21वीं सदी में भी भारत में जाति ही लोगों का पेशा तय करती है. बेहतर पेशों में अनुसूचित जाति व जनजाति के लोगों की तादाद बहुत कम है. इन दोनों तबके के लोग छोटी और कम इज्जतदार समझी जाने वाली नौकरियों में ही ज्यादा हैं.
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भारत की केंद्र सरकार ने हाल ही में गैर-खेतिहर कामगरों से संबंधित आंकड़े जारी किए हैं, जो जनगणना पर आधारित हैं. इन आंकड़ों से पता चलता है कि तमाम शीर्ष नौकरियों पर ऐसे लोगों का कब्जा है, जो अनुसूचित जाति (एससी) या अनुसूचित जनजाति (एसटी) की श्रेणी में नहीं आते. खासकर निजी क्षेत्र की 93 फीसदी शीर्ष नौकरियों पर सवर्णों का कब्जा है.
क्या दिखाते हैं आंकड़े
सार्वजनिक क्षेत्र में शिक्षा व स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में ही एससी और एसटी तबके के लोगों का प्रतिनिधित्व कुछ बेहतर है. इन आंकड़ों से साफ है कि लोगों की जाति और उनके पेशे के बीच सीधा संबंध है. पूर्वोत्तर राज्यों में एससी/एसटी तबके के लोगों की आबादी ज्यादा होने की वजह से सार्वजनिक क्षेत्र की ज्यादातर नौकरियों में वे लोग ज्यादा हैं.
शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में एससी तबके के लोगों का प्रतिनिधित्व सबसे ज्यादा क्रमशः 8.9 और 9.3 फीसदी है. इसके अलावा पुलिस में एससी तबके के लोगों का प्रतिनिधित्व 13.7 फीसदी और एसटी तबके के लोगों का 9.3 फीसदी है. दरअसल, आदिवासी-बहुल राज्यों में बड़े पैमाने पर इस तबके के युवाओं की पुलिस में भर्ती की वजह से तस्वीर कुछ बेहतर हुई है.
कई राज्यों में स्कूलों में मिड डे मील पकाने वाले रसोइयों में भी एससी तबके के लोगों की तादाद ज्यादा है. मिसाल के तौर पर पंजाब में यह तादाद 44.3 फीसदी है तो उत्तर प्रदेश में 21.3 फीसदी. निचले स्तर की नौकरियों में इन दोनों तबके के लोगों का प्रतिनिधित्व औसत से ज्यादा है.
अब मझौले स्तर की नौकरियों में इन जातियों से आने वाले लोगों का प्रतिनिधित्व कुछ बढ़ा जरूर है. लेकिन यह अब भी दूसरी नौकरियों के मुकाबले बहुत कम है. आंकड़ों में कहा गया है कि चमड़ा मजदूरों और झाड़ू लगाने वालों में अनुसूचित जाति के लोगों की तादाद सबसे ज्यादा है. ऐसे कामों को इस तबके के लोगों का पारंपरिक पेशा माना जाता रहा है और अब भी इस मानसिकता में कोई बदलाव नहीं आया है.
बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश औऱ राजस्थान तक तस्वीर लगभग एक जैसी है. इस मामले में दक्षिणी राज्य केरल अपवाद है. राज्य के चमड़ा मजदूरों में महज 13 फीसदी अनुसूचित जाति के हैं जबकि स्वीपर यानि झाड़ू लगाने वालों में उनकी तादाद 23 फीसदी है.
कितना कमाती है काम वाली बाई
शायद कुछ लोगों को लगता हो कि घर में झाड़ू, पोंछा, बर्तन, साफ करने वाली बाई बहुत मंहगी पड़ती है, लेकिन सच तो ये है कि भारत में काम वाली बाई घरेलू कर्मचारियों में सबसे कम पैसे कमाती है और उनकी जिंदगी बहुत मुश्किल भी है.
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इंडिया रियल टाइम नाम के जॉब पोर्टल के लिए babajob.com द्वारा कराए गए एक सर्वे से पता चला है कि भारत में घरेलू कामों के लिए रखे जाने वाले कर्मचारियों में काम वाली बाई सबसे कम पैसे कमाती है. और सबसे अच्छी कमाई होती है ड्राइवरों की.
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बड़े शहरों की तुलना करें तो कोलकाता में मेड की महीने की औसत कमाई 5,000 रूपये के आसपास है, तो वहीं अहमदाबाद और हैदराबाद में इससे थोड़ी बेहतर करीब 5,500 रूपये. बेंगलुरू, दिल्ली और चेन्नई जैसे महानगरों में औसत 6,000 जबकि मुंबई में सबसे ज्यादा 7,000 रूपये प्रति माह.
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पूरे भारत में कार ड्राइवरों को सभी घरेलू कर्मचारियों में सबसे अधिक पैसे कमाने वाला पाया गया. इनकी कमाई अहमदाबाद जैसे शहर में औसतन 9,500 तो वहीं मुंबई जैसे शहर में करीब 13,000 रूपये तक होती है. यह किसी मेड के मुकाबले लगभग दोगुनी कमाई है.
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ड्राइवरों के बाद घरेलू कामों में सबसे अच्छी कमाई करने वालों में नंबर आता है चौकीदारों का. घरेलू कर्मचारियों की मासिक आमदनी पर कराए गए सर्वे में एक चौकीदार की औसत आय 9,000 रूपये के करीब दर्ज हुई.
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मेड के बाद सबसे कम कमाने वाले कामगरों में नंबर है बच्चों की देखभाल करने वाली आया का. महीने का औसतन 6,000 कमाने वाली नैनी से थोड़ा ज्यादा यानि औसत 6,500 रूपये के आसपास खाना बनाने वाली कुक कमाती है.
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वेतन में अंतर का कारण यह है कि इन कर्मचारियों का वेतन मांग और आपूर्ति के आधार पर ही तय होता है. सर्वे में ये भी पता चला कि जिन पेशों में ज्यादा पुरुष हैं उनमें वेतन का स्तर आमतौर पर ऊंचा होता है. मेड के तौर पर महिलाएं ही काम करती हैं.
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भारत भर में करीब दो करोड़ लोग, जिनमें ज्यादातर औरतें हैं, घरों में मेड, कुक या नैनी के तौर पर काम करती हैं. पूरे देश का औसत देखें तो इनकी आय महीने के 3,000 रूपये से ऊपर नहीं. वो भी तब जब वे हफ्ते के छह से सात दिन फुलटाइम काम करती हैं.
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भारत में इन घरेलू कर्मचारियों को किसी तरह की सुरक्षा नहीं मिली है और कमाई बेहद कम है. इतना ही नहीं इन्हें कर्मचारी नहीं बल्कि नौकर माना जाता है और कई बार उनसे गुलामों जैसा रवैया रखा जाता है.
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अमेरिका में श्रम कानूनों के दायरे में आने के कारण मेड की प्रति घंटा औसत कमाई 11 डॉलर यानि 700 रूपये से अधिक होती है. भारत में अभी मेड के न्यूनतम वेतन पर कोई राष्ट्रीय नीति नहीं है. शायद इसीलिए अमेरिका में मेड रखना लक्जरी है जबकि भारत में औसत मध्यमवर्गीय परिवार भी ऐसा कर पाता है.
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जाति व्यवस्था है सब पर हावी
विशेषज्ञों का कहना है 21वीं सदी में भी कि देश के ज्यादातर राज्यों में जाति व्यवस्था हावी है. वहां सदियों से यह मान लिया गया है कि छोटे मोटे काम निचली जाति के लोगों के लिए हैं.
मिसाल के तौर पर स्वीपर और चमड़ा उद्योग के अलावा इसी तरह के दूसरे पेशों में रहने वालों को निचली जाति का मान लिया जाता है. इसके अलावा चौकीदार, निर्माण क्षेत्र में काम करने वाले मजदूर, घरेलू कामकाज करने वाले, धोबी और रियल इस्टेट क्षेत्र के मजदूरों में भी इन दोनों तबके के लोगों की तादाद ज्यादा है.
समाजशास्त्री प्रोफेसर दिगंत बरुआ कहते हैं, "देश के ज्यादातर राज्यों में जाति व्यवस्था पूरी कट्टरता के साथ मौजूद है. ऐसे में सरकारी नौकरियों में तो आरक्षण की वजह से एससी और एसटी तबके के लोग घुस जाते हैं. लेकिन निजी क्षेत्र में उनको भेदभाव का सामना करना पड़ता है. आईआईटी जैसे उच्च-शिक्षण संस्थानों में पढ़ने वाले इन तबके के छात्रों को भी भेदभाव का शिकार होना पड़ता है. यह महज संयोग नहीं है कि आत्महत्या करने वाले ज्यादातर छात्र इन तबकों के ही होते हैं.”
वह कहते हैं कि कोई ब्राह्मण या राजपूत वर्ग का युवक भी अगर कहीं चपरासी या इसी स्तर की नौकरी करता है तो उसे छोटी जाति का ही मान लिया जाता है. यह मानसिकता लोगों के भीतर गहरे रच-बस गई है.
आरक्षण के कारण हेय दृष्टि झेलते
जलपाईगुड़ी के एक कालेज में समाजविज्ञान पढ़ाने वाले जोगेश्वर बर्मन कहते हैं, "आरक्षण के जरिए सरकारी नौकरियों में ऊंचे पदों तक पहुंचने वाले अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों को भी हेय दृष्टि से देखा जाता है. भले वह मेधावी हो.” वह कहते हैं कि सदियों से चली आ रही जाति व्यवस्था ने ऊंची व निचली जातियों के बीच खाई बना दी है तो आरक्षण ने इस खाई को चौड़ा करने में अहम भूमिका निभाई है. निजी क्षेत्रों में आरक्षण लागू नहीं होने की वजह से शीर्ष पदों पर इन दोनों तबके के लोगों की तादाद अंगुलियों पर गिनी जा सकती है.
विशेषज्ञों का कहना है कि जाति व्यवस्था की इस खाई को दूर करना जरूरी है. इसके लिए पहले लोगों की मानसिकता बदलनी होगी. किसी भी पेशे को जाति से जोड़ कर देखने का दौर कब का खत्म हो चुका है. लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि जब जीवन व समाज के विभिन्न क्षेत्रों से लेकर राजनीति तक में जाति गहरे तक जुड़ी हो, क्या आम लोगों के नजरिए में बदलाव संभव है ? समाजशास्त्रियों को तो फिलहाल इसकी खास उम्मीद नजर नहीं आती.
रस्सी पर लटकती सफाई कर्मचारियों की जान
गगनचुंबी इमारतों की खिड़कियां साफ करना, यह सबसे जोखिम भरे कामों में से एक है. सैकड़ों मीटर की ऊंचाई पर गलती की कोई गुंजाइश नहीं होती. एक नजर इन सफाई कर्मचारियों की दुनिया पर.
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कोई कंमाडो सीन नहीं
यह किसी फिल्म का सीन नहीं है, बल्कि 110 मीटर की ऊंचाई पर खिड़कियां साफ करने वाले खास कर्मचारी हैं. साल में तीन बार प्रशिक्षित सफाई कर्मचारी हैम्बर्ग के एल्बफिलहार्मोनी इमारत की खिड़कियां साफ करते हैं.
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कड़ी मशक्कत का काम
नौ सफाई कर्मचारियों को पूरी इमारत की खिड़कियां साफ करने में तीन हफ्ते लगते हैं. इस दौरान उन्हें 16 हजार वर्गमीटर जितने बड़े इलाके को साफ करना होता है.
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ऊंचाई से डर नहीं
श्टेफान फाल्केबेर्ग के मुताबिक, "यह दुनिया का सबसे अच्छा काम है." 2017 में इस इमारत का उद्घाटन होने के बाद से श्टेफान इसकी सफाई का काम करते हैं. वह कहते हैं, "इस इमारत के ऊपर से गजब का नजारा दिखता है."
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सख्त नियम कायदे
दिन में श्टेफान जब अपने साथियों के साथ सफाई कर रहे होते हैं, उसी वक्त एल्बफिलहार्मोनी के भीतर संगीकार अपनी रिहर्सल कर रहे होते हैं. कानून के मुताबिक एक कर्मचारी रस्सी पर लगातार तीन घंटे से ज्यादा नहीं रह सकता. इसीलिए सफाई शिफ्ट में की जाती है और कर्मचारी एक दिन में अधिकतम छह घंटे ही काम कर सकता है.
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तेज हवा यानी खतरा
सफाई अभियान के दौरान हर वक्त मौसम पर नजर रखी जाती है. तेज हवा चलने या बारिश होने पर सफाई अभियान रोक दिया जाता है. श्टेफान के मुताबिक तेज हवा उन्हें इधर उधर पटक सकती है और बारिश के दौरान अच्छे से सफाई नहीं हो पाती.
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जीवनरक्षक उपकरण
सफाई कर्मचारी कई तरह के औजारों से लैस होते हैं. सुरक्षा के लिए हेल्मेट, खास दस्ताने, खास जूते और ड्रेस भी अलग तरह की होती है. इस दौरान कई तरह की रस्सियां, हुक और क्लाइंबिंग टूल्स भी उनके बदन पर लिपटे रहते हैं.
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हाई टेक सफाई
सफाई कर्मचारियों की छाती पर स्पेशल टेलिस्कोपिक रॉड रहती है, जो उन्हें कांच से चिपकाए रहती है. हुक के जरिए पीठ पर हाई प्रेशर वाला पानी का पाइप लटका रहता है. ताकतवर वॉटर स्प्रे और डिटरजेंट की मदद से कांच साफ किया जाता है.
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क्लीनिंग ट्रॉली
सैकड़ों मीटर ऊंची और कांच से लैस कुछ इमारतों की सफाई के लिए हैंगिंग ट्रॉली का भी सहारा लिया जाता है. वायर से लटकी और रिमोट से चलने वाली इस ट्रॉली में एक या दो सफाई कर्मचारी होते हैं, जो ऊपर नीचे या दाएं बाएं जाते हुए कांच की सफाई करते हैं.
रेस्क्यू ऑपरेशन
गगनचुंबी इमारतों की खिड़कियां साफ करने में अकसर हादसे भी होते हैं. यह तस्वीर न्यूयॉर्क ही है, जहां सफाई के दौरान ट्रॉली का एक केबल टूट गया. सफाई कर्मचारी को कई घंटों की मशक्कत के बाद बचाया जा सका.
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सबके बस की बात नहीं
दुनिया की सबसे ऊंची इमारत बुर्ज खलीफा हो या दूसरे गगनचुंबी ढांचे, साल में तीन से चार बार इनकी अच्छे ढंग से सफाई की जाती है, लेकिन इस काम को दुनिया भर में चुनिंदा लोग ही कर पाते हैं.