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भारत में न्याय से जल्दी अन्याय मिलता है

ओंकार सिंह जनौटी४ अगस्त २०१६

एक देश जहां बलात्कार पीड़ित को न्याय पाने के लिए आत्महत्या की चेतावनी देनी पड़ी. रोड एक्सीडेंट के बाद शव को सड़क पर रखकर धरना देना पड़े. उस मु्ल्क में न्याय की उम्मीद करना मूर्खता है.

तस्वीर: Reuters

15 अगस्त आने वाला है. तिरंगा फहराया जाएगा, प्रधानमंत्री लाल किले से देश को संबोधित करेंगे. छोटे बड़े शहरों में सफेद पोशाकों में बच्चों से प्रभात फेरी निकलवाई जाएगी. बच्चों के बीच भाषण प्रतियोगिता करवाई जाएगी. आखिर में एक लड्डू या मिठाई का टुकड़ा देकर उन्हें घर भेज दिया जाएगा. अखबार आजादी, उसके 70 साल के सफर पर टीकाएं लिखेंगे. टीवी पर बौद्धिकता और हुल्लड़बाजी से भरी आत्मविवेचना करेगा.

लेकिन यह हल्ला चिल्ली जब खत्म हो जाए तो एक बार याद करना कि बीते 24 घंटे में कम से कम 100 महिलाओं से बलात्कार हो चुका होगा. करीब 400 लोग सड़क हादसों में मारे जा चुके होंगे. सरकारी और निजी अस्पतालों में गिड़गिड़ाने के बाद कई परिवार डेड बॉडी को बाहर निकलवाने के लिए पर्चे भर रहे होंगे. न्याय की आस खो रहे हजारों परिवार इस आजादी को मन ही मन खारिज कर रहे होंगे.

जिस देश में न्यायिक प्रणाली की दुर्दशा देखकर खुद चीफ जस्टिस को रोना आ जाए, वहां आम नागरिक की हालत आप समझ ही सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस और सरकार चला रहे लोग जानते हैं कि अदालतों में 2.7 करोड़ मामले लंबित हैं.

लेकिन अन्याय की गाथा तो इससे भी पहले पुलिस थानों और अस्पतालों में शुरू हो जाती है. अपराध का शिकार होने के बावजूद सबसे पहले आम नागरिक को पुलिस के सामने मिन्नत करनी पड़ेगी. पुलिस को यकीन दिलाना पड़ेगा कि हां, मेरे साथ ऐसा हुआ है. अगर अपराध करने वाला किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़ा शख्स या फिर कोई बड़े कनेक्शन वाला इंसान निकला तो पुलिस बहाने बनाने लगेगी. अपराध करने वाला अगर आम इंसान ही निकला तो फिर पुलिस को अपने सामने केस के साथ खुली तिजोरी दिखाई पड़ती है.

बलात्कार की शिकार स्विस महिला को मेडिकल टेस्ट के लिए ले जाती एमपी पुलिसतस्वीर: picture-alliance/dpa

हिंसा और हादसों से जुड़े अपराधों के बाद अस्पताल में मेडिकल टेस्ट भी होता है. लेकिन वहां जाना अपने आप में एक न भूलने वाला अनुभव है. डॉक्टरों की आवाज में पीड़ित को एक डांट सुनाई पड़ती है. डॉक्टर केस अक्सर कंपाउंडर के हवाले कर देता है. यहां भी अपराधी अगर प्रभावशाली निकल आए तो मेडिकल रिपोर्ट ही बदल जाती है. बस सारा केस वहीं खत्म. इस दौरान धमकी, चेतावनी और कोर्ट कहचरी में पिसने का डर भी बना रहता हैं.

इकॉनमी चमकाने के लिए तमाम जतन करती आ रहीं सरकारें यह भूल रही हैं कि अर्थशास्त्र के कई सिद्धांत, समाजिक विज्ञान के साथ साथ चलते हैं. एक बड़ा आसान नियम है कि किसी भी चीज की कमी, दो नंबरी को बढ़ावा देती है. यह बात न्याय के मामले में भी फिट बैठती है. न्याय का अभाव, असामाजिक गतिविधियों को बढ़ाता है, कानून तोड़ने वालों को प्रोत्साहित करता है. भारत में यही हो रहा है.

ऐसे में माहौल में हमेशा दो विकल्प होते हैं, एक है घनघोर निराशा में घिर जाने का और दूसरा है कमर कसने का. उम्मीद है भारत कमर कसने का रास्ता चुनेगा. आम नागरिकों के लिए भी जरूरी है कि वे खुद के लिए तमाम तरह की आजादी मांगने के साथ ही अपने कर्तव्य भी समझें. खुद को पुरातन और स्वर्णिम भारत के वंशज बताने के बजाए कमियों को दूर करने की कोशिश करें. वरना महान पुरखों के बर्बाद वशंजों के किस्सों वाले इतिहास में अखिल भारतीय अध्याय भी जुड़ जाएगा.

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