भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु जल संधि पर पिछले सालों से तनातनी चल रही है. करीब सात दशक पुरानी संधि के तहत हर साल होने वाली दो- दिवसीय वार्ता सोमवार को लाहौर में शुरू हो गई है.
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पिछली वार्ता मई 1915 में हुई थी और अगली 2016 में होनी थी लेकिन उड़ी में हुई आतंकवादी घटना के बाद इसे टाल दिया गया था. अब संधि की शर्तें पूरी करने के लिए वार्ता की जा रही है लेकिन दोनों ही देश इसके प्रति बहुत अधिक उत्साहित नहीं लगते क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जल के बंटवारे के सवाल को आतंकवाद को पाकिस्तानी समर्थन की समाप्ति के साथ जोड़ दिया है. भारत सरकार ने पिछले कुछ महीनों के दौरान कश्मीर में 15 अरब डॉलर की लागत वाली छह पनबिजली परियोजनाओं पर हो रहे काम की गति को तेज कर दिया है जिसके कारण पाकिस्तान की आशंकाएं और भी ज्यादा बढ़ गई हैं. कश्मीर पर पाकिस्तान अपना हक जताता है और पूरे जम्मू-कश्मीर राज्य को विवादास्पद क्षेत्र बताता है. इसलिए उसके लिए इन परियोजनाओं को बिना विरोध के स्वीकार करना संभव नहीं है क्योंकि इनका रणनीतिक महत्व भी है.
इनमें सबसे बड़ी परियोजना सावलकोट संयंत्र की है जो 1856 मेगावाट का होगा. चिनाब नदी पर लगने वाली इन परियोजनाओं के पूरा होने के बाद जम्मू-कश्मीर के बिजली उत्पादन में तीन गुना बढ़ोतरी होने की आशा है. इस समय राज्य में 3000 मेगावाट बिजली पैदा होती है. हालांकि इन परियोजनाओं को पूरा होने में कई साल लगेंगे लेकिन उन्हें भारत सरकार की ओर से मंजूरी मिलना ही पाकिस्तान को भड़काने के लिए काफी है. यह अलग बात है कि इन परियोजनाओं की तकनीकी रूपरेखा 1991 में बनी थी और हर पहलू की जांच-पड़ताल करने के बाद उन्हें मंजूरी मिलने में इतना अधिक समय लग गया. लेकिन पर्यावरणवादी अभी भी इनका विरोध कर रहे हैं क्योंकि यह समूचा क्षेत्र बाढ़, भूस्खलन और भूकंप की संभावना वाला क्षेत्र हैं.
कहां कहां हो रहे हैं पानी पर झगड़े
भारत में कावेरी जल विवाद हो या सतलुज यमुना लिंक का मुद्दा, पानी को लेकर अकसर खींचतान होती रही है. वैसे पानी को लेकर झगड़े दुनिया में और भी कई जगह हो रहे हैं. एक नजर बड़े जल विवादों पर.
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ब्रह्मपुत्र नदी विवाद
2900 किलोमीटर लंबी ब्रह्मपुत्र नदी चीन के तिब्बत से निकलती है. अरुणाचल प्रदेश और असम से होते हुए ये बांग्लादेश में गंगा में मिल जाती है. उर्जा के भूखे चीन के लिए जहां इस नदी का पनबिजली परियोजनाओं के लिए महत्व है, वहीं भारत और बांग्लादेश के बड़े भूभाग को ये नदी सींचती है. भारत और चीन के बीच इसके पानी के इस्तेमाल के लिए कोई द्विपक्षीय संधि नहीं है लेकिन दोनों सरकारों ने हाल में कुछ कदम उठाए हैं.
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ग्रांड रेनेसॉ बांध और नील नदी
2011 में अफ्रीकी देश इथियोपिया ने ग्रांड इथियोपियन रेनेसॉ बांध बनाने की घोषणा की. सूडान की सीमा के नजदीक ब्लू नील पर बनने वाले इस बांध से छह हजार मेगावॉट बिजली बन सकेगी. बांध बनाने का विरोध सूडान भी कर रहा है लेकिन मिस्र में तो इससे पानी की आपूर्ति प्रभावित होने का खतरा है. 1929 और 1959 में संधियां हुई हैं. लेकिन इथियोपिया किसी बात की परवाह किए बिना बांध बना रहा है जो 2017 तक पूरा हो सकता है.
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इलिसु बांध और तिगरिस नदी
तुर्की सीरियाई सरहद के पास तिगरिस नदी पर इलिसु बांध बना रहा है. इस महत्वाकांक्षी परियोजना के से सिर्फ तिगरिस बल्कि यूफ्रेटस की हाइड्रोइलेक्ट्रिक क्षमताओं का भरपूर इस्तेमाल किया जाना है. तुर्की अपनी अनातोलियन परियोजना के तहत तिगरिस-यूफ्रेटस के बेसिन में कई और बांध और हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्लांट लगाना चाहता है. लेकिन इससे सबसे बड़ा घाटा इराक का होगा जिसे अब तक इन नदियों का सबसे ज्यादा पानी मिलता था.
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सिंधु जल संधि विवाद
पानी के बंटवारे के लिए विश्व बैंक ने 1960 में भारत और पाकिस्तान के बीच एक संधि कराई जिसे सिंधु जल संधि के नाम से जाना जाता है. इसके तहत ब्यास, रावी और सतलज नदियों का नियंत्रण भारत को सौंपा गया जबकि सिंधु, चेनाब और झेलम का नियंत्रण पाकिस्तान को. पानी का बंटवारा कैसे हो, इसे लेकर विवाद रहा है. चूंकि पाकिस्तान के नियंत्रण वाली नदियां भारत से होकर जाती है, भारत इसका इस्तेमाल सिंचाई के लिए कर सकता है.
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शायाबुरी बांध
दक्षिण पूर्व एशियाई देश लाओस मेकॉन्ग नदी पर शायाबुरी बांध बना रहा है जिसका उसके पड़ोसी देश और पर्यावरणविद् विरोध कर रहे हैं. बांध के बाद ये नदी कंबोडिया और वियतनाम से गुजरती है. उनका कहना है कि बांध के कारण उनके मछली भंडार और लाखों लोगों की जिंदगियां प्रभावित होंगी. गरीब लाओस शायाबुरी बांध को अपनी आमदनी का जरिया बनाना चाहता है. उसकी योजना इससे बनने वाली बिजली को पड़ोसी देशों को बेचना है.
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पानी पर सियासत
मध्य पूर्व में जॉर्डन नदी का बेसिन इस्राएल और अन्य देशों के बीच सियासत का एक अहम मुद्दा है. मध्य पूर्व में पानी के स्रोतों की कमी होने की वजह इस्राएल, पश्चिमी तट, लेबनान, सीरिया और जॉर्डन के बीच अकसर खींचतान होती रहती है. 1960 के दशक में पानी के बंटवारे को लेकर इस्राएल और अरब देशों के बीच तीन साल तक चले गंभीर विवाद को जल युद्ध का नाम दिया जाता है.
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सिंधु जल संधि 1960 में हुई थी जब भारत में जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री और पाकिस्तान में फील्ड मार्शल अयूब खान राष्ट्रपति थे. इसे विश्व बैंक के तत्वावधान में संपन्न किया गया था और विवाद होने पर विश्व बैंक ही उसे सुलझाने के लिए मध्यस्थता करता है. पिछले साल पाकिस्तान ने किशनगंगा और रातले पनबिजली योजनाओं पर आपत्ति दर्ज कराते हुए विश्व बैंक के दरवाजे पर दस्तक दी थी. बैंक ने तटस्थ विशेषज्ञ नियुक्त करने की प्रक्रिया शुरू भी कर दी थी लेकिन भारत के ऐतराज जताने पर उसे रोक दिया गया. सोमवार से लाहौर में शुरू हुई वार्ता में एक फांस यह भी है कि भारत इन परियोजनाओं पर बात करना चाहता है लेकिन पाकिस्तान का कहना है कि अब गेंद विश्व बैंक के पाले में है और बैठक में उन पर चर्चा करना बेमानी होगा.
जिस बैठक का एजेंडा ही विवाद में घिरा हो, उसकी सफलता की बहुत अधिक उम्मीद करना मुश्किल है. बहुत अधिक संभावना यही है कि दो दिन तक वार्ता के नाम पर कदमताल करने के बाद भारतीय प्रतिनिधिमंडल स्वदेश लौट आएगा और परियोजनाओं पर विवाद बना रहेगा. सिंधु जल संधि के बारे में यह बात जरूर कही जानी चाहिए कि भारत और पाकिस्तान के बीच आज तक जितने भी समझौते या संधियां हुईं, उनमें से केवल यही अकेली ऐसी है जिसका अभी तक पालन होता आया है और जिसकी सफलता असंदिग्ध रूप से सिद्ध हुई है.