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समाज

देश में नहीं पूछता कोई इनकी प्रतिभा को

१४ मार्च २०१७

एक पल को स्ट्रीट आर्टिस्ट इशामुद्दीन खान को लगा कि असंभव को संभव कर दिखाने के बाद अब तो दुनिया उसके कदमों में होगी. "ग्रेट इंडियन रोप ट्रिक" कर दिखाने वाले विश्व के पहले इंसान को फिर भी क्यों नहीं मिली दौलत या शोहरत.

Indien Ishamuddin Khan
तस्वीर: Getty Images/AFP/D. Faget

करीब 22 साल पहले की बात है जब एक दिन दिल्ली में कुतुब मीनार के पास भारी भीड़ के सामने स्ट्रीट आर्टिस्ट इशामुद्दीन खान ने अपनी टोकरी से रस्सी निकाली और उसे अपने जादू या सम्मोहन से ऐसा फेंका कि रस्सी हवा में 20 फीट ऊपर तक गयी और उनका एक साथी हवा में लटकती उस रस्सी को पकड़ कर ऊपर चढ़ गया. इस कमाल के लिए उन्हें अब तक पहचान नहीं मिल पायी है. भारत में खान जैसे कलाकारों की मदद या प्रोत्साहन के लिए कोई सुविधा नहीं है, बल्कि खान को शिकायत है कि प्रशासन कुछ पुराने कानूनों की आड़ में उनके जैसे सड़कों पर प्रदर्शन करने वाले कलाबाजों को प्रताड़ित करता है.

इशामुद्दीन खान बताते हैं, "मुझे सड़कों पर प्रदर्शन करना पसंद है. लेकिन कानून के हिसाब से मैं एक कलाकार नहीं बल्कि भिखारी हूं." वह कहते हैं कि "मैं अकेला कानून से नहीं लड़ सकता लेकिन मैं इसे ऐसे ही नहीं जाने दूंगा." अब वह एक लीगल सेंटर की मदद से ऐसे पुराने कानून में बदलाव लाने के प्रयास कर रहे हैं, जो कि भारत जैसे देश में क्या कहीं भी इतना आसान नहीं होता.

खान के पिता बंदर का खेल दिखाया करते थे और उनकी मां कूड़ा बीनने का काम करती थीं. खान दिल्ली की काठपुतली कॉलोनी में बड़े हुए, जो दरअसल ऐसे ही पेशों में लगे लोगों यानि सपेरों, सम्मोहकों, जादूगरों, मदारियों, सांप और बंदरों के खेल दिखाने वालों और रस्सी पर चलने वालों की बस्ती है. इस जगह का जिक्र सलमान रुश्दी के उपन्यास मिडनाइट्स चिल्ड्रन में "जादूगरों की बस्ती" के रूप में भी मिलता है.

1995 में "ग्रेट इंडियन रोप ट्रिक" कर दिखाने वाले विश्व के पहले इंसान बने थे खान.तस्वीर: Getty Images/AFP/D. Faget

लेकिन खान अपने अनुभव से बताते हैं कि ऐसे कामों का अब कोई मोल नहीं रहा. कई दशक पुराने बॉम्बे बेगरी एक्ट के मुताबिक भारत के लाखों सड़क के कलाकारों को जनता के लिए परेशानी समझा जाता है और उन्हें हमेशा अवैध काम करने वालों जैसी जिंदगी ही जीने को मिलती है. इसी कारण भारत की समृद्ध कलात्मक परंपरा के बावजूद आज हैरतअंगेज कारनामे और कमाल दिखाने वाले बेहद कम लोग बचे हैं. नाराज और निराश खान कहते हैं, "भारत में आपके प्रतिभाशाली होने से कोई फर्क नहीं पड़ता." वे शिकायत के लहजे में कहते हैं, "अगर आपके पास पैसे नहीं हैं, कोई गॉडफाडर नहीं है, सरकार या किसी व्यापारी से मदद नहीं है, तो यह सबसे बड़ी समस्या है. मुझे इसी का दुख है."

सन 1995 में खान ने सार्वजनिक रूप से दर्शकों के सामने जो कमाल कर दिखाया था, उसे जादूगरी की दुनिया में बहुत मान दिया जाता है. कारण यह कि जब आप सड़क जैसी खुली जगह में ऐसा प्रदर्शन करते हैं तो वहां प्रकाश या छिपी हुयी किसी चीज से मदद पाने की संभावना काफी कम होती है. खान जैसे कमाल का जिक्र पहली बार एक यूरोपीय लेखक ने ब्रिटिश राज के काल में किया था. उस समय ऐसे कमाल का इतना सम्मान था कि 1930 के दशक में 'मैजिक सर्किल' ऐसा कुछ कर दिखाने वाले को इनाम दिया करता था. यह बात सालों बाद खान को भी पता चली तो उन्होंने छह साल लगाकर रस्सी की यह असंभव सी ट्रिक सीखी और एक दिन उसे कर भी दिखाया. खान कहते हैं, "मैंने सुना था कि अगर किसी ने यह कर दिखाया तो ब्रिटिश मैजिक सर्किल उसे पैसे देगा."

उनके कमाल के चर्चे दूर दूर तक पहुंचे भी. हिन्दी, अंग्रेजी के अलावा थोड़ी फ्रेंच और जापानी भाषा भी बोल सकने वाले खान को विदेशों में परफॉर्म करने बुलाया गया. कुछ प्रायोजकों ने भी दिलचस्पी दिखायी. लेकिन खान को लगता है कि देश में अब भी उनकी कला की कद्र नहीं होती. आज भी देश में ऐसी करामातें दिखाने वाले लोगों को सड़क पर काफी उत्पीड़न झेलना पड़ता है और पुलिस को घूस देकर यह बचते रहते हैं क्योंकि उनका काम कानून की नजरों में अवैध है. खान अब किसी तरह इस पुराने कानून में सुधार करवाना चाहते हैं और अपनी बस्ती में रहने वाले 2,000 और ऐसे परिवारों को भी मिटने से बचाना चाहते हैं.

आरपी/एमजे (एएफपी)

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