तेजी से घट रहे हैं अस्थायी मजदूर
२१ मार्च २०१९नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) के ताजा आंकड़ों में इस तादाद में वर्ष 2011-12 के दौरान हुए पिछले सर्वेक्षण के मुकाबले अस्थायी मजदूरों की तादाद में 29.2 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है. अस्थायी मजदूरों से आशय ऐसे मजदूरों से है जिनको जरूरत के मुताबिक समय-समय पर काम पर रखा जाता है.
खास बात यह है कि सरकार ने इस सर्वेक्षण को जारी करने से मना कर दिया है. लेकिन अब एक राष्ट्रीय अंग्रेजी अखबार ने उस सर्वेक्षण की रिपोर्ट का खुलासा कर दिया है.
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि अस्थायी पुरुष मजदूरों की तादाद बीते छह वर्षों के दौरान 3.2 करोड़ कम हो गई है. इनमें से लगभग तीन करोड़ लोग खेतों में काम करते थे. नेशनल सैंपल सर्वे आफिस (एनएसएसओ) के 2017-18 के पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) के आधार पर तैयार रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2011-12 के मुकाबले खेत मजदूरों की तादाद में 40 फीसदी गिरावट दर्ज की गई है.
कृषि क्षेत्र में बदहाली
पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता से सटे उत्तर 24-परगना जिले के बारासत इलाके में तीन पीढ़ियों से ठेके पर खेतों में काम करने वाले सुविमल दास बीते तीन-चार साल से कमाने के लिए पंजाब जा रहे हैं. वह वहां भी खेतों में ही काम करते हैं. दास कहते हैं, "पहले यहां इतना काम था कि बाहर जाने की जरूरत नहीं पड़ती थी. लेकिन अब काम नहीं मिल रहा है. बाहर नहीं गए तो दो जून की रोटी जुटाना मुश्किल हो जाएगा.” अब इस साल तो उनका 17 साल का बेटा परिमल भी उनके साथ जाएगा. दास के पास मुश्किल से चार कठ्ठे जमीन है.
जिले में दास की तरह हजारों ऐसे लोग हैं जो अब बेरोजगार हो चुके हैं. यह लोग या तो बाहरी राज्यों में जा रहे हैं या फिर दूसरा काम-काज कर रहे हैं. दास और उनके जैसे लोगों की यह हालत एनएसएसओ की सर्वेक्षण रिपोर्ट में झलकती है.
आंकड़े क्या दिखाते हैं
भारत में लाखों परिवार ठेके पर मिलने वाली मजदूरी से होने वाली आय पर निर्भर हैं. लेकिन रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2011-12 के मुकाबले ऐसे परिवारों में 41 फीसदी गिरावट दर्ज की गई है. वर्ष 1993-94 में देश में पुरुष मजदूरों की संख्या 21.9 करोड़ थी, जो वर्ष 2011-12 के एनएसएसओ सर्वेक्षण में बढ़ कर 30.4 करोड़ तक पहुंच गई थी. लेकिन वर्ष 2017-18 की सर्वेक्षण रिपोर्ट से पता चलता है कि बीते पांच वर्षों के दौरान ज्यादा लोगों को रोजगार नहीं मिलने की वजह से पुरुष मजदूरों की तादाद घट कर 26.6 करोड़ रह गई है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि पुरुष मजदूरों की तादाद में पहली बार वर्ष 1993-94 में ही गिरावट देखने को मिली थी. तब ग्रामीण और शहरी दोनों इलाकों में इनकी तादाद में क्रमशः 6.4 व 4.7 फीसदी की गिरावट आई थी. उसके बाद के सर्वेक्षणों के दौरान इसमें कुछ वृद्धि दर्ज की गई थी. लेकिन अब इसमें एक बार फिर गिरावट दर्ज की गई है.
बीते छह वर्षों के दौरान ग्रामीण और शहरी इलाकों में अस्थायी पुरुष मजदूर क्रमशः 7.1 फीसदी और 5.8 फीसदी कम हो गए हैं. वर्ष 2011-12 से 2017-18 के दौरान ग्रामीण अस्थायी श्रम क्षेत्र में पुरुष मजदूरों के रोजगार में 7.3 और महिला मजदूरों के रोजगार में 3.3 फीसदी की कमी आई है. इसकी वजह से कुल 3.2 करोड़ रोजगार खत्म हो गया है.
डाटा नहीं जारी हो रहे
यह पहला मौका नहीं है जब सरकार ने रोजगार से संबंधित एनएसएसओ की किसी रिपोर्ट को दबाया है. पीएलएफएस रिपोर्ट से पहले सरकार ने एनएसएसओ की उस रिपोर्ट को भी जारी नहीं किया था जिसमें बताया गया था देश में बेरोजगारी दर बीते 45 सालों में सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है. बीते साल दिसंबर 2018 में राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग (एनएससी) की मंजूरी के बावजूद केंद्र सरकार ने उस सर्वेक्षण रिपोर्ट को अब तक जारी नहीं किया है. इसके विरोध में आयोग के कार्यवाहक अध्यक्ष पीएन मोहनन समेत दो सदस्यों ने बीती जनवरी में इस्तीफा दे दिया था.
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि केंद्र की एनडीए सरकार ने लोकसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए उक्त रिपोर्ट को जारी नहीं करने का फैसला किया. केंद्र और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक ओर तो हर साल दो करोड़ नई नौकरियां पैदा करने के दावे कर रहे हैं लेकिन दूसरी ओर, तस्वीर का यह दूसरा स्याह पहलू उनके इन दावों की पोल खोलता है.
कोलकाता के एक कालेज में अर्थशास्त्र पढ़ाने वाले प्रोफेसर अनुरंजन सिन्हा कहते हैं, "यह रिपोर्ट सरकार के दावों की पोल खोलती है. कृषि क्षेत्र के आधारभूत ढांचे के मजबूत किए बिना न तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था मजबूत हो सकती है औऱ न देश के आर्थिक विकास की दर तेज हो सकती है.” अर्थशास्त्रियों का कहना है कि सरकार को इस रिपोर्ट को दबाने की जगह इस समस्या की तह तक जाकर मूल वजहों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए. लेकिन सरकार ऐसा करने की बजाय हकीकत पर पर्दा डालने का प्रयास कर रही है.