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भारत पर फ़ुटबॉल का बुख़ार

४ मई २०१०

दक्षिण अफ्रीका में 11 जून से शुरू होने फुटबॉल वर्ल्ड कप का जूनून भारत में दिखने लगा है. देश में भले ही क्रिकेट नंबर वन हो और फुटबाल टीम का अता पता ही न लेकिन बच्चों को देखकर ऐसा नहीं लगता कि फुटबॉल की लोकप्रियता कम है.

रूनी ख़ासे लोकप्रियतस्वीर: picture-alliance/Pressefoto ULMER/Markus Ulmer

भारत में इन दिनों बच्चों को रंग बिरंगी बेकहम या रूनी की जर्सी पहन कर फुटबॉल खेलते देख कर लगता है कि फुटबॉल की लोकप्रियता ऊपर जा रही है. भारत की तरफ से कई अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में खेल चुके अनादी बरुआ इसे ''मौसमी बुखार'' तो मानते हैं लेकिन साथ ही यह भी दावा करते हैं की भारत में फुटबॉल एक बार फिर लोकप्रिय हो रहा है.

किसी हद तक बरुआ के दावों में सच्चाई तो है. दिल्ली से सटे नोएडा में बरुआ एक फुटबॉल अकादमी के इंचार्ज हैं, जहां वो कुछ पूर्व अंतरराष्ट्रीय खिलाडियों के साथ बच्चों को प्रशिक्षण देते हैं. नोएडा की स्थानीय प्रशासन की अकादमी में बच्चों का उत्साह को देख कर लगता है कि बरुआ की बात में दम तो है. रविवार को देउचे वेल्ले ने बरुआ की अकादमी का जाएज़ा लिया और पाया की नोएडा स्टेडियम रंग बिरंगे फूलों से भरा एक बड़ा बगीचा लग रहा था. गहरी लाल, पीली और नीले रंगों की जर्सी में बच्चे अनोखी छठा बिखेर रहे थे. हालांकि जर्सी के पीछे बेकहम, रूनी और रोनाल्डो जैसे स्टार खिलाड़ियों का था. बच्चों को भारतीय फुटबॉल खिलाड़ियों में बाइचुंग भूटिया के अलावा और कोई नाम नहीं सूझा.

क्रिस्टियानो रोनाल्डोतस्वीर: AP

ऐसा नहीं है कि यह नज़ारा केवल दिल्ली या नोएडा तक ही सीमित हो. देश के बाकी हिस्सों में भी ऐसा देखा जा रहा है. कोलकाता में चोरंगी के सामने मैदान या मुंबई में शिवाजी पार्क में भी फ़ुटबाल का खुमार देखा जा सकता है. उत्तराखंड के कुमाऊं इलाके में भी बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक में फ़ुटबॉल की ख़ास जगह है.

बरुआ मानते हैं की टीवी पर यूरोप की फ़ुटबाल देखकर बच्चे वहां के खिलाड़ियों से तो वाकिफ हैं लेकिन अपने देश की टीमों और खिलाडियों के नाम नहीं जानते. यहां तक कि जब देउचे वेल्ले ने बच्चों से वर्ल्ड कप में उनकी मनपसंद टीम नाम पूछा को तो बहुतों ने मैनचेस्टर यूनाइटेड, लीवरपूल और आर्सेनल के नाम भी ले डाले. इन बच्चों की फुटबॉल शायद टीवी पर दिखने वाले मैचों तक ही सीमत है. शायद वर्ल्ड कप के दौरान दिल्ली और अन्य बड़े शहरों में होटलों में बड़ी स्क्रीन पर मैच देखने और उसकी वजह से बच्चे वर्ल्ड कप की टीमों के नाम जान जाएं.

बरुआ के अनुसार इसकी खास वजह भारतीय फ़ुटबॉल का ख़राब हाल है. बरुआ का कहना है, ''तेज़ रफ़्तार की कलात्मक फ़ुटबॉल देखने के बाद धीमी देसी फ़ुटबॉल में मज़ा नहीं आता और यही वजह है कि बच्चे भारतीय फ़ुटबॉल में रुचि नहीं दिखाते.''

मैसीतस्वीर: AP

बरुआ भारतीय मीडिया को भी किसी हद तक इसके लिए दोषी मानते हैं. वह कहते हैं, ''हर समय मीडिया यह बताता रहता है की क्रिकेट के खिलाड़ी जैसे युवराज सिंह, धोनी और हरभजन क्या खा रहे हैं और क्या पी रहें हैं लेकिन फ़ुटबॉल या और किसी खेल के बारे में ज़्यादा न लिखा जाता है न दिखया जाता है. ऐसे में बच्चे कैसे भारतीय फ़ुटबॉल से परिचित होंगे.'' कहना है बरुआ का.

शायद इसीलिए बरुआ ने बहुत ही छोटी उम्र के बच्चों को शुरू से ही फ़ुटबॉल से रूबरू कराने और ट्रेनिंग देने का बीड़ा उठाया है.

नोएडा की अकादमी में सात या आठ साल के बच्चों की भरमार है. उनमें से कुछ ने तो फ़ुटबॉल की कला को सीख भी लिया है. मज़े की बात यह है कि बच्चों के इस शौक में उनके मां बाप का पूरा साथ है. जहां बच्चे मैदान में बरुआ से ट्रेनिंग लेते हैं वहीं मैदान के बाहर बैठे मा बाप इन छोटे खिलाड़ियों को उत्साह से देखते हैं.

बरुआ कहते हैं, ''यह ठीक है की वर्ल्ड कप की वजह से आजकल फुटबाल कुछ ज्यादा ही चर्चा में है लेकिन हमारे काफी बच्चे खेल को बहुत ही गंभीरता से लेते हैं और मेहनत करके बड़ा खिलाडी बनना चाहते हैं,'' ऐसे ही एक बच्चे को कुछ साल पहले बरुआ ने फ़ुटबॉल के गुर सिखाने शुरू किए थे आज उसी रॉबिन सिंह को भारत की मशहूर टीम ईस्ट बंगाल ने 50 लाख में साइन किया है. बरुआ रॉबिन सिंह को नॉएडा की शान मानते हैं और नोएडा में फ़ुटबॉल की लोकप्रियता के एक कारम भी. शायद इसे से प्रेरित होकर बरुआ अपने कुछ होनहार खिलाडयों को फ्रांस ले जा कर अभ्यास करने के प्रोग्राम भी बना रहे हैं.

रिपोर्ट: नौरिस प्रीतम, नई दिल्ली

संपादन: ओ सिंह

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