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भारत में भ्रष्टाचार पर जर्मन प्रेस की नजर

११ मार्च २०११

भ्रष्टाचार के आरोप में भ्रष्टाचार निरोधक संस्था के प्रधान पीजे थॉमस को हटाना - भारतीय सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश पर अखबार फ्रांकफुर्टर अलगेमाइने त्साइटुंग ने कहा है कि ऐसे प्रकरणों के चलते सरकार बचाव की मुद्रा में है.

तस्वीर: UNI

समाचार पत्र का कहना है कि नैतिक पतन के शिकार सिर्फ राजनीतिज्ञ ही नहीं हैं, लॉबीस्ट नीरा राडिया की टेलिफोन बातचीत की रिकॉर्डिंग से राजनीतिक और आर्थिक जगत, न्यायपालिका व पत्रकारों के बीच नेटवर्क का पता चलता है. आगे कहा गया है -

साप्ताहिक पत्रिका आउटलुक में इस सिलसिले में ऑलीगैर्की की बात कही गई है, जिसने आपस में देश को बांट रखा है. धन के बदले कैबिनेट के पोस्ट मिलते हैं...आर्थिक हालत के चलते तस्वीर और बिगड़ रही है. विदेश में जिस आठ-नौ फीसदी आर्थिक वृद्धि पर दांतों तले ऊंगली दबाई जाती है, वह ज्यादातर लोगों के लिए एक बेमानी आंकड़ा हो गई है. देहाती इलाकों में, यानी तीन में से दो नागरिकों को इस नई समृद्धि से कोई फायदा नहीं हो रहा है. इसके बदले ईंधन और खाने पीने की चीजें महंगी होती जा रही हैं. कृषि और खुदरे व्यापार के क्षेत्र में निजीकरण की योजनाएं खटाई में हैं. विशेषज्ञों की राय में कम उत्पादकता के लिए अर्धसरकारी भ्रष्ट संरचनाएं जिम्मेदार हैं.

पिछले साल भारत में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजीनिवेश में लगभग 32 फीसदी की कमी आई और वह 24 अरब डॉलर के बराबर रही, जबकि कुल मिलाकर नवविकसित देशों में विदेशी पूंजी के निवेश में वृद्धि हुई. क्या इंडिया-बूम अब खत्म है - बर्लिन के दैनिक टागेसश्पीगेल में पूछा गया है. एक लेख में कहा गया है -

कुछ विश्लेषकों का मानना है कि सिर्फ लालफीताशाही ही नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार के मामलों के सामने आने से भी निवेशक संकोच दिखा रहे हैं. सिर्फ कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन में ही भयानक धांधली नहीं हुई है, कई हफ्तों से सारे देश में अरबों के टेलिकॉम स्कैंडल की चर्चा है. बरसों से इन समस्याओं का पता था - और अब तक विदेशी निवेशकों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा था. बात बल्कि यह है कि दूसरे देश अपनी कोशिश बढ़ा रहे हैं और भारत से अधिक सुविधाएं दे रहे हैं. विशेषज्ञों के बीच इस सवाल पर मतभेद है कि निवेश में कमी सिर्फ दरमियानी मामला है या एक लंबे सिलसिले की शुरुआत है. इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत भविष्य की बड़ी आर्थिक शक्तियों में से एक है. लेकिन और अधिक उदारीकरण का काफी विरोध हो रहा है.

अरब दुनिया में क्रांति की नई लहर तीस से कम उम्र के युवाओं की वजह से आई. इस पीढ़ी को जेनरेशन फेसबुक भी कहा जाता है. इस पर ध्यान देते हुए बर्लिन के समाचार पत्र बर्लिनर त्साइटुंग में हर हफ्ते किसी न किसी देश के किसी युवक या युवती का परिचय दिया जा रहा है. इस साल दिल्ली की 16 साल की रीना का परिचय दिया गया. वह माडर्न स्कूल की छात्रा है. अगले साल स्कूली पढ़ाई खत्म करने के बाद वह एमबीए के कोर्स में भर्ती होंगी. समाचार पत्र में कहा गया है कि मध्यवर्ग के भारतीय युवा दुनिया को बदलना नहीं चाहते हैं, वे अपना करियर बनाना चाहते हैं और व्यवहारिक ढंग से देश की समस्याओं को सुलझाना चाहते हैं. आगे कहा गया है -

सपना देखने वालों के लिए भारत में कोई जगह नहीं है. मध्य वर्ग की भारतीय युवा पीढ़ी आगे बढ़ने के लिए कड़ी मेहनत कर रही है और वह दूसरों से भी यही चाहती है. रीना का कहना है कि गरीबी एक भयानक समस्या है , लेकिन बहुतेरे गरीब हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं. लाचारी अगर आदत बन जाए, तो शिक्षा और मेहनत भी काम नहीं आती. जब वह भारत के भविष्य के बारे में बात करती है, तो उसकी आंखें चमकने लगती है. वह देश में ही रहेगी और उसे बदलने की कोशिश करेगी, बढ़ती आबादी और पर्यावरण प्रदूषण जैसी समस्याओं से निपटेगी. अक्सर वह इसके बारे में भी बात कर चुकी है कि कैसे सारी दुनिया की युवा प्रतिभाओं को किसी मंच पर साथ लाया जा सकता है. फेसबुक के जरिये वह हमउम्र युवाओं से जुड़ी रहती है. भारत में करने को काफी कुछ है - वह कहती है और उठकर खड़ी हो जाती है. उसे भी होमवर्क करने हैं.

और अब पाकिस्तान. ईशनिंदा कानून की आलोचना के कारण वहां थोड़े ही दिनों के अंदर दो राजनीतिज्ञों की हत्या कर दी गई. इस सिलसिले में नोए त्स्युरिषर जोनटाग्सत्साइटुंग में लिखा गया है -

मानवाधिकार संगठनों की ओर से काफी समय से इस कानून के उन हिस्सों को बदलने की मांग की जा रही है, जिनके तहत ईशनिंदा की सजा मौत हो सकती है. उनका कहना है कि अक्सर पड़ोसियों के बीच बेतुके झगड़े की वजह से ऐसे आरोप लगाए जाते हैं...ईशनिंदा कानून ब्रिटिश औपनिवेशिक समय से चला आ रहा है, लेकिन हाल के सालों में ज्यादतियां बढ़ गई हैं. अल्पसंख्यकों, उदारवादियों और अलग विचार रखने वालों का पीछा किया जा रहा है. सरकार चरमपंथियों के सामने झुक रही है.

संकलन: अना लेमान्न/उभ

संपादन: एन रंजन

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