फीसदी जनता अब भी अनपढ़ है. देखिये साक्षरता के मामले में भारत का कौन सा राज्य कहां खड़ा है.
तस्वीर: P. Samanta
30. बिहार: 63.82 फीसदी
तस्वीर: P. Samanta
29. तेलंगाना: 66.5 फीसदी
तस्वीर: Reuters/J. Dey
28. अरुणाचल प्रदेश: 66.95 फीसदी
तस्वीर: Prabhakar Mani
27. राजस्थान: 67.06 फीसदी
तस्वीर: Lauren Farrow
26. आंध्र प्रदेश: 67.4 फीसदी
तस्वीर: Poulomi Basu/UNESCO
25. झारखंड: 67.63 फीसदी
तस्वीर: Mobile Vaani
24. जम्मू कश्मीर: 68.74 फीसदी
तस्वीर: AP
23. उत्तर प्रदेश: 69.72 फीसदी
तस्वीर: DW/M. Krishnan
22. मध्य प्रदेश: 70.63 फीसदी
तस्वीर: DW
21. छत्तीसगढ़: 71.04 फीसदी
तस्वीर: imago/Eastnews
20. असम: 73.18 फीसदी
तस्वीर: Thomson Reuters Foundation/A. Nagaraj
19. ओडिशा: 73.45 फीसदी
तस्वीर: habkhabar.ir
18. मेघालय: 75.48 फीसदी
तस्वीर: STR/AFP/Getty Images
17. कर्नाटक: 75.60 फीसदी
तस्वीर: UNI
16. हरियाणा: 76.64 फीसदी
तस्वीर: Imago/Hindustan Times
15. पंजाब: 76.68 फीसदी
तस्वीर: picture-alliance/dpa
14. पश्चिम बंगाल: 77.08 फीसदी
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/B. Armangue
13. गुजरात: 79.31 फीसदी
तस्वीर: DW/Nirmal Yada
12. उत्तराखंड: 79.63 फीसदी
तस्वीर: DW/R. Chakraborty
11. मणिपुर: 79.85 फीसदी
तस्वीर: DW/Bijoyeta Das
10. नागालैंड: 80.11 फीसदी
तस्वीर: Souvid Datta
09. तमिलनाडु: 80.33 फीसदी
तस्वीर: Thomson Reuters Foundation/R. Srivastava
08. सिक्किम: 82.20 फीसदी
तस्वीर: picture-alliance/robertharding/T. L. Kelly
07. महाराष्ट्र: 82.91 फीसदी
तस्वीर: Chhavi Sachdev
06. हिमाचल प्रदेश: 83.78 फीसदी
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/R. R. Jain
05. दिल्ली: 86.34 फीसदी
तस्वीर: DW/J. Sehgal
04. गोवा: 87.40 फीसदी
तस्वीर: Murali Krishnan
03. त्रिपुरा: 87.75 फीसदी
तस्वीर: Sanchay Chakma
04. मिजोरम: 91.58 फीसदी
तस्वीर: ARINDAM DEY/AFP/Getty Images
01. केरल: 93.91 फीसदी
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रिपोर्ट में डाटा संग्रहण की प्रविधि और प्रक्रिया ध्यान खींचती है. इसे वास्तविक हालात के बरक्स रख कर देखें तो इसकी विश्वसनीयता और प्रामाणिकता पर संदेह नहीं रहता. बेशक कुछ कमियां भी हैं. कुल आकलन बताता है कि दुनिया के कई देश अपने मानव संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं. ना वे शिक्षा और स्वास्थ्य को समग्र विकास की अवधारणा से जोड़ना चाह रहे हैं और ना सार्वजनिक पूंजी को बढ़ा पा रहे हैं.
विशेषज्ञ इस बात को बार बार रेखांकित करते रहे हैं कि किसी देश का ह्यूमन कैपिटल तभी निर्मित होता है, जब उस देश की आर्थिक उत्पादकता में योगदान करने वाली वर्क फोर्स बेहतर तौर पर शिक्षित, स्वस्थ, जानकार और कौशल संपन्न हो.
शिक्षा और स्वास्थ्य पर केंद्रित इस अध्ययन में पता लगाने की कोशिश की गई थी कि व्यक्ति कितनी शिक्षा हासिल कर पाता है और कितने लंबे समय तक उसमें प्रभावी कार्यक्षमता बनी रहती है. किस देश ने ह्यूमन कैपिटल पर कितना निवेश किया और उसका क्या हासिल रहा- यह भी इस रिपोर्ट में बताया गया है. क्योंकि इससे ही पता चलता है कि कोई देश अपनी अर्थव्यवस्था को बढ़ाने की कितनी क्षमता रखता है. जैसे अमेरिका की ही बात करें तो वह छठें स्थान से खिसककर 27वें पर आ गया है.
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इस सूची में यूरोप के देश टॉप स्थानों पर हैं. सबसे ऊपर फिनलैंड, आइसलैंड, डेनमार्क और नीदरलैंड्स और पांचवे नंबर पर ताइवान है. एशिया से दूसरा देश दक्षिण कोरिया है जो टॉप 10 में आता है. बाकी यूरोपीय देश ही हैं- नॉर्वे, लक्जमबर्ग, फ्रांस और बेल्जियम. लेकिन यूरोप का एक प्रमुख देश और दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला जर्मनी इस लिस्ट में 21वें नंबर पर है.
बराबर मौकों का लक्ष्य अब भी औरतों से दूर
वैसे तो आदमी और औरत के बीच असमानता पूरी दुनिया में दिखती है लेकिन उसमें भी कुछ इलाके आगे तो कुछ काफी पीछे हैं. महिलाओं की शिक्षा, रोजगार और राजनैतिक प्रतिनिधित्व में हुई प्रगति के कारण काफी सुधार आया है.
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स्कूल के दरवाजे खुले
यूनेस्को के अनुसार सन 1990 में दुनिया की करीब 60 फीसदी लड़कियों को स्कूल नहीं भेजा जाता था. 2009 में यह संख्या घटकर 53 फीसदी रह गई.
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कहां हुआ सबसे ज्यादा सुधार
स्कूल जाने के आंकड़ों में सबसे अधिक सुधार पूर्वी एशिया और प्रशांत क्षेत्र में हुआ है. केवल 20 सालों में वहां स्कूल से बाहर रह गई लड़कियों की संख्या 70 फीसदी से घट कर 40 फीसदी हो गई.
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उच्च शिक्षा में महिलाएं आगे
कई विकसित देशों, सेंट्रल और ईस्टर्न यूरोप, ईस्ट एशिया और पैसिफिक, लैटिन अमेरिका और नॉर्थ अफ्रीका में पुरुषों से अधिक महिलाएं उच्च शिक्षा लेती हैं. जबकि दुनिया के कुल अनपढ़ों में 60 फीसदी महिलाएं हैं.
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नौकरी नहीं करतीं
नौकरी की उम्र वाली विश्व भर की केवल आधी महिलाएं ही या तो नौकरी करती हैं या उसकी तलाश में हैं. यूएन के आंकड़े बताते हैं कि इसके मुकाबले करीब 77 फीसदी आदमी कामकाज में सक्रिय हैं.
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सबसे कामकाजी महिलाएं कहां
सब सहारा अफ्रीका में करीब 64 फीसदी महिलाएं कामकाजी हैं. मिडिल ईस्ट, नॉर्थ अफ्रीका में 75 फीसदी पुरुषों के मुकाबले केवल 22 फीसदी महिलाएं कामकाजी हैं. दक्षिण एशिया में मात्र 30 प्रतिशत औरतें कामकाजी हैं.
तस्वीर: DW
आमदनी में बड़ा अंतर
यूएन की मानें तो वैश्विक स्तर पर महिलाओं की औसत आमदनी पुरुषों से 23 फीसदी कम है. दक्षिण एशिया में यह अंतर 33 प्रतिशत है तो मिडिल ईस्ट में 14 फीसदी. इस गति से महिला-पुरुष की आय के बराबर होने में 70 साल लग जाएंगे.
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निचले पायदान पर सबसे ज्यादा
विकसित देशों में निचले स्तर के काम में 71 फीसदी और विकासशील देशों की 56 फीसदी महिलाएं लगी हैं. प्रबंधन के स्तर पर विकसित देशों की 39 और विकासशील देशों की 28 प्रतिशत महिलाएं हैं. केवल 18.3 प्रतिशत बिजनेस ही महिलाओं के नेतृत्व वाले हैं.
तस्वीर: Fotolia
बेगार का काम
आईएलओ के आंकड़े दिखाते हैं कि औसत रूप से महिलाएं घर के काम, बच्चों-बुजुर्गों की देखभाल में पुरुषों के मुकाबले ढाई गुना अधिक मुफ्त काम करती हैं. दुनिया की कुल वर्कफोर्स की 40 फीसदी महिलाएं हैं. पार्ट टाइम काम करने वालों में 57 फीसदी महिलाएं हैं.
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राजनैतिक प्रतिनिधित्व
2015 में विश्व के कुल सांसदों में 22 फीसदी महिलाएं थीं. 1995 में यह संख्या मात्र 11.3 फीसदी थी. हालांकि इसमें क्षेत्रीय विभिन्नताएं खूब हैं. जनवरी 2015 के आंकड़े देखें तो केवल 17 फीसदी महिला मंत्री थीं और उनमें भी ज्यादातर को स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे सामाजिक मंत्रालय ही सौंपे गए थे.
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विश्व आर्थिक मंच ने भी इस तरह का ह्यूमन कैपिटल सूचकांक 2017 में जारी किया था, जिसमें भारत का नंबर 130 देशों की सूची में 103 पर था. दक्षिण एशिया में श्रीलंका और नेपाल की रैंकिंग उससे ज्यादा थी. भारत के समक्ष बेरोजगारी और असमानताएं बड़ी चुनौतियां मानी जाती हैं. रोजगार सिकुड़ रहे हैं, नए अवसर नहीं बन रहे हैं. कुल मिलाकर समावेशी विकास का सूचकांक नीचे गिर रहा है. और यह तब हो रहा है जबकि भारत तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्था वाला देश है जिसके पास प्रचुर सामर्थ्य, संसाधन, कौशल और तकनीक उपलब्ध है.
वैश्विक सूचकांकों में ऐसी खराब स्थिति का अर्थ यह है कि पूरी विकास प्रक्रिया और उसे लागू करने की नीतियों और इच्छाशक्ति में ही कहीं झोल है. सार्वजनिक पूंजी पर निजी सेक्टर का निवेश हावी है. आर्थिक सुधारों से विषमता कम होने का दावा किया गया था लेकिन ऐसा नहीं हुआ है. संसाधन मुट्ठी भर लोगों के हाथों में आ गए हैं. वैसे भारत की संपत्ति का आकार भी बढ़ा है लेकिन इसका लाभ गरीबों और वंचितों को नहीं मिला है. बात वहीं पर आकर ठहरती है कि शिक्षा और स्वास्थ्य की बेहतरी से बेहतर ह्यूमन कैपिटल बनाने की. उस काम ने गति ही नहीं पकड़ी. यानी सबकी गतिशीलता मे कई किस्म के अवरोध हैं. उन्हे चिंहित करने और हटाने की जरूरत है.
2030 तक समावेशी और सतत आर्थिक विकास, मुकम्मल रोजगार और कार्यक्षमता विकास के संयुक्त राष्ट्र लक्ष्यों से भारत भी जुड़ा है. लेकिन योजनाओं के अमल के तरीकों और प्रकियाओं पर भी पारदर्शिता बनाए रखने की जरूरत है. रिपोर्टों और अध्ययनों पर मुंह बिसोरने या उनमें कोई साजिश देखने से ज्यादा हालात को बेहतर बनाने की दिशा में कार्य जारी रहना चाहिए. क्योंकि मानव संसाधन की बेहतरी के पैमाने को अलग कर सिर्फ आर्थिक सुधार और निवेश के बल पर समृद्धि को नहीं आंका जा सकता है.
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तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/Lai Seng Sin
यहूदी, 13.4 साल
पुरूष: 13.4 साल, महिलाएं: 13.4 साल (लैंगिक अंतर: 0 साल)
तस्वीर: Getty Images/AFP/J. Guez
ईसाई, 9.3 साल
पुरूष: 9.5 साल, महिलाएं: 9.1 साल (लैंगिक अंतर: 0.4 साल)
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/N. El-Mofty
अ-धर्मी, 8.8 साल
पुरूष: 9.2 साल, महिलाएं: 8.3 साल (लैंगिक अंतर: 0.8 साल)
तस्वीर: picture-alliance/ David Wimsett/UPPA/Photoshot
बौद्ध, 7.9 साल
पुरूष: 8.5 साल, महिलाएं: 7.4 साल (लैंगिक अंतर: 1.1 साल)
तस्वीर: DW/V. hoelzl
मुसलमान, 5.6 साल
पुरूष: 6.4 साल, महिलाएं: 4.9 साल (लैंगिक अंतर: 1.5 साल)
तस्वीर: Getty Images/S. Gallup
हिंदू, 5.6 साल
पुरूष: 6.9 साल, महिलाएं: 4.2 साल (लैंगिक अंतर: 2.7 साल)