भारत श्रीलंकाः दोस्त या दुश्मन
८ फ़रवरी २०१३राजपक्षे की भारत यात्रा बेहद निजी और धार्मिक वजहों की है. बौद्ध धर्म के अनुयायी राष्ट्रपति जब पत्नी सीरान्ती के साथ पहुंचे, तो वहां काले झंडे वाले लोगों ने उनका "स्वागत" किया. विरोध के बारे में जब राष्ट्रपति से पूछा गया, तो उन्होंने बड़ी सफाई से बात काट दी, "यह एक धार्मिक जगह है. हमें यहां राजनीति नहीं करनी चाहिए. हम कोलंबो में इस पर बात कर सकते हैं. वहां आईए."
तमिलनाडु की प्रमुख विपक्षी पार्टी डीएमके के मुखिया करुणानिधि ने राजपक्षे के विरोध का भार अपने बुजुर्ग कंधों पर उठा लिया है. श्रीलंका में गृह युद्ध खत्म होने के बाद से भारत के साथ उसके रिश्ते तल्ख चल रहे हैं. भारत का आरोप है कि राजपक्षे के नेतृत्व में वहां तमिलों का कत्लेआम किया गया. जबकि श्रीलंका सरकार इसे "देश में शांति लाने के लिए जरूरी" बताती है. तमिलनाडु की द्रविड़ पार्टियां श्रीलंकाई तमिलों का समर्थन करती हैं. श्रीलंकाई आबादी का करीब 11 फीसदी हिस्सा तमिलों का है.
तमिलों का कत्लेआम
अनुमान है कि श्रीलंका में करीब 25 साल तक चले गृह युद्ध में एक लाख तमिल मारे गए. प्रभाकरण के नेतृत्व में तैयार की गई लिट्टे की सेना पिछले दशकों में विश्व की सबसे खतरनाक विद्रोही सेना बन कर उभरी थी, जिसके पास लड़ाकू विमान तक थे. लेकिन 2005 में राजपक्षे के राष्ट्रपति बनने के बाद तमिल विद्रोहियों के खिलाफ जबरदस्त सैनिक मुहिम चली और लिट्टे का सफाया कर दिया गया. 2009 में प्रभाकरण भी मारा गया. हालांकि श्रीलंका की सरकार पर इस दौरान युद्ध अपराध के मामले चले और कहा गया कि 40,000 तमिलों की जान ली गई. श्रीलंका सरकार पर युद्ध अपराध के आरोप लगे हैं.
भारत की राजनीति में तमिलनाडु एक धुरी बन कर उभरा है और केंद्र में किसी भी गठबंधन सरकार की मजबूरी है कि वहां की एक न एक पार्टी को साथ लेकर चले. भारत के वरिष्ठ पत्रकार राजेश सुंदरम ने "श्रीलंका के विरोध की राजनीति" समझाते हुए डॉयचे वेले से कहा कि ऐसी ही मजबूरी तमिलनाडु की पार्टियों की भी है, "उनके लिए यह दिखाना बहुत जरूरी है कि वे तमिलों का भला करना चाहती हैं. डीएमके और एआईएडीएमके दोनों इसमें शामिल हैं. राज्य विधानसभा में श्रीलंका के खिलाफ एक प्रस्ताव भी आया है और (तमिल वोट को देखते हुए) किसी भी दल ने इसका विरोध नहीं किया."
राजपक्षे पर आरोप
जहां तक श्रीलंका का सवाल है, उसे भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के समर्थन की दरकार है. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में अमेरिका द्वारा लाए गए प्रस्ताव पर भारत ने श्रीलंका का साथ नहीं दिया था. यह रुख आगे भी जारी रह सकता है. समझा जा रहा था कि राजपक्षे इसी दौरे में दिल्ली जाकर नेताओं का समर्थन जुटाने की कोशिश भी करेंगे लेकिन बाद में उन्होंने इसे बोध गया और तिरुपति तक सीमित कर दिया.
युद्ध अपराधों के संगीन आरोप के बारे में श्रीलंका के नेशनल पीस काउंसिल के जहान परेरा ने बताया कि युद्ध खत्म होने के चार साल बाद भी स्थिति बेहद खराब है, "जो लोग बेघर हुए थे, वे लौट आए हैं. उनकी जमीन मिल गई पर घर नहीं है. वे बुरी तरह प्रभावित हैं. सभी तमिलों में ऐसा ही भाव है कि उन्हें उनके अधिकार नहीं दिए गए. उन्हें बराबरी का नागरिक नहीं माना गया, उन्हें उनकी भाषा इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं दी गई और उनके इलाकों में उन्हें स्वायत्तता नहीं दी गई." रिपोर्टें हैं कि श्रीलंकाई गृह युद्ध में पांच लाख से ज्यादा लोगों को घर छोड़ना पड़ा और युद्ध के दौरान तमिलों के साथ सेना ने अमानवीय व्यवहार किया था.
मुश्किल है बदलाव
सरकार ने पहले वादा किया कि तमिलों को बराबरी का हक दिया जाएगा लेकिन इस साल स्वतंत्रता दिवस पर एलान कर दिया कि उनके इलाकों को स्वायत्तता नहीं दी जा सकती. परेरा का कहना है कि स्थिति तभी बदलेगी, जब सरकार बदले और यह एक बेहद मजबूत सरकार है, जो जल्दी सत्ता छोड़ती नहीं दिख रही है, "हमें उम्मीद थी कि युद्ध के बाद स्थिति बदलेगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. हो सकता है कि अब इसमें बहुत साल लग जाएं. फिलहाल सरकार जिस तरह से आरोपों से इनकार कर रही है और कह रही है कि देश में कोई समस्या नहीं है. हम सब एक हैं. अगर यही रवैया बना रहा, तो समस्या का हल नहीं हो सकता."
संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि कई शिविरों में इस बात के सबूत मिले हैं कि तमिलों के साथ बर्बर व्यवहार किया गया है और बेकसूर महिलाओं और बच्चों को भी निशाना बनाया गया है. श्रीलंका सरकार लगातार इनकार करती आई है. परेरा का कहना है कि स्थिति और भी गंभीर हो जाती है क्योंकि "श्रीलंका जातीय ध्रुवीकरण वाला देश है और सिंहली जनता अपने राष्ट्रपति पर बिना तथ्यों को जाने विश्वास करती है."
भारत और श्रीलंका
श्रीलंका की कोशिश है कि भारत के साथ रिश्ते बेहतर बनाने से उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कम विरोध का सामना करना पड़ेगा. लेकिन भारत अपनी मजबूरियों में फंसा है. चुनावी साल में सरकार किसी पार्टी को नाराज नहीं कर सकती और मार्च में संयुक्त राष्ट्र में श्रीलंका के खिलाफ जो प्रस्ताव आने वाला है, उसका समर्थन करने के लिए तमिलनाडु की पार्टियां अभी से भारत सरकार पर दबाव बना रही हैं.
सुंदरम का कहना है भारत के लिए मुश्किल बहुत बड़ी है. अगर नैतिक स्तर पर देखा जाए, तो श्रीलंका का विरोध सही है लेकिन अगर आर्थिक और दक्षिण एशिया में चीन और पाकिस्तान के प्रभाव को रोकने की बात की जाए, तो श्रीलंका सरकार के साथ मिल कर काम करना चाहिए, "लेकिन भारत सरकार की कूटनीति दोनों ही तरीके से नाकाम रही है. न तो वह तमिलों के साथ खड़ा हो पाया है और न ही श्रीलंका में चीन के बढ़ते प्रभाव और निवेश को रोक पाया है."
रिपोर्टः अनवर जे अशरफ
संपादनः महेश झा