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भारत बंधकों की अदला बदली करेः समुद्री डाकू

१८ अप्रैल २०११

सोमालिया के समुद्री डाकुओं ने भारत सरकार से कहा है कि वह भारतीय जेल में कैद उनके साथियों को रिहा कर दे और इसके बदले बंधक जहाज के कर्मचारियों को ले ले. लेकिन भारत में इसके लिए कोई कानून ही नहीं.

कई समुद्री डाकू भारतीय नौसेना की गिरफ्त मेंतस्वीर: picture alliance/Photoshot

दिल्ली में इंडियन काउंसिल फॉर वर्ल्ड अफेयर्स के निदेशक विजय सखूजा बताते हैं, "यह समुद्री बंधकों का मामला है और अपनी तरह का पहला है जिसके तहत बंधकों के बदले कैदियों की रिहाई की मांग की जा रही है. अभी तक आईसी-814 विमान का मामला था जो उड्डयन से जुड़ा था. या देश में पीडीपी नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबैया सईद वाला मामला था."

कोई कानून नहीं

जानकार कहते हैं कि भारत में समुद्री बंधकों की अदला बदली के लिए कोई कानून नहीं है. 28 सितंबर 2010 को एमटी अस्फाल्ट वेंचर के टैंकर को डरबन जाते हुए समुद्री डाकुओं ने अगवा कर लिया. इसमें 15 भारतीय नागरिक कर्मचारी थे. फिरौती के तौर पर भारी रकम देने के बाद पिछले शुक्रवार को डाकुओं ने टैंकर तो दे दिया लेकिन 16 अप्रैल को सिर्फ 8 भारतीय कर्मचारियों को रिहा किया गया.

बंधक बनाए गए भारतीयों के परिवारतस्वीर: DW/Murali Krishnan

मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक सोमालियाई डाकुओं ने सात नागरिकों को विरोध के तौर पर बंधक बना कर रखा है क्योंकि भारतीय नौसेना ने 100 समुद्री डाकुओं को गिरफ्तार किया था.

इतिहास से सच्चाई में

इस साल में ही भारतीय नौसेना ने 29 जनवरी को 15 और 14 मार्च को 61 समुद्री डाकुओं को पकड़ा. सखूजा ने कहा कि कुछ दिन पहले तक समुद्री डाकू इतिहास और फिल्मी कहानियों का हिस्सा थे लेकिन अब वे सच्चाई हैं. उनके मुताबिक अभी इस्तेमाल किए जाने वाला एडमिरालिटी लॉ या मैरिटाइम लॉ मध्ययुग में बनाया गया था. हालांकि 1982 में बने लॉ ऑफ द सी पर संयुक्त राष्ट्र समझौते (यूएनसीएलओएस) में इस समस्या पर बात की गई है.

1999 में जापानी जहाज एमवी एलोंड्रा रेनबो का अपहरण का मामला भारतीय अदालत में समुद्री लूट का पहला केस था. भारतीय तट रक्षकों ने 14 इंडोनेशियाई समुद्री डाकुओं को पकड़ा जो सिर्फ मलेशियाई बोली बोलते थे. 4 साल की सुनवाई के बाद उन्हें 6 महीने से 7 साल कैद की सजा दी गई. इसमें से आधी सजा तो सुनवाई के दौरान ही खत्म हो गई.

जड़ में जटिलता

आधुनिक समय में जहाजरानी उद्योग बहुत जटिल हो गया है, क्योंकि जहाज अलग अलग देश के होते हैं. उनकी मिल्कीयत किसी देश की होती है और काम करने वाले किसी और देश के. ऐसी स्थिति में जिस देश का झंडा जहाज पर लगा होता है वह समुद्री लूट के मामलों में मुकदमा चलाता है. चेन्नई में नाविकों के क्लब के एमराजी कहते हैं, "सामान्य तौर पर जहाज के मालिक से अनुबंध होता है कि वह लुटेरों के हमले या अपहरण की स्थिति में जहाज के कर्मचारियों को सुरक्षित घर पहुंचाएंगे. लेकिन यह समय अलग है.

राजी कहते हैं कि जानकार और नाविक मानते हैं कि फिरौती देना सामान्य प्रैक्टिस है लेकिन सरकार सब छिपाती है और सिर्फ सफल कार्रवाई का ही बखान करती है.

कानून की कमी

अगर समुद्री डाकुओं को पकड़ भी लिया जाए तो भी उन पर मुकदमा चलाना बहुत जटिल मुद्दा है. सखूजा कहते हैं, "भारतीय नौसेना या तट रक्षक समुद्री डाकुओं को सिर्फ पकड़ सकते हैं लेकिन उन पर मुकदमा नहीं चला सकते. इसलिए इन्हें पुलिस के हवाले कर दिया जाता है. पुलिस को कानूनी कार्रवाई शुरू करनी पड़ती है. इस तरह के मामलों को सुलझाने के लिए हमारे पास एक सटीक कानून होना चाहिए."

अधिकतर मामलों में जिस देश के मुजरिम हैं उस देश के राष्ट्रपति से मिल कर यह मुश्किल हल की जाती है. लेकिन सोमालियाई डाकुओं के मामले में यह संभव नहीं है क्योंकि वहां स्थिर सरकार ही नहीं है.

मलेशिया में गिरफ्तार सोमालियाई डाकूतस्वीर: AP

एंटी पायरेसी प्रस्ताव

समुद्री डाकुओं के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र में 11 अप्रैल को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने एंटी पायरेसी रिजॉल्यूशन पारित किया. 2010-11 में भारतीय रक्षा मंत्रालय की रिपोर्ट में भी समुद्री लुटेरों की समस्या को मुख्य समस्या बताया गया है.

जनवरी 2011 में ही समुद्री डाकुओं ने कुल 142 हमले किए. इनमें 18 जहाजों का अपहरण किया गया और 344 कर्मचारी बंधक बनाए गए. कुआलालंपुर के इंटरनेशल मैरिटाइम ब्यूरो ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि इन मामलों में सात कर्मचारी मारे गए और 34 घायल हुए. 31 मार्च तक 28 जहाज और 596 कर्मचारियों को समुद्री डाकुओं ने बंधक बना रखा है. रूस समेत कुल 15 देशों में समुद्री डाकुओं पर मुकदमें चल रहे हैं.

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की कोशिशों से पारित एंटी पायरेसी प्रस्ताव से भारतीय नौसेना और तट रक्षक डाकुओं के खिलाफ और सक्रिय हो सकते हैं लेकिन इससे जहाजों की सुरक्षा नहीं बढ़ेगी, जब तक कि इस मुद्दे पर एक प्रभावी कानून नहीं बन जाता.

रिपोर्टः एजेंसियां/आभा एम

संपादनः वी कुमार

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