भारत में सात जाने-माने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के घरों पर छापे और पांच को गिरफ्तार किए जाने से देश भर में रोष और आक्रोश की लहर दौड़ गई है. लोकतंत्रप्रेमी महसूस करने लगे हैं कि देश अघोषित आपातकाल के दौर से गुजर रहा है.
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इसके पहले जून में भी पांच मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को नक्सलवादियों के साथ सहानुभूति रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. मंगलवार को गिरफ्तार होने वालों में दशकों से प्रतिष्ठित बौद्धिक पत्रिका 'इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली' के सम्पादन से जुड़े 70 वर्षीय मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा, तेलुगु के प्रसिद्ध कवि 78 वर्षीय वरवरा राव, आदिवासियों के अधिकारों के लिए संघर्षरत वकील 57 वर्षीय सुधा भारद्वाज और राजनीतिक कार्यकर्ता और वकील 48 वर्षीय अरुण फेरेरा भी शामिल हैं.
इन पर इस वर्ष 1 जनवरी को महाराष्ट्र के भीमा-कोरेगांव में हुई जातीय हिंसा के साथ संबंध होने के आरोप लगाए गए हैं. हर दिन दर्शकों को झूठ परोसने वाले कुछ टीवी चैनलों ने इनका संबंध प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश से भी जोड़ दिया है. लेकिन भारत की पुलिस के काम करने के तौर-तरीकों को देखते हुए इन आरोपों पर सहज ही शक होना स्वाभाविक है.
दो वर्ष पहले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों को इस आरोप में गिरफ्तार किया गया कि उन्होंने भारत-विरोधी नारे लगाए. टीवी चैनलों ने लगातार कई दिन तक वीडियो दिखाए. तत्कालीन पुलिस कमिश्नर भीमसेन बस्सी ने लगातार टीवी कैमरों के सामने आकर दावे किए कि पुलिस के पास पुख्ता सुबूत हैं. लेकिन अभी तक पुलिस आरोपपत्र भी दाखिल नहीं कर पाई.
भारतीय लोकतंत्र का वह काला अध्याय
भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय: आपातकाल
भारत में इमरजेंसी सिर्फ एक बार लगी. लेकिन आज भी उसकी गूंज भारतीय राजनीति में बार बार सुनने को मिलती है. आखिरी क्यों लगानी पड़ी थी इमरजेंसी और इसका क्या नतीजा निकला, चलिए जानते हैं.
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21 महीने तक रही इमरजेंसी
25 जून, 1975. यह तारीख भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में काला धब्बा है. इस दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी देश में आपातकाल लगाया था जो 21 मार्च 1977 तक यानी कि 21 महीने तक चला. क्यों लगा आपातकाल और क्या रहा उसका असर?
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क्यों लगता है आपातकाल?
आपातकाल की घोषणा कानून व्यवस्था बिगड़ने, बाहरी आक्रमण और वित्तीय संकट के हालत में की जाती है. भारत में आपातकाल का मतलब था कि इंदिरा गांधी जब तक चाहें सत्ता में रह सकती थीं. सरकार चाहे तो कोई भी कानून पास करवा सकती थी.
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जेपी की चुनौती
गुजरात और बिहार में शुरू हुए छात्र आंदोलन का नेतृत्व भारतीय स्वतंत्रता सेनानी व लोकनायक जयप्रकाश नारायण कर रहे थे. हाई कोर्ट में चुनावी मुकदमा हारने के बाद 25 जून को रामलीला मैदान से उन्होंने इंदिरा गांधी को खुली चुनौती देते हुए उनसे इस्तीफा मांगा.
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इंदिरा पर चुनाव धांधली का आरोप
12 जून, 1975 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को खारिज कर दिया और छः साल तक चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी. उन्हें वोटरों को घूस देने और सरकारी मशीनरी का गलत इस्तेमाल करने समेत कई मामलों का दोषी पाया गया. इस फैसले से इंदिरा बेचैन थीं.
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महंगाई 20 फीसदी बढ़ी
महंगाई चरम पर थी. खाने-पीने के दाम 20 गुना बढ़ गए थे जिसकी वजह से सरकार की आलोचना शुरू हो गई. कांग्रेस के अंदरूनी गुटों ने सरकार की नीतियों का विरोध शुरू कर दिया था. इंदिरा सरकार चारों तरफ से पस्त थी.
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25-26 जून की रात हुआ लागू
25 और 26 जून की रात राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के दस्तखत के साथ देश में आपातकाल लागू हो गया. अगली सुबह रेडियो पर इंदिरा ने कहा, "भाइयो और बहनो, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है. इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है."
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छोटे-बड़े सभी नेताओं को हुई जेल
26 जून की सुबह होते-होते जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी, जॉर्ज फर्नांडिस समेत तमाम बड़े नेता गिरफ्तार किए जा चुके थे. कहा जाता है कि इतनी गिरफ्तारियां हुईं कि जेलों में जगह कम पड़ गई.
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प्रेस की बिजली काट दी
आपातकाल का मतलब मीडिया की आजादी का छिन जाना था. जेपी की रामलीला मैदान में हुई 25 जून की रैली की खबर देश में न पहुंचे इसलिए दिल्ली के बहादुर शाह जफर मार्ग पर स्थित अखबारों के दफ्तरों की बिजली रात में ही काट दी गई.
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जबरन कराई नसबंदी
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी ने पांच सूत्री एजेंडे पर काम करना शुरू कर दिया. इसमें नसबंदी, वयस्क शिक्षा, दहेज प्रथा को खत्म करना, पेड़ लगाना और जाति प्रथा उन्मूलन शामिल था. 19 महीने के दौरान देश भर में करीब 83 लाख लोगों की जबरदस्ती नसबंदी करा दी गई.
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मंगलवार को गिरफ्तार हुए अरुण फेरेरा को 2007 में भी गिरफ्तार किया गया था. लगभग पांच साल तक जेल की सलाखों के पीछे बंद रहने के बाद उन्हें जमानत मिल सकी. 2014 में अदालत ने उन्हें सभी आरोपों से मुक्त कर दिया. आतंकवाद के अनेक मामलों में पकड़े गए लोग भी पंद्रह-पंद्रह साल की जेल काटने के बाद अदालत द्वारा बेकसूर ठहराए गए हैं.
चूंकि भारत में इस प्रकार के मामलों में पुलिसकर्मियों को कोई दंड नहीं दिया जा सकता, इसलिए पुलिस बेधड़क अपने अधिकारों का दुरुपयोग करती है और निर्दोष नागरिक सताए जाते हैं. जो मानवाधिकार कार्यकर्ता इसके खिलाफ आवाज उठाते हैं, उनका हश्र वही होता है जो निरपराध अरुण फेरेरा का हुआ था.
2014 में भारतीय मतदाता को एक महास्वप्न दिखलाने के साढ़े चार साल बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के पास अब दिखाने के लिए कोई उपलब्धि नहीं है, भले ही चार सालों में उसने अपने विज्ञापन पर 4,343 करोड़ रुपये खर्च कर डाले हों. महंगाई बढ़ती जा रही है और अर्थव्यवस्था की हालत खराब होती जा रही है. हालांकि अभी तक मोदी को कोई गंभीर राजनीतिक चुनौती नहीं मिल सकी है, लेकिन अगले वर्ष होने जा रहे लोकसभा चुनाव के पहले राजनीतिक स्थिति में बदलाव हो सकता है.
भारतीयों की पसंद तानाशाह?
भारत के 55 फीसदी लोगों को पसंद तानाशाही
अमेरिकी थिंक टैंक पीयू रिसर्च ने दुनिया भर में लोकतांत्रिक व्यवस्था के समर्थन से जुड़ा एक सर्वे जारी किया है. यह सर्वे 38 देशों के तकरीबन 42 हजारों लोगों के बीच किया गया है. एक नजर सर्वे के खास तथ्यों पर.
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सरकार पर भरोसा
सर्वे मुताबिक भारत के करीब 85 फीसदी लोग सरकार पर भरोसा करते हैं लेकिन दिलचस्प है कि देश की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा तानाशाही और सैन्य शासन के भी समर्थन में है.
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तानाशाही
सर्वे की मानें तो भारत की 55 फीसदी लोग तानाशाही को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन देती है, लेकिन वहीं एक चौथाई से अधिक लोग (लगभग 27 फीसदी) मजबूत नेता चाहते हैं.
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सही तरीका
दुनिया भर के तकरीबन 26 फीसदी लोगों ने माना है कि मजबूत नेता वाली सरकार स्वतंत्र निर्णय लेने में सक्षम होती है और इसके फैसलों पर संसद और अदालत का दखल नहीं होता जो सरकार चलाने का अच्छा तरीका है. लेकिन 71 फीसदी इसे अच्छा नहीं मानते.
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तकनीकी तंत्र
भारत, एशिया प्रशांत क्षेत्र के उन तीन देशों में से एक है जहां लोग तकनीकी तंत्र (टेक्नोक्रेसी) का समर्थन करते हैं. देश में 65 फीसदी लोग ऐसी सरकार का समर्थन करते हैं जिसमें तकनीकी विशेषज्ञ शामिल होते हैं.
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एशिया प्रशांत क्षेत्र
भारत के अलावा एशिया प्रशांत में वियतनाम (67 फीसदी) और फिलीपींस (62 फीसदी) में टेक्नोक्रेसी को समर्थन प्राप्त है. लेकिन ऑस्ट्रेलिया में करीब 57 फीसदी लोग इसे सरकार चलाने का खराब तरीका मानते हैं.
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सैन्य शासन
सर्वे के मुताबिक करीब 53 फीसदी भारतीय और 52 फीसदी दक्षिण अफ्रीकी लोग अपने देश में सैन्य शासन के पक्षधर हैं. लेकिन इन देशों में 50 साल से अधिक उम्र के लोग इस विचार का समर्थन नहीं करते.
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पिछले चार सालों में देश में लगातार असहिष्णुता और हिंसा का माहौल सुचिंतित ढंग से तैयार किया गया है और सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी या उसके नेताओं से भिन्न विचार रखने वालों को "देशद्रोही" कहने की प्रवृत्ति पनपती जा रही है. यदि लोकतंत्र में मुक्त बहस और विभिन्न विचारों को प्रकट करने की आजादी नहीं रहेगी तो फिर ऐसा लोकतंत्र कितने दिन टिक सकता है?
लोकतंत्र का स्थान भीड़तंत्र लेता जा रहा है जिसका एक प्रमाण भीड़ द्वारा गौहत्या का आरोप लगाकर खुलेआम की जाने वाली हत्याएं, महिलाओं को बाजारों में नंगा घुमाने और दलितों-अल्पसंख्यकों को किसी न किसी बहाने पीड़ित करने की लगातार होने वाली घटनाएं हैं. जब इनके दोषियों को जेल से जमानत पर छूटने के बाद केंद्रीय मंत्री माला पहना कर सम्मानित करें, तो देश को जो संदेश जाता है वह स्पष्ट है.
मंगलवार को हुई गिरफ्तारियां इस बात का संकेत हैं कि आने वाले दिनों में बदहवासी का शिकार मोदी सरकार और भी अधिक दमनकारी रुख अपना सकती है क्योंकि उसे लोकतांत्रिक मर्यादाओं की कोई चिंता नहीं है.