भीख मांगते लोगों के बारे में अगर आपकी भी यही धारणा है कि वे अशिक्षित और लाचार होने की वजह से मांग कर अपना जीवन यापन करते हैं तो ध्यान दें कि एक रिपोर्ट के अनुसार देश में बड़ी संख्या में डिग्री और डिप्लोमा वाले भिखारी हैं.
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भारत में सड़कों पर भीख मांगने वाले लगभग 78 हजार भिखारी शिक्षित हैं और उनमें से कुछ के पास प्रोफेशनल डिग्री भी है. यह चौकाने वाली बात सरकारी आंकड़ों में सामने आई है. 2011 की जनगणना रिपोर्ट में "कोई रोजगार ना करने वाले और उनके शैक्षिक स्तर" का आंकड़ा हाल ही में जारी किया गया है. इसके अनुसार देश में कुल 3.72 लाख भिखारी हैं. इनमें से लगभग 79 हजार यानि 21 फीसदी साक्षर हैं. हाई स्कूल या उससे अधिक पढ़े लिखे भिखारियों की संख्या भी कम नहीं है. यही नहीं इनमें से करीब 3000 ऐसे हैं जिनके पास कोई न कोई टेक्निकल या प्रोफेशनल कोर्स का डिप्लोमा है. और इनमें से ही कुछ के पास डिग्री है और कुछ भिखारी तो पोस्ट ग्रेजुएट भी हैं.
भिखारियों की बड़ी संख्या में मौजूदगी के चलते भारत के शहर बदनाम हैं. लेकिन इस रिपोर्ट के मुताबिक शहरों में सिर्फ एक लाख पैंतीस हजार लोग ही भीख मांग कर अपना गुजारा चलाते हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में भीख मांग कर जीवनयापन करने वालों की संख्या लगभग दो लाख सैंतीस हजार है. भारत की विशाल आबादी को देखते हुए भिखारियों की यह संख्या कम ही कही जाएगी. एक अन्य सरकारी आंकड़े के अनुसार भीख मांगने वालों में 40 हजार से ज्यादा बच्चे भी शामिल हैं. वैसे देश के कई राज्यों में भीख मांगने पर प्रतिबंध है.
क्योंमांगतेहैंभीख?
आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले के रहने वाले 27 साल के अयप्पा (बदला हुआ नाम) एक शिक्षित भिखारी हैं. परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण हाई स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी. काम की तलाश में मुंबई आने पर काम तो मिला लेकिन शोषण ज्यादा हुआ. बंधुआ मजदूर जैसी स्थिति से छुटकारा पाकर भीख से काम चलाते हैं. अपनी कमाई के बारे में कुछ भी बताने से इनकार करने वाले अयप्पा अपने घरवालों की आर्थिक मदद भी करते है.
क्या उच्च शिक्षा केवल अमीरों के लिए?
दुनिया भर में 10 से 24 साल की उम्र के सबसे अधिक युवाओं वाले देश भारत में उच्च शिक्षा अब भी गरीबों की पहुंच से दूर लगती है. फिलहाल विश्व की तीसरी सबसे बड़ी शिक्षा व्यवस्था में सबकी हिस्सेदारी नहीं है.
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भारत में नरेंद्र मोदी सरकार ने मेडिकल और इंजीनियरिंग के और भी ज्यादा उत्कृष्ट संस्थान शुरू करने की घोषणा की है. आईआईएम जैसे प्रबंधन संस्थानों के केन्द्र जम्मू कश्मीर, बिहार, हिमाचल प्रदेश और असम में भी खुलने हैं. लेकिन बुनियादी ढांचे और फैकल्टी की कमी की चुनौतियां हैं. यहां सीट मिल भी जाए तो फीस काफी ऊंची है.
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देश के कई उत्कृष्ट शिक्षा संस्थानों और केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में भी फिलहाल 30 से 40 फीसदी शिक्षकों की सीटें खाली पड़ी हैं. नासकॉम की रिपोर्ट दिखाती है कि डिग्री ले लेने के बाद भी केवल 25 फीसदी टेक्निकल ग्रेजुएट और लगभग 15 प्रतिशत अन्य स्नातक आईटी और संबंधित क्षेत्र में काम करने लायक होते हैं.
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कोटा, राजस्थान में कई मध्यमवर्गीय परिवारों के लोग अपने बच्चों को आईआईटी और मेडिकल की प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए भेजते हैं. महंगे कोचिंग सेंटरों में बड़ी बड़ी फीसें देकर वे बच्चों को आधुनिक युग के प्रतियोगी रोजगार बाजार के लिए तैयार करना चाहते हैं. इस तरह से गरीब बच्चे पहले ही इस प्रतियोगिता में बाहर निकल जाते हैं.
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भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने फ्रांस दौरे पर युवा भारतीय छात्रों के साथ सेल्फी लेते हुए. सक्षम छात्र अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा पाने के लिए अमेरिका, ब्रिटेन और तमाम दूसरे देशों का रूख कर रहे हैं. लेकिन गरीब परिवारों के बच्चे ये सपना नहीं देख सकते. भारत में अब भी कुछ ही संस्थानों को विश्वस्तरीय क्वालिटी की मान्यता प्राप्त है.
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मार्च 2015 में पूरी दुनिया में भारत के बिहार राज्य की यह तस्वीर दिखाई गई और नकल कराते दिखते लोगों की भारी आलोचना भी हुई. यह नजारा हाजीपुर के एक स्कूल में 10वीं की बोर्ड परीक्षा का था. जाहिर है कि पूरे देश में शिक्षा के स्तर को इस एक तस्वीर से आंकना सही नहीं होगा.
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राजस्थान के एक गांव की कक्षा में पढ़ते बच्चे. 2030 तक करीब 14 करोड़ लोग कॉलेज जाने की उम्र में होने का अनुमान है, जिसका अर्थ हुआ कि विश्व के हर चार में से एक ग्रेजुएट भारत के शिक्षा तंत्र से ही निकला होगा. कई विशेषज्ञ शिक्षा में एक जेनेरिक मॉडल के बजाए सीखने के रुझान और क्षमताओं पर आधारित शिक्षा दिए जाने का सुझाव देते हैं.
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उत्तर प्रदेश की बहुजन समाज पार्टी जैसे दल खुद को दलित समुदाय का प्रतिनिधि और कल्याणकर्ता बताते रहे हैं. चुनावी रैलियों में दलित समुदाय की ओर से पार्टी के समर्थन में नारे लगवाना एक बात है, लेकिन सत्ता में आने पर उनके उत्थान और विकास के लिए जरूरी शिक्षा और रोजगार के मौके दिलाना बिल्कुल दूसरी बात.
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भारत के "मिसाइल मैन" कहे जाने वाले पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम देश में उच्च शिक्षा के पूरे ढांचे में "संपूर्ण" बदलाव लाने की वकालत करते थे. उनका मानना था कि युवाओं में ऐसे कौशल विकसित किए जाएं जो भविष्य की चुनौतियों से निपटने में मददगार हों. इसमें एक और पहलू इसे सस्ता बनाना और देश की गरीब आबादी की पहुंच में लाना भी होगा.
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इसी तरह उत्तर प्रदेश से काम की तलाश में मुंबई आए राधेश्याम स्नातक बेरोजगार हैं. लेकिन दैनिक जरूरतों की पूर्ति के लिए उन्हें कोई न कोई अस्थाई काम मिल ही जाता है. हालांकि जो पारिश्रमिक उन्हें मिलता है उससे वह खुश नहीं है. राधेश्याम अपने असंतोष को व्यक्त करते हुए कहते हैं, "बनारस की विश्वनाथ गली में भीख भी मांगता तो यहां से ज्यादा कमा सकता था लेकिन..."
शिक्षाशास्त्री प्रोफेसर अरुण कुमार कहते हैं कि शिक्षा और रोजगार के बीच सही तालमेल न होने की वजह से ऐसी समस्या आती है. उनकी आशंका है कि पढ़े लिखे भिखारियों की वास्तविक संख्या और अधिक हो सकती है. कुछ इसी तरह की आशंका समजाशास्त्री डॉक्टर साहेब लाल की भी है. उनका कहना है कि भिक्षावृत्ति को समाज में अच्छा नहीं माना जाता इसलिए ज्यादातर उच्च शिक्षित भिखारी सर्वे के दौरान अपनी शैक्षिक स्थिति के बारे में झूठ बोलते हैं.
उनके अनुसार अधिकतर मामलों में उच्च शिक्षित लोग मजबूरी में भीख मांगते है लेकिन कुछ समय बाद यह एक आदत बन जाती है. प्रोफेसर अरुण कुमार के अनुसार भिखारियों को रोजगारपरक कार्यों से जोड़ना कोई मुश्किल काम नहीं है. लेकिन जब तक शिक्षा नीति में फेरबदल नहीं होगा, तब तक "स्किल इंडिया" या "भिखारी-बेरोजगारी मुक्त भारत" के सपने को पूरा कर पाना काफी मुश्किल है.