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समाज

भारत में अब भी जाति से तय होता है पेशा

प्रभाकर मणि तिवारी
१६ जनवरी २०१९

21वीं सदी में भी भारत में जाति ही लोगों का पेशा तय करती है. बेहतर पेशों में अनुसूचित जाति व जनजाति के लोगों की तादाद बहुत कम है. इन दोनों तबके के लोग छोटी और कम इज्जतदार समझी जाने वाली नौकरियों में ही ज्यादा हैं.

Indien Denge-Profilaxe in Dehli
तस्वीर: picture alliance/dpa/Str.

भारत की केंद्र सरकार ने हाल ही में गैर-खेतिहर कामगरों से संबंधित आंकड़े जारी किए हैं, जो जनगणना पर आधारित हैं. इन आंकड़ों से पता चलता है कि तमाम शीर्ष नौकरियों पर ऐसे लोगों का कब्जा है, जो अनुसूचित जाति (एससी) या अनुसूचित जनजाति (एसटी) की श्रेणी में नहीं आते. खासकर निजी क्षेत्र की 93 फीसदी शीर्ष नौकरियों पर सवर्णों का कब्जा है.

क्या दिखाते हैं आंकड़े

सार्वजनिक क्षेत्र में शिक्षा व स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में ही एससी और एसटी तबके के लोगों का प्रतिनिधित्व कुछ बेहतर है. इन आंकड़ों से साफ है कि लोगों की जाति और उनके पेशे के बीच सीधा संबंध है. पूर्वोत्तर राज्यों में एससी/एसटी तबके के लोगों की आबादी ज्यादा होने की वजह से सार्वजनिक क्षेत्र की ज्यादातर नौकरियों में वे लोग ज्यादा हैं.

शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में एससी तबके के लोगों का प्रतिनिधित्व सबसे ज्यादा क्रमशः 8.9 और 9.3 फीसदी है. इसके अलावा पुलिस में एससी तबके के लोगों का प्रतिनिधित्व 13.7 फीसदी और एसटी तबके के लोगों का 9.3 फीसदी है. दरअसल, आदिवासी-बहुल राज्यों में बड़े पैमाने पर इस तबके के युवाओं की पुलिस में भर्ती की वजह से तस्वीर कुछ बेहतर हुई है.

तस्वीर: Getty Images/AFP/D. Sarkar

कई राज्यों में स्कूलों में मिड डे मील पकाने वाले रसोइयों में भी एससी तबके के लोगों की तादाद ज्यादा है. मिसाल के तौर पर पंजाब में यह तादाद 44.3 फीसदी है तो उत्तर प्रदेश में 21.3 फीसदी. निचले स्तर की नौकरियों में इन दोनों तबके के लोगों का प्रतिनिधित्व औसत से ज्यादा है.

अब मझौले स्तर की नौकरियों में इन जातियों से आने वाले लोगों का प्रतिनिधित्व कुछ बढ़ा जरूर है. लेकिन यह अब भी दूसरी नौकरियों के मुकाबले बहुत कम है. आंकड़ों में कहा गया है कि चमड़ा मजदूरों और झाड़ू लगाने वालों में अनुसूचित जाति के लोगों की तादाद सबसे ज्यादा है. ऐसे कामों को इस तबके के लोगों का पारंपरिक पेशा माना जाता रहा है और अब भी इस मानसिकता में कोई बदलाव नहीं आया है.

बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश औऱ राजस्थान तक तस्वीर लगभग एक जैसी है. इस मामले में दक्षिणी राज्य केरल अपवाद है. राज्य के चमड़ा मजदूरों में महज 13 फीसदी अनुसूचित जाति के हैं जबकि स्वीपर यानि झाड़ू लगाने वालों में उनकी तादाद 23 फीसदी है.

जाति व्यवस्था है सब पर हावी

विशेषज्ञों का कहना है 21वीं सदी में भी कि देश के ज्यादातर राज्यों में जाति व्यवस्था हावी है. वहां सदियों से यह मान लिया गया है कि छोटे मोटे काम निचली जाति के लोगों के लिए हैं.

मिसाल के तौर पर स्वीपर और चमड़ा उद्योग के अलावा इसी तरह के दूसरे पेशों में रहने वालों को निचली जाति का मान लिया जाता है. इसके अलावा चौकीदार, निर्माण क्षेत्र में काम करने वाले मजदूर, घरेलू कामकाज करने वाले, धोबी और रियल इस्टेट क्षेत्र के मजदूरों में भी इन दोनों तबके के लोगों की तादाद ज्यादा है.

समाजशास्त्री प्रोफेसर दिगंत बरुआ कहते हैं, "देश के ज्यादातर राज्यों में जाति व्यवस्था पूरी कट्टरता के साथ मौजूद है. ऐसे में सरकारी नौकरियों में तो आरक्षण की वजह से एससी और एसटी तबके के लोग घुस जाते हैं. लेकिन निजी क्षेत्र में उनको भेदभाव का सामना करना पड़ता है. आईआईटी जैसे उच्च-शिक्षण संस्थानों में पढ़ने वाले इन तबके के छात्रों को भी भेदभाव का शिकार होना पड़ता है. यह महज संयोग नहीं है कि आत्महत्या करने वाले ज्यादातर छात्र इन तबकों के ही होते हैं.”

वह कहते हैं कि कोई ब्राह्मण या राजपूत वर्ग का युवक भी अगर कहीं चपरासी या इसी स्तर की नौकरी करता है तो उसे छोटी जाति का ही मान लिया जाता है. यह मानसिकता लोगों के भीतर गहरे रच-बस गई है.

आरक्षण के कारण हेय दृष्टि झेलते

जलपाईगुड़ी के एक कालेज में समाजविज्ञान पढ़ाने वाले जोगेश्वर बर्मन कहते हैं, "आरक्षण के जरिए सरकारी नौकरियों में ऊंचे पदों तक पहुंचने वाले अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों को भी हेय दृष्टि से देखा जाता है. भले वह मेधावी हो.” वह कहते हैं कि सदियों से चली आ रही जाति व्यवस्था ने ऊंची व निचली जातियों के बीच खाई बना दी है तो आरक्षण ने इस खाई को चौड़ा करने में अहम भूमिका निभाई है. निजी क्षेत्रों में आरक्षण लागू नहीं होने की वजह से शीर्ष पदों पर इन दोनों तबके के लोगों की तादाद अंगुलियों पर गिनी जा सकती है.

विशेषज्ञों का कहना है कि जाति व्यवस्था की इस खाई को दूर करना जरूरी है. इसके लिए पहले लोगों की मानसिकता बदलनी होगी. किसी भी पेशे को जाति से जोड़ कर देखने का दौर कब का खत्म हो चुका है. लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि जब जीवन व समाज के विभिन्न क्षेत्रों से लेकर राजनीति तक में जाति गहरे तक जुड़ी हो, क्या आम लोगों के नजरिए में बदलाव संभव है ? समाजशास्त्रियों को तो फिलहाल इसकी खास उम्मीद नजर नहीं आती.

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