बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना 7 अप्रैल को अपने चार दिवसीय भारत दौरे पर दिल्ली पहुंचेगीं. इस दौरान सबकी निगाहें खासतौर पर तीस्ता नदी के पानी के बंटवारे पर प्रस्तावित समझौते पर टिकी रहेंगी.
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पिछले सात सालों में यह किसी बांग्लादेशी प्रधानमंत्री का पहला भारत दौरा होगा. बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना 7 अप्रैल को अपने चार दिवसीय भारत दौरे पर दिल्ली पहुंचेगीं. इस दौरान खासतौर पर तीस्ता नदी के पानी के बंटवारे पर प्रस्तावित समझौते पर नजरें होंगी. यह समझौता दोनों देशों के आपसी रिश्तों की राह में सबसे बड़ा रोड़ा रहा है. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इस समझौते के मौजूदा प्रारूप का विरोध करती रही हैं. उन्होंने केंद्र सरकार पर इस मामले पर राज्य को अंधेरे में रखने का भी आरोप लगाया है. वैसे, राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के न्यौते पर ममता बनर्जी भी हसीना के सम्मान में राष्ट्रपति भवन में होने वाले समारोह में शामिल होने शुक्रवार को दिल्ली जाएंगी. हसीना से ममता के निजी रिश्ते भी हैं. लेकिन तीस्ता का पानी इन रिश्तों की गर्माहट पर पानी फेर सकता है.
तीस्तानदी पर निर्भरता
गंगा, ब्रह्मपुत्र और मेघना के बाद तीस्ता भारत व बांग्लादेश से होकर बहने वाली चौथी सबसे बड़ी नदी है. सिक्किम की पहाड़ियों से निकल कर भारत में लगभग तीन सौ किलोमीटर का सफर करने के बाद यह नदी बांग्लादेश पहुंचती है. वहां इसकी लंबाई 121 किलोमीटर है. बांग्लादेश का करीब 14 फीसदी इलाका सिंचाई के लिए इसी नदी के पानी पर निर्भर है. इससे वहां की 7.3 फीसदी आबादी को प्रत्यक्ष रोजगार मिलता है.
शेख हसीना के इस दौरे का सबसे अहम मकसद भारत को तीस्ता नदी के पानी पर लंबित समझौते के लिए तैयार करना है. वर्ष 2011 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के ढाका दौरे के समय ही इस समझौते की तैयारी हो गई थी. लेकिन आखिरी मौके पर ममता ने मना कर दिया. ममता की दलील है कि पानी के बंटवारे से राज्य के किसानों को भारी नुकसान होगा. वह कहती हैं, "उत्तर बंगाल के किसानों की आजीविका तीस्ता के पानी पर निर्भर हैं. इसके पानी में कमी से लाखों लोग तबाह हो सकते हैं." वैसे, ममता कहती रही हैं कि बातचीत के जरिए तीस्ता के मुद्दे को हल किया जा सकता है. बावजूद इसके फिलहाल इसकी संभावना नहीं नजर आ रही है. शेख हसीना भी ममता की राजनीतिक मजबूरी समझती हैं. लेकिन वह चाहती हैं कि दिल्ली आम सहमति से इस समस्या के समाधान को कोई राह निकाले.
हसीना के दौरे के दौरान लगभग तीस समझौतों पर हस्ताक्षर होने की उम्मीद है. इनमें दोनों देशों के बीच रेलवे नेटवर्क को और मजबूत करना भी शामिल है. लेकिन तीस्ता समझौते को लेकर संशय जस का तस है. भारत सरकार इस दौरान यह साबित करने में जुटी है कि बांग्लादेश के साथ आपसी संबंध महज पानी पर नहीं टिके हैं. ममता अपने दिल्ली दौरे के दौरान शेख हसीना से भी मुलाकात करेंगी. इस बैठक में दोनों के बीच तमाम दूसरे मुद्दों के अलावा तीस्ता का मुद्दा भी उठने की संभावना है.
बूंद-बूंद जिंदगी
धरती पर उपलब्ध कुल पानी का सिर्फ तीन फीसदी पीने लायक है. बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए कई जगहों पर समुद्री पानी को पीने लायक बनाया जा रहा है. पूरी दुनिया में नदियां बुरी हालत में हैं.
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सिर्फ तस्वीर नहीं
भारतीयों के लिए यह तस्वीर अनोखी या अनजान नहीं. राजस्थान से लेकर अफ्रीका के कई देशों तक में महिलाओं को कई किलोमीटर चल कर पानी लाना पड़ता है. लेकिन असल में ये एक अहम अधिकार से महरूम हैं जो इंसान होने के नाते इन्हें मिलना ही चाहिए.
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मारामारी
आज दुनिया का हर दूसरा आदमी किसी न किसी शहर में रह रहा है. उनमें से ज्यादातर लोग महानगरों में रह रहे हैं. इस शहरीकरण ने जो सबसे बड़ी समस्याएं खड़ी की हैं उनमें से एक है पानी. 40 लाख से ज्यादा लोगों के शहर हैदराबाद में पानी की किल्लत, मुसीबत बनी ही रहती है.
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गंदे पानी का अनाज
नाइजीरिया के शहर लागोस की झुग्गी बस्तियों में पानी एक बड़ी लड़ाई है. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के 20 करोड़ लोग ऐसा अनाज खाते हैं जो गंदे पानी से उगाया जाता है. ये लोग खतरनाक महामारियों के खतरे की जद में हैं.
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बूंद बूंद को तरसे जीवन
जुलाई 2010 में संयुक्त राष्ट्र ने साफ पीने के पानी और स्वच्छ टॉयलेट को मानवाधिकारों में शामिल किया. लेकिन विकासशील देशों के करोड़ों लोगों के लिए यह अधिकार अभी किसी गिनती में ही नहीं है.
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विवाद का असर पानी पर
काबुल की यह बच्ची उन इलाकों का प्रतीक है जहां कोई न कोई विवाद चल रहा है. ऐसे विवादों में शहरों का ढांचा टूट जाता है और पानी जैसी सुविधाएं हासिल कर पाना मुश्किल हो जाता है. बड़ी अफगान आबादी के लिए पानी उपलब्ध नहीं है.
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नए नए हल
धरती पर उपलब्ध कुल पानी का सिर्फ तीन फीसदी पीने लायक है. बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए कई जगहों पर समुद्री पानी को पीने लायक बनाया जा रहा है. अल्जीरिया की राजधानी अल्जीयर्स में भी ऐसा हो रहा है. लेकिन यह बहुत खर्चीला और तकनीकी रूप से मुश्किल काम है.
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सिंगापुर से सीखो
सिंगापुर पानी की कमी से जूझती दुनिया के लिए आदर्श हो सकता है. इस द्वीप पर 50 लाख लोग रहते हैं. लेकिन यहां पीने का पानी लगभग ना के बराबर है. जमीन के नीचे उपलब्ध पानी और बारिश से भी काम नहीं चलाया जा सकता. पहले यह छोटा सा मुल्क मलेशिया से पानी के आयात पर निर्भर था. फिर इसने पानी को रिसाइकल करने की योजना शुरू की. कामयाब योजना.
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बनाना पड़ेगा पानी
सिंगापुर में एक भूमिगत सुरंग बनाई गई. यह सुरंग पानी की एक एक बूंद को जमा करती है. उसके बाद एक जटिल प्रक्रिया के तहत रोजाना लगभग आठ लाख क्यूबिक मीटर पानी रिसाइकल किया जाता है. आज पानी रिसाइकल करने के मामले में सिंगापुर दुनिया का लीडर है.
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पानी के दो रंग
पानी सिर्फ जरूरत नहीं, विनाश भी है. विशेषज्ञों की आशंका है कि आने वाले वक्त में मौसम में बदलाव पानी की विनाशकारी ताकत को और बढ़ाएंगे. पाकिस्तान की बाढ़ जैसी आपदाओं के जरिए पानी का उम्मीदों पर फिरने वाला रंग नजर आएगा. इसलिए जल्द से जल्द इंसान को नए मौसम के अनुरूप अपनी जरूरतों को ढालना होगा.
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बिजली भी घटेगी
न्यूयॉर्क की नियाग्रा नदी पर बना बांध दुनियाभर में फैले उन बांधों का हिस्सा है जहां पानी से बिजली बनाई जा रही है. कुल जरूरत का लगभग छठा हिस्सा बिजली पानी से ही बनती है. लेकिन बदलते मौसम ने बारिश का मिजाज बदल दिया है. इसलिए झीलों में पानी कम हो रहा है. यानी भविष्य में बिजली उत्पादन पर भी असर होगा.
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बर्बादी कब रुकेगी?
पानी की सबसे ज्यादा बर्बादी विकसित देशों में होती है. यह छोटा सा यंत्र 50 फीसदी बर्बादी बचा सकता है. ऐसी कंपनियां तेजी से बढ़ रही हैं जो पानी की बर्बादी रोकने की तकनीक विकसित करने पर काम कर रही हैं, क्योंकि भविष्य पानी का ही है.
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कैसे हल हो जल विवाद
तीस्ता नदी के पानी पर विवाद देश के विभाजन के वक्त से ही चला आ रहा है. तीस्ता के पानी के लिए ही आल इंडिया मुस्लिम लीग ने वर्ष 1947 में सर रेडक्लिफ की अगुवाई में गठित सीमा आयोग से दार्जिलिंग व जलपाईगुड़ी को तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में शामिल करने की मांग उठाई थी. लेकिन कांग्रेस और हिंदू महासभा ने इसका विरोध किया था. तमाम पहलुओं पर विचार के बाद सीमा आयोग ने तीस्ता का ज्यादातर हिस्सा भारत को सौंपा था. उसके बाद यह मामला ठंडे बस्ते में रहा. लेकिन वर्ष 1971 में पाकिस्तान से आजाद होकर बांग्लादेश के गठन के बाद पानी का मामला दोबारा उभरा. वर्ष 1972 में इसके लिए भारत-बांग्लादेश संयुक्त नदी आयोग का गठन किया गया. शुरूआती दौर में दोनों देशों का ध्यान गंगा, फरक्का बांध और मेघना व ब्रह्मपुत्र नदियों के पानी के बंटवारे पर ही केंद्रित रहा. वर्ष 1996 में गंगा के पानी पर हुए समझौते के बाद तीस्ता के पानी के बंटवारे की मांग ने जोर पकड़ा.
इससे पहले वर्ष 1983 में तीस्ता के पानी पर बंटवारे पर एक तदर्थ समझौता हुआ था. इसके तहत बांग्लादेश को 36 फीसदी और भारत को 39 फीसदी पानी के इस्तेमाल का हक मिला. बाकी 25 फीसदी का आवंटन नहीं किया गया. गंगा समझौते के बाद दूसरी नदियों के अध्ययन के लिए विशेषज्ञों की एक साझा समिति गठित की गई. इस समिति ने तीस्ता को अहमियत देते हुए वर्ष 2000 में इस पर समझौते का एक प्रारूप पेश किया. वर्ष 2010 में दोनों देशों में समझौते के अंतिम प्रारूप को मंजूरी दे दी. अगले साल यानी 2011 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के ढाका दौरे के दौरान दोनों देशों के राजनीतिक नेतृतव के बीच इस नदी के पानी के बंटवारे के एक नए फार्मूले पर सहमति बनी. लेकिन ममता के विरोध की वजह से यह फार्मूला परवान नहीं चढ़ सका.
किसको कितना पानी
इस समझौते के तहत किस देश को कितना पानी मिलेगा, फिलहाल यह साफ नहीं है. इसी वजह से ममता इसका विरोध करती रही हैं. जानकारों का कहना है कि समझौते के प्रारूप के मुताबिक, बांग्लादेश को 48 फीसदी पानी मिलना है. ममता की दलील है कि ऐसी स्थिति में उत्तर बंगाल के छह जिलों में सिंचाई व्यवस्था पूरी तरह ठप हो जाएगी. बंगाल सरकार ने एक विशेषज्ञ समिति से अध्ययन कराने के बाद बांग्लादेश को मानसून के दौरान नदी का 35 या 40 फीसदी पानी उपलब्ध कराने और सूखे के दौरान 30 फीसदी पानी देने का प्रस्ताव रखा था. लेकिन बांग्लादेश को यह मंजूर नहीं है. वहां दिसंबर से अप्रैल तक तीस्ता के पानी की जरूरत सबसे ज्यादा होती है. गर्मी के सीजन में उन इलाकों को भारी सूखे का सामना करना पड़ता है. यानि बांग्लादेश ज्यादा पानी मांग रहा है लेकिन ममता इसके लिए तैयार नहीं हैं. केंद्र सरकार को पड़ोसी देशों के साथ पानी पर समझौते का कानूनी अधिकार तो है लेकिन वह संबंधित राज्य सरकार की मंजूरी के बिना ऐसा नहीं कर सकती.
हसीना की छवि के लिए जरूरी
वैसे, ममता ने तीस्ता पर अब तक अपने पत्ते नहीं खोले हैं. वह कहती हैं, "यह दो देशों के बीच का मसला है." अंतरराष्ट्रीय राजनीति के जानकारों का कहना है कि तीस्ता समझौता दोनों देशों के लिए एक अहम राजनीतिक जरूरत है. इससे मिलने वाले सियासी फायदे के जरिये भारत-बांग्लादेश में चीन के बढ़ते प्रभाव पर अंकुश लगाने में सहायता मिलेगी. दूसरी ओर, हसीना को इससे अगले साल होने वाले आम चुनावों में सत्ता बनाए रखने में भी सहायता मिलेगी. वह खुद को ऐसे नेता के तौर पर स्थापित कर सकती हैं, जिसके लिए देश हित ही सर्वोपरि हैं. विरोधी दल उन पर भारत के हाथों की कठपुतली होने के आरोप लगाते रहे हैं. वह तीस्ता के पानी से अपनी छवि पर लगे इस दाग को भी धो सकती हैं.
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि हसीना के मौजूदा दौरे में तो तीस्ता के पानी पर समझौते की उम्मीद कम है. लेकिन इसकी ठोस जमीन तो तैयार की ही जा सकती है. भारत और बांग्लादेश दोनों का मकसद भी यही है.
दुनिया की सबसे गंदी नदियां
भारत की गंगा और यमुना जितनी पवित्र मानी जाती हैं, उतनी ही प्रदूषित भी हैं. लेकिन दुनिया में कई और नदियां हैं, जो काफी प्रदूषित हैं. इनमें अमेरिकी नदियां भी शामिल हैं. देखते हैं कुछ अहम प्रदूषित नदियों को.
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कुयाहोगा (अमेरिका)
ओहायो प्रांत में 1950 के दशक में अचानक यह नदी उस वक्त सुर्खियों में आई, जब इसमें आग लग गई. बाद में पता चला कि उद्योगों की वजह से प्रदूषित नदी के तट पर तेल की धार फैली थी, जिसमें आग लगी. इसके बाद पर्यावरण विशेषज्ञों ने इसे साफ करने की योजनाएं शुरू कीं.
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मातांजा (अर्जेंटीना)
राजधानी ब्यूनस आयर्स के पास बहती यह नदी करीब 35 लाख लोगों की सेवा करती है. लेकिन हाल के दिनों में यह बुरी तरह गंदगी का शिकार हुई है. इसके लिए करोड़ों डॉलर की राशि 1993 में निर्धारित की गई लेकिन सालों बाद पता चला कि इसका कुछ हिस्सा ही सही जगह खर्च हो पाया.
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सीटारम (इंडोनेशिया)
इसे दुनिया की सबसे गंदी नदियों में गिना जाता है. पिछले 20 साल में इसके आस पास 50 लाख की आबादी बसी है. इसके साथ ही प्रदूषण और गंदगी भी बढ़ी, जिससे निपटने के उपाय नहीं किए गए. इसके संपर्क में आने वाले हर व्यक्ति की सेहत खतरे में बताई जाती है.
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बूढ़ी गंगा (बांग्लादेश)
बांग्लादेश की राजधानी में करीब 40 लाख लोग रहते हैं. उन्हें हर रोज जल प्रदूषण से निपटना पड़ता है. मिलों और फैक्ट्रियों का कचरा सीधा नदी में जाता है. यहां मरे हुए जानवर, नाले, सीवेज और प्लास्टिक भी पहुंचते हैं, जो बूढ़ी गंगा को और गंदी कर रहे हैं.
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गंगा (भारत)
भारत की सबसे पवित्र मानी जाने वाली गंगा नदी देश की सबसे प्रदूषित नदियों में गिनी जाती है. धार्मिक कर्म कांड भी इस नदी को काफी गंदा करते हैं. प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने इसे साफ करने का बीड़ा उठाया है और गंगा पुनर्जीवन नाम का मंत्रालय भी बनाया है.
तस्वीर: DW
यमुना (भारत)
भारत की दूसरी सबसे पवित्र समझी जाने वाली यमुना नदी की भी वही हालत है, जो गंगा की. राजधानी दिल्ली और ताजमहल के शहर आगरा से होकर गुजरने वाली यमुना तो इतनी गंदी हो गई है कि कई जगहों पर सिर्फ नाले की तरह दिखती है.
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जॉर्डन (जॉर्डन)
मध्यपूर्व की इस नदी की तुलना आकार में तो नहीं लेकिन महत्व में गंगा से जरूरी की जा सकती है. इस्राएल, फलीस्तीन और जॉर्डन से होकर गुजरने वाली इसी नदी के किनारे ईसा महीस का बपतिस्मा किया गया. लेकिन गंदगी में भी यह गंगा को टक्कर दे रही है.
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पीली नदी (चीन)
लांझू प्रांत के लोग उस वक्त हक्के बक्के रह गए, जब उन्होंने एक दिन देखा की पीली नदी के जल का रंग लाल पड़ गया है. किसी अनजाने सीवर से आए प्रदूषित पानी ने इसका रंग बदल दिया. चीन ने तेजी से आर्थिक विकास किया है, जिसकी कीमत नदियों को भी चुकानी पड़ी है.
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मिसीसिपी (अमेरिका)
इस नदी के किनारे प्रदूषण इतना ज्यादा है कि उसे डेड जोन कहा जाता है. नदी का प्रदूषण सागर तक पहुंचता है. यह अमेरिका के 31 और दो कनाडेयाई राज्यों से होकर बहती है.