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भारत में हर घंटे 15 खुदकुशी

२९ अक्टूबर २०११

विकास की राह पर दौड़ता भारत पश्चिमी जगत के लिए भी उम्मीदों का सामान जुटा रहा है. लेकिन क्या वहां के लोग इस विकास से तालमेल बिठा पा रहे हैं. खुदकुशी के आंकड़े ऐसा नहीं बताते.

तस्वीर: picture-alliance/dpa/DW

रामबाबू के आखिरी दिनों में जो कुछ हुआ, वह भारत के लिए नया नहीं है. उस गरीब किसान की फसल बर्बाद हो गई. उसके सिर पर ट्रैक्टर के लिए लिया ढाई लाख रुपये का कर्ज चढ़ गया. बैंक वालों ने उन्हें परेशान करना शुरू किया. यहां तक कि उन्हें शर्मिंदा करने के लिए गांव में प्रचार भी किया गया. रामबाबू का बेटा राम गुलाम बताता है, "मेरे पिता इस बात को सहन नहीं कर सके. वह एक इज्जतदार आदमी थे और इस शर्मिंदगी को नहीं झेल सके. अगले दिन उन्होंने खेत में एक पेड़ से फांसी लगा ली."

रामबाबू की फांसी अखबारों के लिए कोई खबर नहीं थी. हो भी कैसे सकती थी, जब मुल्क में हर घंटे 15 लोग खुदकुशी कर रहे हों तो किस किस की खुदकुशी को खबर बनाया जाएगा! यह आंकड़ा यूं ही लगाया गया अनुमान नहीं बल्कि सरकारी रिपोर्ट है. गुरुवार को जारी की गई एक रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले एक साल में लगभग एक लाख 35 हजार लोगों ने खुदकुशी की. पिछले साल के मुकाबले यह 5.9 फीसदी ज्यादा है.

तस्वीर: AP

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो 2010 में हर एक लाख पर 11.4 लोगों ने खुदकुशी की. यानी 2009 के 10.9 फीसदी से ज्यादा. आत्महत्या करने वाले ज्यादातर पुरुषों के लिए वजह वित्तीय मुश्किलें या कर्ज बने जबकि महिलाओं ने घरेलू दबाव के आगे घुटने टेके. ये दबाव शारीरिक और मानसिक पीड़ा के अलावा दहेज की मांग से भी पैदा हुए.

आत्महत्या की दर के मामले में दुनिया में भारत का 41वां नंबर है. यह नंबर उसे 2008 की विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट में मिला है, जो कहती है कि दुनिया की कुल खुदकुशी का 20 फीसदी भारत में है.

भारत में आत्महत्या के सबसे ज्यादा मामले केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में होते हैं जहां दसियों हजार गरीब किसानों ने अपनी जान ले ली. साहूकारों या बैंकों के लोन इनके लिए जानलेवा साबित हुए. ये कर्ज खेती के लिए बीज खरीदने से लेकर बेटी की शादी जैसी जरूरतें पूरी करने के लिए लिए गए. और एक खराब फसल का मतलब है जिंदगी खत्म.

समाजशास्त्री कहते हैं कि भारत की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था ने लोगों की आय बढ़ाई है. इससे इच्छाएं भी बढ़ी हैं. लेकिन इच्छाएं पूरी करना आसान नहीं है और यह हताशा खासतौर से नौजवानों के लिए घातक साबित होती है. समाजशास्त्री अभिलाषा कुमारी कहती हैं, "भारत के पारंपरिक बड़े परिवार और ग्रामीण समुदाय शहरों में खत्म हो चुके हैं. नौजवान लड़के लड़कियां शहरों में आते हैं और मुसीबत में घिरने पर उनके सामने सहारे के रूप में कोई नहीं होता."

रिपोर्टः एपी/वी कुमार

संपादनः ए कुमार

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