मातृभाषा संस्कृतियों की जड़ होती है. इस वक्त भारत में ध्यान न दिए जाने के कारण 400 क्षेत्रीय भाषाएं लुप्त होने का खतरा झेल रही हैं. आर्थिक विकास भाषाओं की बलि ले रहा है.
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अगले 50 वर्ष में भारत में 400 क्षेत्रीय भाषाएं लुप्त हो सकती हैं. सबसे ज्यादा खतरा छोटे छोटे आदिवासी समुदायों की भाषा पर मंडरा रहा है. ऐसी कई भाषाएं हैं जो सिर्फ बोली जाती हैं. उन्हें अभी तक लिपिबद्ध नहीं किया गया है. ऐसी ही एक भाषा है गोंडी. छह राज्यों में करीब 1.2 करोड़ लोग इसे बोलते हैं. लेकिन अभी तक गोंडी के लिए कोई मानक लिपि नहीं है, इसी वजह से भाषा भी लुप्त होने का खतरा झेल रही है.
अब गोंडी को बचाने के लिए दक्षिण भारतीय राज्य तेलंगाना में आम नागरिकों ने पहले की है. उन्होंने गोंडी के लिए एक मानक डिक्शनरी तैयार की है. इस डिक्शनरी के जरिए शिक्षा, पत्रकारिता और प्रशासनिक काम से जुड़े गोंडी के शब्द लोगों के सामने लाए जाएंगे. डॉयचे वेले से बात करते हुए गैर सरकारी संगठन सीजीनेट स्वरा के शुभ्रांशु चौधरी कहते हैं, "कई साल के काम के बाद, हम गोंडी की डिक्शनरी तैयार करने के करीब है और मानक लिपि पर भी काम कर रहे हैं."
गोंडी को पुनरजीवित करने के प्रोजेक्ट से जुड़े लेक्चरर निलांजन भौमिक के मुताबिक अगर लोग मानक भाषा पेश करेंगे तो राज्य सरकार भी आधिकारिक रूप से उसे मान्यता देने के लिए विवश होगी. भौमिक को लगता है कि भाषा के विकास के लिए यह एक बड़ा कदम होगा. लेकिन सब कुछ इतना आसान भी नहीं है. भौमिक कहते हैं, "बेरोजगारी के चलते बड़ी संख्या में छात्रों ने स्कूल छोड़ा है और समुदाय में अकेलेपन की भावना भी घर कर गई है."
बेरोजगारी और पिछड़ेपन के चलते कई गोंड युवा माओवाद की राह पर निकल पड़े. माओवादी विद्रोही, गोंड समुदाय के आर्थिक और राजनीतिक कटाव का फायदा उठाते रहे हैं. भाषा मामलों के सलाहकार महेंद्र कुमार मिश्रा कहते हैं, "गोंड लोगों को किसी ऐसे सिस्टम की जरूरत है जो उनकी समस्याएं उन्हीं की भाषा में सुने. और इसीलिए हमने भाषा को पुनरजीवित करने का अभियान छेड़ा है. गोंड समुदाय की अपनी संस्कृति और राजनीतिक पहचान है, जिसे उनकी भाषा से जोड़ा जा सकता है."
आदिवासियों तक पहुंचने की सरकार की कोशिशों को अक्सर भाषा की परेशानी से गुजरना पड़ता है. मानक भाषा न होने की वजह से संवाद में अक्सर अधूरापन या असमंजस बाकी रह जाता है. अब गोंडी भाषा की डिक्शनरी को मानव संसाधन विकास मंत्रालय में जमा कराने की योजना बन रही है. उम्मीद है कि अधिकारी जल्द ही 1.2 करोड़ लोगों की भाषा को आधिकारिक रूप से भाषा का दर्जा देंगे.
भारत की शिक्षा प्रणाली में बगैर मानक लिपि वाली भाषा की कोई जगह नहीं है. गोंडी, भिली, संथाली समेत सैकड़ों क्षेत्रीय भाषाओं को बोलने वाले लोग भी कई राज्यों में फैल चुके हैं. पलायन कर शहर में बसी पहली पीढ़ी अपनी क्षेत्रीय मातृभाषा बोल लेती है, लेकिन दूसरी पीढ़ी तक आते आते भाषा का प्रवाह सूख सा जाता है. यही वजह है कि भारत की सैकड़ों भाषाएं आज अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं.
भारत में ये भाषाएं दम तोड़ रही हैं
दुनिया में सैकड़ों भाषाएं दम तोड़ने के कगार पर हैं. यूनेस्को के मुताबिक 577 ऐसे भाषाएं है जिन पर लुप्त होने का सबसे ज्यादा खतरा मंडरा रहा है. इसमें भारत की 42 भाषाएं शामिल हैं. इनमें अधिकतर आदिवासी इलाकों की भाषाएं हैं.
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जारवा
यूनेस्को के अनुसार दक्षिण अंडमान द्वीप की जारवा भाषा को बोलने वाले अब सिर्फ 31 लोग बचे हैं. इस इलाके की और भी कई भाषाओं पर खतरा मंडरा रहा है.
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ग्रेट अंडमानीज
इस भाषा को अका जेरू या जेरू भी कहते हैं. मध्य और उत्तरी अंडमान में प्रचलित रही इस भाषा को बोलने वाले सिर्फ पांच लोग हैं. यूनेस्को के पास यह आंकड़ा 2007 का है.
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सेंटीनल
अंडमान द्वीप पर बोली जाने वाली भाषा सेंटीनल भी दम तोड़ने के कगार पर है. इसे बोलने वाले लोगों की संख्या अब 50 से भी कम बची है.
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ओंगे
यूनेस्को का कहना है कि ओंगे भाषा को बोलने वाले लोगों का आंकड़ा भी 50 ही माना जाता है, हालांकि वास्तविक संख्या इससे काफी कम हो सकती है.
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शोमपेन
ग्रेट निकोबार आइलैंड के जंगलों में रहने वाले लोग इस भाषा को बोलते हैं. असली संख्या पता नहीं लेकिन अनुमान है कि अब इसे सिर्फ 100 लोग ही इस्तेमाल करते हैं.
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लामोंगीज
लिटिल निकोबार और कोंडुल द्वीपों पर लामोंगीज भाषा बोली जाती है. लेकिन अब इसे बोलने वाले सिर्फ 400 लोग बचे हैं.
तस्वीर: Reuters
ताराओ
ताराओ भाषा पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर के चंदेल और उखरुल जिले के इलाकों में बोली जाती है. 2001 की जनगणना के अनुसार अब सिर्फ 870 लोग ताराओ भाषा बोलते हैं.
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पुरुम
मणिपुर के सेनापाटी जिले के फाइजोल, लाइकोट, थुइसेनपाई और खरम पालेन गांवों में यह भाषा बोली जाती है. माना जाता है कि अब इसे बोलने वाले सिर्फ 503 लोग ही बचे हैं.
तस्वीर: Bijoyeta Das
तंगम
अरुणाचल प्रदेश के तंगम गांव में इस भाषा को बोलने वाले लोग रहते हैं. उसी के नाम पर इसका नाम भी पड़ा है. इसे बोलने वालों की संख्या लगभग 100 के आसपास है.
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म्रा
अरुणाचल प्रदेश की ऊपरी सुबानसीरी नदी घाटी के कुछ गावों में यह भाषा बोली जाती है. ताजा आंकड़ों के अनुसार अब सिर्फ 350 लोग ही इस भाषा को बोलते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/robertharding/A. Owen
ना
चीन से लगने वाले अरुणाचल प्रदेश के कुछ गांवों में ना भाषा भी चलती है. लेकिन इसे इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या सिमट कर अब 350 रह गयी है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Str
ताई नोरा
इस भाषा को खामयांग के नाम से भी जाना जाता है. इसे बोलने वाले लगभग सभी 100 लोग असम के तिनसुकिया जिले के पोवाईमुख गांव में रहते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/robertharding/A. Owen
ताई रोंक
असम में जोरहाट के आसपास के इलाके में ताई लोंग भाषा बोलने वाले अब सिर्फ 100 लोग बचे हैं. इसलिए यह भी यूनेस्को की सबसे ज्यादा खतरे का सामना कर रही भाषाओं की सूची में है.