भारत में 21वीं सदी में भी ऐसे लोग मौजूद हैं जो इंसानी मल को उठाने और सिर पर ढोने को मजबूर हैं. शिव जोशी पूछते हैं कि आखिर इससे छुटकारा कब मिलेगा.
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मैनुअल स्केवेंजर यानी हाथ से मैला उठाने वाले व्यक्तियों की पहचान के लिए 18 राज्यों में चलाया जा रहा सर्वे, निर्धारित समय पर पूरा नहीं हो पाया है. केंद्रीय सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय, नीति आयोग और राज्य सरकारों के साथ मिल कर ये सर्वे करा रहा है.
इस साल जनवरी में शुरू हुए इस सर्वे के पहले चरण की डेडलाइन 30 अप्रैल थी. मीडिया में अधिकारियों के हवाले से आई खबरों के मुताबिक केरल ही ऐसा राज्य हैं जहां मैला ढोने वालों को चिन्हित करने का अधिकांश काम पूरा कर लिया गया है. बताया जाता है कि गुजरात, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, झारखंड, राजस्थान और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों से संतोषजनक रिस्पॉन्स अभी नहीं मिला है.
सरकारें इस काम में स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद भी ले रही हैं. 2011 की जनगणना के मुताबिक, पूरे देश में सात लाख 40 हजार से ज्यादा घर ऐसे हैं जहां मानव मल हाथों से हटाया जाता है. इसके अलावा, सेप्टिक टैंक, सीवर, रेलवे प्लेटफॉर्मों पर भी यही काम होता है.
शहरों में दलितों पर ज्यादा अत्याचार
शहरों में दलितों पर ज्यादा अत्याचार
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के डाटा मुताबिक साल 2016 में दर्ज आपराधिक मामले बताते हैं कि उत्तर प्रदेश देश का सबसे असुरक्षित राज्य है. साथ ही शहरी क्षेत्रों में दलितों के खिलाफ होने वाले अत्याचार बढ़ रहे हैं
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सबसे अधिक गंभीर अपराध
रिपोर्ट मुताबिक, देश में सबसे अधिक गंभीर अपराध उत्तर प्रदेश में होते हैं. यहां महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों की संख्या भी सबसे अधिक है. कुल अपराधों में उत्तर प्रदेश के बाद बिहार का नंबर आता है. लेकिन महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध उत्तरप्रदेश के बाद पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक होते हैं.
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दलितों पर अत्याचार
रिपोर्ट मुताबिक शहरी क्षेत्रों में दलितों पर होने वाले अत्याचार अब भी बना हुआ है. लखनऊ और पटना देश के दो ऐसे बड़े शहर हैं जहां ये अपराध सबसे अधिक है. इसके अलावा उत्तर प्रदेश और बिहार दो ऐसे राज्य हैं जहां दलितों के खिलाफ सबसे अधिक अपराध दर्ज किये गये हैं. तीसरे स्थान पर राजस्थान का नंबर आता है.
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शहरों में स्थिति
शहरों की बात करें तो दलितों के खिलाफ अपराध में लखनऊ के बाद पटना और जयपुर का नंबर आता है. इसके बाद आईटी हब माने जाने वाले बेंगलुरू और हैदराबाद का स्थान आता है. बेंगलुरू को छोड़कर कर्नाटक में ये अत्याचार अन्य राज्यों के मुकाबले कम है.
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स्थिति अब भी साफ नहीं
जाति आधारित अपराधों और अत्याचारों से जुड़े मामलों पर एनसीआरबी साल 2014 से डाटा जुटा रहा है लेकिन यह पहला मौका है जब ये आंकड़ें जारी किये गये हैं. ये रिकॉर्ड पुलिस द्वारा दर्ज किये गये मामलों पर आधारित है इसलिए संभव है कि जमीन पर हालात और भी खराब हो सकते हैं.
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अपने हक से वाकिफ
शहरों में दलितों से जुड़ी आबादी के कोई आंकड़ें नहीं है इसलिए ये बता पाना कि शहरों में इन अपराधों का औसत क्या है, मुश्किल माना जा सकता है. सूत्रों के मुताबिक शहरों में दलित अत्याचार के अधिक मामले सामने का कारण है कि शहरों में रहने दलित अपने अधिकारों के प्रति अधिक वाकिफ हैं. वे अपराधों को दर्ज कराते हैं.
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बलात्कार के मामले
एनसीआरबी का डाटा देश में बलात्कार जैसे अपराध की बेहद ही गंभीर तस्वीर पेश करता है. साल 2016 में मध्यप्रदेश में बलात्कार के सबसे अधिक मामले दर्ज किये गये. इसके बाद उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र का नंबर आता है.
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राजधानी असुरक्षित
दिल्ली में हर घंटे 23 आपराधिक मामले दर्ज होते हैं. साल 2015 के मुकाबले इन मामलों में 15 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. आंकड़े मुताबिक देश में कुल दर्ज आपराधिक मामले में से 39 फीसदी मामले दिल्ली में दर्ज किेय गये.
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2011 की ही सामाजिक आर्थिक जातीय गणना बताती है कि ग्रामीण इलाको में एक लाख 82 हजार से ज्यादा परिवार, हाथ से मैला उठाते हैं. लेकिन स्पष्ट रूप से कोई निश्चित संख्या अभी नहीं मिली है. चिन्हीकरण के काम में कई खामियों को दूर करने के लिए सामाजिक न्याय मंत्रालय ने इस साल जनवरी में ये पायलट सर्वे शुरू किया है.
पहले चरण में बाल्टियों और गड्ढों में जमा और शौचालयों से मल उठाने वालों की गिनती की जा रही है. दूसरे चरण में वे लोग गिने जाएंगे जो सेप्टिक टैंकों, सीवरों और रेलवे पटरियों की सफाई करते हैं.
ये सही है कि मल मूत्र और मैला अपने हाथों से साफ करने और उसे ढोने की अमानवीयता को बहुत पहले खत्म हो जाना चाहिए था. ये भी सही है कि 1993 से ही किसी को मैनुअल स्केवेजिंग के काम पर लगाना कानूनन अपराध घोषित है. लेकिन ये बढ़ते भारत का एक स्याह और विडंबनापूर्ण पहलू है कि न सिर्फ ये काम अभी जारी है, बल्कि इसके खात्मे के लिए सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर भी कोई चेतना या विवेक सक्रिय नहीं है.
"पेट के लिए करना पड़ता है गटर साफ"
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2007 में मैनुअल स्केवेंजरों के पुनर्वास के तहत स्वरोजगार योजना शुरू की गई थी. करीब एक लाख 18 हजार से ज्यादा लोग भी 18 राज्यों में चिन्हित किए गए थे. लेकिन जातीय दुराग्रह इतने तीव्र हैं कि जागरूकता का कोई भी अभियान शिथिल ही रह जाता है. और इस काम को गरीबी और पिछड़ेपन की वजह से करने पर विवश समुदाय की यातना से मुख्यधारा के समाज को कोई मतलब रह नहीं गया है. यह मान लिया गया है कि वे इसी काम के लिए हैं. यह भी एक तरह का शोषण हैं, कहीं घोषित तो कहीं अघोषित तौर पर बना हुआ.
कहने को उनके पुनर्वास की बात की जा रही है. पुनर्वास के तहत सरकार, 40 हजार रुपये की एकमुश्त सहायता दे रही है. इसके अलावा कौशल विकास के लिए तीन हजार रुपये प्रति माह के साथ दो साल तक का प्रशिक्षण दिया जाना है. 15 लाख रुपये तक की स्वरोजगार योजनाओं के लिए कर्ज में छूट भी जी जाएगी.
कुछ नकदी, कुछ कर्ज और कुछ सलाह आदि तो पुनर्वास के नाम पर है लेकिन ये भी सच है कि क्या इतने भर से उनकी जिंदगियां बदल जाएंगी. सरकारें क्या इस बात की गारंटी दे सकती हैं कि एक बार उनका पुनर्वास हो जाएगा तो वे उन भयावह और जानलेवा गड्ढों, सीवरों और मलबे मल और मैले से खदबदाती जगहों पर दोबारा नहीं उतरेंगे.
अगर सरकार वास्तव में उनके प्रति संवेदनशील है तो पुनर्वास स्थायी और मुकम्मल होना चाहिए. उन्हें अधर में नहीं छोड़ा जा सकता. खानापूरी या कर्तव्य की इतिश्री फाइलें तो चमका देगीं लेकिन उनकी जिंदगियां नहीं संवार पाएंगी. और पुनर्वास न सिर्फ स्थायी होना चाहिए बल्कि इसे बहुआयामी भी होना होगा.
क्या उच्च शिक्षा सिर्फ अमीरों के लिए है
क्या उच्च शिक्षा केवल अमीरों के लिए?
दुनिया भर में 10 से 24 साल की उम्र के सबसे अधिक युवाओं वाले देश भारत में उच्च शिक्षा अब भी गरीबों की पहुंच से दूर लगती है. फिलहाल विश्व की तीसरी सबसे बड़ी शिक्षा व्यवस्था में सबकी हिस्सेदारी नहीं है.
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भारत में नरेंद्र मोदी सरकार ने मेडिकल और इंजीनियरिंग के और भी ज्यादा उत्कृष्ट संस्थान शुरू करने की घोषणा की है. आईआईएम जैसे प्रबंधन संस्थानों के केन्द्र जम्मू कश्मीर, बिहार, हिमाचल प्रदेश और असम में भी खुलने हैं. लेकिन बुनियादी ढांचे और फैकल्टी की कमी की चुनौतियां हैं. यहां सीट मिल भी जाए तो फीस काफी ऊंची है.
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देश के कई उत्कृष्ट शिक्षा संस्थानों और केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में भी फिलहाल 30 से 40 फीसदी शिक्षकों की सीटें खाली पड़ी हैं. नासकॉम की रिपोर्ट दिखाती है कि डिग्री ले लेने के बाद भी केवल 25 फीसदी टेक्निकल ग्रेजुएट और लगभग 15 प्रतिशत अन्य स्नातक आईटी और संबंधित क्षेत्र में काम करने लायक होते हैं.
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कोटा, राजस्थान में कई मध्यमवर्गीय परिवारों के लोग अपने बच्चों को आईआईटी और मेडिकल की प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए भेजते हैं. महंगे कोचिंग सेंटरों में बड़ी बड़ी फीसें देकर वे बच्चों को आधुनिक युग के प्रतियोगी रोजगार बाजार के लिए तैयार करना चाहते हैं. इस तरह से गरीब बच्चे पहले ही इस प्रतियोगिता में बाहर निकल जाते हैं.
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भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने फ्रांस दौरे पर युवा भारतीय छात्रों के साथ सेल्फी लेते हुए. सक्षम छात्र अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा पाने के लिए अमेरिका, ब्रिटेन और तमाम दूसरे देशों का रूख कर रहे हैं. लेकिन गरीब परिवारों के बच्चे ये सपना नहीं देख सकते. भारत में अब भी कुछ ही संस्थानों को विश्वस्तरीय क्वालिटी की मान्यता प्राप्त है.
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मार्च 2015 में पूरी दुनिया में भारत के बिहार राज्य की यह तस्वीर दिखाई गई और नकल कराते दिखते लोगों की भारी आलोचना भी हुई. यह नजारा हाजीपुर के एक स्कूल में 10वीं की बोर्ड परीक्षा का था. जाहिर है कि पूरे देश में शिक्षा के स्तर को इस एक तस्वीर से आंकना सही नहीं होगा.
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राजस्थान के एक गांव की कक्षा में पढ़ते बच्चे. 2030 तक करीब 14 करोड़ लोग कॉलेज जाने की उम्र में होने का अनुमान है, जिसका अर्थ हुआ कि विश्व के हर चार में से एक ग्रेजुएट भारत के शिक्षा तंत्र से ही निकला होगा. कई विशेषज्ञ शिक्षा में एक जेनेरिक मॉडल के बजाए सीखने के रुझान और क्षमताओं पर आधारित शिक्षा दिए जाने का सुझाव देते हैं.
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उत्तर प्रदेश की बहुजन समाज पार्टी जैसे दल खुद को दलित समुदाय का प्रतिनिधि और कल्याणकर्ता बताते रहे हैं. चुनावी रैलियों में दलित समुदाय की ओर से पार्टी के समर्थन में नारे लगवाना एक बात है, लेकिन सत्ता में आने पर उनके उत्थान और विकास के लिए जरूरी शिक्षा और रोजगार के मौके दिलाना बिल्कुल दूसरी बात.
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भारत के "मिसाइल मैन" कहे जाने वाले पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम देश में उच्च शिक्षा के पूरे ढांचे में "संपूर्ण" बदलाव लाने की वकालत करते थे. उनका मानना था कि युवाओं में ऐसे कौशल विकसित किए जाएं जो भविष्य की चुनौतियों से निपटने में मददगार हों. इसमें एक और पहलू इसे सस्ता बनाना और देश की गरीब आबादी की पहुंच में लाना भी होगा.
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पैसे या कर्ज देकर नहीं बल्कि उन्हें साधन संपन्न और शिक्षित बनाकर. उनके परिवारों के स्वास्थ्य, शिक्षा और पोषण पर अलग से ध्यान देने की जरूरत है. सहज गरिमापूर्ण जीवन उनका भी संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार और मानवाधिकार है. समाज कल्याण की कुछ योजनाएं और नीतियां तो सिर्फ उन्हीं पर केंद्रित होना चाहिए. इसके लिए अलग से बजट ही नहीं उसका पूरा पूरा इस्तेमाल भी करना होगा.
छुआछूत और जातीय भेदभाव आदि के लिए कानून और धाराएं तो हैं लेकिन उन पर अमल सुनिश्चित करना होगा. आप उनका कथित पुनर्वास कर दीजिए और फिर खुद से पूछिए क्या आप उन्हें अपने ठीक पास बैठाने या अपने घर में प्रवेश देने या अपना खाना उनके साथ साझा करने के लिए तैयार हैं? नहीं हैं.
13 राज्यों में करीब 13 हजार मैनुअल स्केवेंजर चिन्हित किए जा सके हैं जो 2011 की कुल गणना का महज सात प्रतिशत है. जाहिर है गणना के काम में कुछ तकनीकी दिक्कतें तो हैं लेकिन पारदर्शिता और मेहनत का अभाव भी दिखता है. इस काम में हो रही देरी से पता चलता है कि जिला प्रशासन स्तर पर या तो सुस्ती है या अनिच्छा.
कई मामलों में देखा गया है कि कुछ शर्म और कुछ सामाजिक बंदिशों के चलते, मैनुअल स्केवेंजर भी आगे आकर पहचान जाहिर करने में हिचकिचा रहे हैं. वे अपनी हिचकिचाहट तोड़ें- इस काम के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक-आर्थिक अध्ययन और अभियान भी समांतर रूप से चलाए जाने की जरूरत है. दलित-उत्पीड़ित-शोषित समुदाय को भी इस कदर जागरूक और सजग होना होगा कि वे अपनी पॉलिटिक्ल स्पेस का निर्माण खुद करें, आगे आएं और पीढ़ियों और सदियों की बेड़ियों से मुक्त हो सकें.
स्वच्छ भारत अभियान का महिमामंडन और महात्मा गांधी की 150वीं जयंती विराट भव्यता और चौतरफा चमकदमक, साज-सफाई के साथ मनाना आसान है, लेकिन सफाई और संवेदना के उनके नैतिक और मानवीय फलसफे पर अमल करना बहुत कठिन है.