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कानून और न्याय

भारत: क्या आरक्षण मूल अधिकार नहीं है?

चारु कार्तिकेय
१० फ़रवरी २०२०

सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया है कि नौकरियों में आरक्षण मूल अधिकार नहीं है और आरक्षण देने के लिए सरकार को बाध्य नहीं किया जा सकता है. इससे भारत में आरक्षण के अस्तित्व पर ही बहस शुरू हो गई है. 

Indien – Dalit Proteste
तस्वीर: Getty Images/Hindustan Times

सुप्रीम कोर्ट के एक ताजा फैसले से सरकारी नौकरियों में आरक्षण के मूल प्रावधान पर ही सवालिया निशान लग गया है. अदालत ने कहा है कि आरक्षण कोई मूलभूत अधिकार नहीं है और अगर कहीं पर सरकार ने नौकरियों में और पदोन्नतियों में आरक्षण नहीं दिया है तो उसे आरक्षण देने पर बाध्य नहीं किया जा सकता है.

यह मामला 2012 में उत्तराखंड सरकार द्वारा लिए गए एक फैसले से संबंधित था. पांच सितंबर 2012 को तत्कालीन उत्तराखंड सरकार ने निर्णय लिया था कि राज्य में जन सेवाओं में सारे पद अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों को कोई भी आरक्षण दिए बिना भरे जाएंगे. इस फैसले को बाद में जब उत्तराखंड उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई, तो अप्रैल 2019 में उच्च न्यायालय ने फैसले को रद्द कर दिया.

बाद में उच्च न्यायालय ने अपने ही फैसले का पुनरावलोकन करते हुए राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वो राज्य सरकार की विभिन्न सेवाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अधिकारियों के प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता के संबंध में परिमाणित करने लायक आंकड़े इकट्ठे करे. उच्च न्यायालय का कहना था कि इन आंकड़ों के आधार पर राज्य सरकार फैसला ले पाएगी कि आरक्षण देना है या नहीं.

तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/A. Qadri

उच्च न्यायालय के इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई और उसी मामले में सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला आया है. अदालत ने कहा है कि जन सेवाओं में भर्ती में आरक्षण देना है या नहीं ये फैसला सरकार ले सकती है और उसे आरक्षण देने पर बाध्य नहीं किया जा सकता है. इस फैसले से आरक्षण के मूल संवैधानिक प्रावधान पर ही सवाल उठ खड़ा हुआ है.

क्या वाकई आरक्षण मूल अधिकार नहीं है?

इस सवाल का जवाब पेंचीदा है. यूं तो आरक्षण की चर्चा भारतीय संविधान के तीसरे भाग के अनुच्छेद 15 (4), (5) और 16 (4) के तहत है. लेकिन चूंकि पूरे का पूरा भाग 3 ही मूल अधिकारों से संबंधित है इसलिए ये मान लिया जाता है कि आरक्षण एक मूल अधिकार है. इस पर नेशनल अकादमी ऑफ लीगल स्टडीज एंड रिसर्च (नालसार) के उपकुलपति फैजान मुस्तफा का कहना है कि अगर आप संविधान की संकुचित व्याख्या करते हैं तब तो आप पाएंगे कि आरक्षण को कहीं पर भी एक मूल अधिकार के रूप में स्पष्ट रूप नहीं लिखा गया है. मुस्तफा आगे कहते हैं, "लेकिन, अगर आप संविधान की उदार व्याख्या करते हैं, तो आप समझेंगे कि आरक्षण का प्रावधान बराबरी के अधिकार में निहित है. यही नहीं, आरक्षण बराबरी के लिए अपवाद नहीं बल्कि बराबरी का ही विस्तार है."

सोमवार 10 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर संसद में तीखी बहस हुई जिसमे विपक्षी पार्टियों ने फैसले पर ऐतराज जताया और इसके लिए केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहराया. कांग्रेस ने आरोप लगाया कि बीजेपी-आरएसएस की पूरी मानसिकता ही आरक्षण को खत्म करने की है.

राष्ट्रीय जनता दल ने सरकार से कहा है कि अगर केंद्र की एनडीए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया तो "सड़क से लेकर संसद तक संग्राम होगा." 

इस मामले में सरकार में भी राय विभाजित लग रही है, क्योंकि भाजपा के घटक दल लोक जनशक्ति पार्टी ने भी इस फैसले का विरोध किया है और सरकार से कहा है कि वह आरक्षण के प्रावधान को सुरक्षित रखने के लिए जल्द आवश्यक कदम उठाए.

केंद्र सरकार इस समय इस मुद्दे को लेकर सावधानी बरत रही है. मामले पर लोक सभा में बयान देते हुए सामाजिक न्याय मंत्री थावरचंद गेहलोत ने सिर्फ इतना कहा कि भारत सरकार इस पर "उच्च स्तर पर विचार कर समुचित कदम उठाएगी."

ये पिछले छह सालों में पहली बार नहीं है जब आरक्षण के मूल अस्तित्व पर ही बहस खड़ी हो गई है. इसके पहले भी कई बार या तो सरकार के किसी कदम से या सुप्रीम कोर्ट के किसी फैसले की वजह से आरक्षण पर सरकार और विपक्षी पार्टियां आमने सामने आई हैं. आगे यह देखना होगा कि केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के खिलाफ याचिका दायर करती है या नहीं. 

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