सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और सभी राज्य सरकारों से मानवाधिकार अदालतों का गठन ना किए जाने को लेकर जवाब तलब किया है. ऐसी अदालतों से क्या इंसाफ जल्द मिल पाएगा, पढ़िए शिवप्रसाद जोशी का ब्लॉग.
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मानवाधिकार सुरक्षा अधिनियम, 1993 के मुताबिक सभी राज्यों के प्रत्येक जिले में फास्ट ट्रेक मानवाधिकार अदालत का गठन उन राज्यों के हाई कोर्टों की देखरेख और दिशानिर्देश के आधार पर किया जाना था लेकिन कई वर्ष बीत जाने के बाद भी ये काम लंबित पड़ा है. इन खास अदालतों में सरकारी वकीलों की नियुक्तियां भी लंबित है.
भारत में मानवाधिकारों के हनन के बढ़ते मामलों और हाल में आई विभिन्न रिपोर्टों के बीच, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अगुवाई वाली बेंच कानून की एक छात्र भाविका फोरे की याचिका पर ये सुनवाई कर रही है. याचिका के मुताबिक देश के 29 राज्यों और सात संघ-शासित प्रदेशों के सभी 725 जिलों में मानवाधिकार हनन के मामलों की सुनवाई के लिए फास्ट ट्रेक विशेष अदालतों के गठन किया जाना चाहिए था जो अब तक नहीं हुआ है.
मानवाधिकार संगठन ह्यूमन राइट्स वॉच ने मानवाधिकारों के हनन के लिए एक बार फिर कतर की आलोचना की है. फुटबॉल विश्व कप की मेजबानी करने जा रहे कतर में विदेशी मजदूरों की दयनीय हालत है.
अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल संघ (फीफा) ने विवादों के बावजूद कतर को 2022 के वर्ल्ड कप की मेजबानी सौंपी. मानवाधिकार संगठनों का आरोप है कि कतर में स्टेडियम और होटल आदि बनाने पहुंचे विदेशी मजदूरों की बुरी हालत है.
एमनेस्टी इंटरनेशनल भी कतर पर विदेशी मजदूरों के शोषण का आरोप लगा चुका है. वे अमानवीय हालत में काम कर रहे हैं.
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एमनेस्टी के मुताबिक वर्ल्ड कप के लिए निर्माण कार्य के दौरान अब तक कतर में सैकड़ों विदेशी मजदूरों की मौत हो चुकी है.
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मानवाधिकार संगठनों के मुताबिक कतर ने विदेशी मजदूरों की हालत में सुधार का वादा किया था, लेकिन इसे पूरा नहीं किया गया है.
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वर्ल्ड कप के लिए व्यापक स्तर पर निर्माण कार्य चल रहा है. उनमें काम करने वाले विदेशी मजदूरों को इस तरह के कमरों में रखा जाता है.
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स्पॉन्सर कानून के तहत मालिक की अनुमति के बाद ही विदेशी मजदूर नौकरी छोड़ या बदल सकते हैं. कई मालिक मजदूरों का पासपोर्ट रख लेते हैं.
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ब्रिटेन के "द गार्डियन" अखबार के मुताबिक कतर की कंपनियां खास तौर नेपाली मजदूरों का शोषण कर रही हैं. अखबार ने इसे "आधुनिक दौर की गुलामी" करार दिया.
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अपना घर और देश छोड़कर पैसा कमाने कतर पहुंचे कई मजदूरों के मुताबिक उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि हालात ऐसे होंगे.
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कई मजदूरों की निर्माण के दौरान हुए हादसों में मौत हो गई. कई असह्य गर्मी और बीमारियों से मारे गए.
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कतर से किसी तरह बाहर निकले कुछ मजदूरों के मुताबिक उनका पासपोर्ट जमा रखा गया. उन्हें कई महीनों की तनख्वाह नहीं दी गई.
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कुछ मजदूरों के मुताबिक काम करने की जगह और रहने के लिए बनाए गए छोटे कमचलाऊ कमरों में पीने के पानी की भी किल्लत होती है.
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मजदूरों की एक बस्ती में कुछ ही टॉयलेट हैं, जिनकी साफ सफाई की कोई व्यवस्था नहीं है.
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मीडिया में प्रकाशित याचिका के अंशों के मुताबिक एक व्यक्ति के बुनियादी अधिकारों के संरक्षण और हिफाजत का अपरिहार्य दायित्व राज्य का है और इसके लिए उसे अदालतों के जरिए कम खर्च वाला, प्रभावशाली और जल्द से जल्द इंसाफ दिलाने वाला मुकदमा लड़ने में हर तरह की सहायता मुहैया करानी चाहिए. पिछले दिनों अमेरिकी विदेश मंत्रालय के मानवाधिकार से जुड़े ब्यूरो की ओर से जारी इंडिया ह्यूमन राइट्स रिपोर्ट 2018 का हवाला भी याचिका में दिया गया है.
रिपोर्ट में मानवाधिकारों की स्थिति को चिंताजनक बताया गया था. इसमें पुलिस क्रूरता, टॉर्चर, हिरासत में मौत, फर्जी मुठभेड़, जेलों की दुर्दशा, मनमानी गिरफ्तारियां, अवैध हिरासत, झूठे आरोप, मुकदमा लड़ने में रुकावटें आदि जैसे आरोप भी लगाए गए हैं. हालांकि भारत ने इस रिपोर्ट को खारिज करते हुए अमेरिका को नसीहत भी दी है.
लेकिन बात सिर्फ अमेरिकी रिपोर्ट की नहीं है. दुनिया भर के अन्य स्वतंत्र मानवाधिकार संगठनों और एजेंसियों ने भी भारत के मानवाधिकारों के रिकॉर्ड को सकारात्मक तो नहीं बताया है, चाहे वो एमनेस्टी इंटरनेशनल हो या ह्यूमन राइट्स वॉच हो. दलितों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं और आदिवासियों पर हिंसा के मामले हों या अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाने की कोशिशें- इन संस्थाओं ने ऐसे मामलों को अनदेखा तो नहीं होने दिया है.
देश में कुछ समूह इन संगठनों पर देश की छवि खराब करने का आरोप भी लगाते हैं और कई बार तो मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर देशद्रोह जैसी अवांछित टिप्पणियां भी देखने सुनने को मिल जाती हैं. लेकिन तमाम लांछनों के बावजूद क्या इस बात से इंकार किया जा सकता है कि मानवाधिकारों को लेकर एक निर्मम उदासीनता तो यहां पसरी हुई है. देश के भीतर मानवाधिकार कार्यकर्ता और संगठन समय समय पर अपनी आवाज उठाते ही रहे हैं और इधर पिछले दो ढाई दशकों से ये लड़ाइयां जटिल और कठिन हुई हैं.
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना मानवाधिकार सुरक्षा अधिनियम के तहत ही की गई थी. 1993 में गठित इस आयोग ने अब तक कई मामलों में अपना स्टैंड साहस और विवेक के साथ रखा लेकिन पीड़ितों को इंसाफ दिला पाने में आयोग की कोशिशें नाकाफी ही कही जाएंगी.
आयोग की अपनी वैधानिक शक्ति के बावजूद देखा गया है मानवाधिकार हनन का मामला चाहे समाज के उग्र समूहों, लंपटों और दबंगों की ओर से हो या सरकारी मशीनरी की ओर से- आयोग का कोई भय ऐसी शक्तियों को रह नहीं गया है. आयोग की फटकार और कार्रवाइयों के ऊपर राजनीतिक दबदबा अपना प्रभाव दिखाने लगता है. जबकि अध्यादेश के जरिए जो शक्तियां केंद्रीय मानवाधिकार आयोग और राज्य के आयोगों को हासिल हुई हैं वे नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की पूरी हिफाजत करती हैं.
2006 में संयुक्त राष्ट्र ने मानवाधिकार परिषद की स्थापना की थी. बनाने का मकसद था दुनिया भर में मानवाधिकारों के रक्षा करना. लेकिन पिछले कुछ समय से परिषद विवादों में बना रहा है. जानिए क्या काम करता है यूएनएचआरसी.
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क्या है मकसद
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग की जगह बनाया गया था. परिषद का मकसद था दुनिया में मानवाधिकारों को प्रोत्साहित करना और इस दिशा में काम करना. इसका मुख्यालय स्विट्जरलैंड के जेनेवा शहर में है. इसके सदस्य हर साल तीन बार, मार्च, जून और सितंबर में मिलते हैं.
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दुनिया भर में सदस्य
यूएनएचआरसी के 47 देश सदस्य हैं. संयुक्त राष्ट्र महासभा सीक्रेट बैलट के जरिए इन सदस्य देशों का सीधे चुनाव करती है. इन चुने गए देशों का कार्यकाल तीन साल का होता है. साथ ही लगातार दो कार्यकाल पूरा करने वाला देश तीसरी बार अपनी उम्मीदवारी पेश नहीं कर सकता.
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मानवाधिकारों की रक्षा
संस्था का मुख्य कार्य है संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ तालमेल बैठाकर अंतरराष्ट्रीय सहयोग को प्रोत्साहित करना. यह व्यक्तियों, समूहों, गैर-सरकारी संस्थानों की ओर से मिलने वाली शिकायतों पर काम करता है और मानवाधिकार हनन के मामलों की जांच करता है. परिषद, ऑफिस ऑफ द हाई कमिश्नर ऑन ह्यूमन राइट्स (ओएचसीएचआर) के साथ बेहद करीब से काम करता है.
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प्रस्तावों की गंभीरता
एचआरसी के प्रस्ताव सदस्य देशों के राजनीतिक रुख को बयां करते हैं. यह कानूनी रूप से लागू नहीं होते लेकिन नैतिक स्तक पर ये काफी प्रभावी माने जाते हैं. इनमें मानवाधिकार मुद्दे मसलन अभिव्यक्ति की आजादी, गरीबी, न्याय आदि की बात की जाती है. कुछ खास मामलों में मसलन सीरिया, उत्तर कोरिया के विषय में परिषद पूछताछ समिति बना सकती है या विशेष प्रस्ताव ला सकती है.
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क्या है विवाद
साल 2017 में पेश अपनी वार्षिक रिपोर्ट में ओएचसीएचआर ने ऐसे 29 देशों का जिक्र किया जिन्होंने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ कठोर कार्रवाई की. इनमें से नौ देश मानवाधिकार परिषद के सदस्य देश ही निकले. जिस पर विवाद हुआ. इसके बाद साल 2018 की ह्यूमन राइट्स वॉच रिपोर्ट में वेनेजुएला, रवांडा, चीन, जैसे मुल्कों पर मानवाधिकार हनन के आरोप लगाए गए हैं. ये सभी देश भी मानवाधिकार परिषद के सदस्य हैं.
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पक्षपात का आरोप
इस्राएल परिषद की विषय सूची में बेहद ही अहम विषय रहा है. साल 2007 से वेस्ट बैंक और गजा पट्टी में मानवाधिकारों का मामला चर्चा का विषय बना हुआ है. अमेरिका परिषद पर इस्राएल के साथ पक्षपात का आरोप लगाता है.
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अमेरिका बाहर
संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की राजदूत निक्की हेली ने 19 जून को अमेरिका के परिषद से बाहर निकलने की घोषणा की. यूएनएचआरसी के इतिहास में यह पहला मौका रहा जब कोई देश अपना कार्यकाल पूरा होने से पहले ही परिषद से बाहर निकल गया. इसके पहले परिषद ने अमेरिकी सीमा पर अवैध आप्रवासियों के बच्चों को उनके मां-बाप से अलग करने के अमेरिकी फैसले की निंदा की थी.
(डेविस फानओपडॉर्प/एए)
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याचिका में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के एक पुराने आंकड़े के हवाले से हालात की गंभीरता की ओर अदालत का ध्यान दिलाने की कोशिश की गई है. उसके मुताबिक आयोग ने 2001 से 2010 के बीच पाया था कि पुलिस और न्यायिक हिरासत में 14231 लोगों की मौत हुई थी. 1504 मौतें पुलिस हिरासत में और 12,727 मौतें न्यायिक हिरासत में हुईं. और ये भी पाया गया कि ज्यादातर मौतें टॉर्चर की वजह से हुई थी. हिरासत में मारपीट और बलात्कार के आंकड़ें अलग हैं.
वर्ष 2006 से 2010 तक बलात्कार के 39 मामले कस्टडी के दौरान सामने आए थे. लेकिन हिंसा और जघन्यता का ये आंकड़ा आगे भी अपनी भयानकता में बना रहा है. और पुलिस या जांच एजेंसियों तक ही सीमित नहीं है. ऑनलाइन पत्रिका 'द क्विंट' के मुताबिक सितंबर 2015 से अब तक देश के 95 नागरिक मॉब लिंचिंग का शिकार हुए हैं.
अब सवाल है कि क्या मानवाधिकारों वाली अदालतें बन जाएंगी तो इंसाफ मिल पाएगा. इसका कोई सीधा जवाब नहीं है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि ऐसी अदालतों की जरूरत ही न हो. जाहिर है, सुप्रीम कोर्ट ने अपनी चिंता जाहिर करते हुए ही जवाब तलब किया है.
न्यायिक व्यवस्था की कमजोरियां, जजों की कमी, लंबित मामलों का पहाड़, अदालती पेचीदगियां, आर्थिक संसाधनों की कमी जैसे कई अवरोध सामने हैं लेकिन संवैधानिक गरिमा तो यही कहती है कि अवरोधों को दूर कर इंसाफ दिलाने की मुहिम थमनी नहीं चाहिए. मानवाधिकारों के हनन पर मुस्तैदी से काबू पाना ज्यादा जरूरी है. फिर चाहे वो हिरासत में हिंसा हो या समाज में दबंगों की हिंसा. राजनीतिक मंशा सही रहे तो मानवाधिकारों का हनन इतना आसान नहीं.