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भारत में 'अघोषित आपातकाल'

मारिया जॉन सांचेज
२९ अगस्त २०१८

भारत में सात जाने-माने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के घरों पर छापे और पांच को गिरफ्तार किए जाने से देश भर में रोष और आक्रोश की लहर दौड़ गई है. लोकतंत्रप्रेमी महसूस करने लगे हैं कि देश अघोषित आपातकाल के दौर से गुजर रहा है.

Indien Studentenproteste an der Uni in Neu Delhi
तस्वीर: Reuters/C. McNaughton

इसके पहले जून में भी पांच मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को नक्सलवादियों के साथ सहानुभूति रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. मंगलवार को गिरफ्तार होने वालों में दशकों से प्रतिष्ठित बौद्धिक पत्रिका 'इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली' के सम्पादन से जुड़े 70 वर्षीय मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा, तेलुगु के प्रसिद्ध कवि 78 वर्षीय वरवरा राव, आदिवासियों के अधिकारों के लिए संघर्षरत वकील 57 वर्षीय सुधा भारद्वाज और राजनीतिक कार्यकर्ता और वकील 48 वर्षीय अरुण फेरेरा भी शामिल हैं.

इन पर इस वर्ष 1 जनवरी को महाराष्ट्र के भीमा-कोरेगांव में हुई जातीय हिंसा के साथ संबंध होने के आरोप लगाए गए हैं. हर दिन दर्शकों को झूठ परोसने वाले कुछ टीवी चैनलों ने इनका संबंध प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश से भी जोड़ दिया है. लेकिन भारत की पुलिस के काम करने के तौर-तरीकों को देखते हुए इन आरोपों पर सहज ही शक होना स्वाभाविक है.

दो वर्ष पहले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों को इस आरोप में गिरफ्तार किया गया कि उन्होंने भारत-विरोधी नारे लगाए. टीवी चैनलों ने लगातार कई दिन तक वीडियो दिखाए. तत्कालीन पुलिस कमिश्नर भीमसेन बस्सी ने लगातार टीवी कैमरों के सामने आकर दावे किए कि पुलिस के पास पुख्ता सुबूत हैं. लेकिन अभी तक पुलिस आरोपपत्र भी दाखिल नहीं कर पाई.

भारतीय लोकतंत्र का वह काला अध्याय

मंगलवार को गिरफ्तार हुए अरुण फेरेरा को 2007 में भी गिरफ्तार किया गया था. लगभग पांच साल तक जेल की सलाखों के पीछे बंद रहने के बाद उन्हें जमानत मिल सकी. 2014 में अदालत ने उन्हें सभी आरोपों से मुक्त कर दिया. आतंकवाद के अनेक मामलों में पकड़े गए लोग भी पंद्रह-पंद्रह साल की जेल काटने के बाद अदालत द्वारा बेकसूर ठहराए गए हैं.

चूंकि भारत में इस प्रकार के मामलों में पुलिसकर्मियों को कोई दंड नहीं दिया जा सकता, इसलिए पुलिस बेधड़क अपने अधिकारों का दुरुपयोग करती है और निर्दोष नागरिक सताए जाते हैं. जो मानवाधिकार कार्यकर्ता इसके खिलाफ आवाज उठाते हैं, उनका हश्र वही होता है जो निरपराध अरुण फेरेरा का हुआ था.

2014 में भारतीय मतदाता को एक महास्वप्न दिखलाने के साढ़े चार साल बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के पास अब दिखाने के लिए कोई उपलब्धि नहीं है, भले ही चार सालों में उसने अपने विज्ञापन पर 4,343 करोड़ रुपये खर्च कर डाले हों. महंगाई बढ़ती जा रही है और अर्थव्यवस्था की हालत खराब होती जा रही है. हालांकि अभी तक मोदी को कोई गंभीर राजनीतिक चुनौती नहीं मिल सकी है, लेकिन अगले वर्ष होने जा रहे लोकसभा चुनाव के पहले राजनीतिक स्थिति में बदलाव हो सकता है.

भारतीयों की पसंद तानाशाह?

 

पिछले चार सालों में देश में लगातार असहिष्णुता और हिंसा का माहौल सुचिंतित ढंग से तैयार किया गया है और सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी या उसके नेताओं से भिन्न विचार रखने वालों को "देशद्रोही" कहने की प्रवृत्ति पनपती जा रही है. यदि लोकतंत्र में मुक्त बहस और विभिन्न विचारों को प्रकट करने की आजादी नहीं रहेगी तो फिर ऐसा लोकतंत्र कितने दिन टिक सकता है?

लोकतंत्र का स्थान भीड़तंत्र लेता जा रहा है जिसका एक प्रमाण भीड़ द्वारा गौहत्या का आरोप लगाकर खुलेआम की जाने वाली हत्याएं, महिलाओं को बाजारों में नंगा घुमाने और दलितों-अल्पसंख्यकों को किसी न किसी बहाने पीड़ित करने की लगातार होने वाली घटनाएं हैं. जब इनके दोषियों को जेल से जमानत पर छूटने के बाद केंद्रीय मंत्री माला पहना कर सम्मानित करें, तो देश को जो संदेश जाता है वह स्पष्ट है.

मंगलवार को हुई गिरफ्तारियां इस बात का संकेत हैं कि आने वाले दिनों में बदहवासी का शिकार मोदी सरकार और भी अधिक दमनकारी रुख अपना सकती है क्योंकि उसे लोकतांत्रिक मर्यादाओं की कोई चिंता नहीं है.

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