भारत सरकार और रिजर्व बैंक के बीच कैसा तनाव है जिसके लिए सरकार को बयान देना पड़ा है. क्या गवर्नर उर्जित पटेल इस्तीफा देने की तैयारी में हैं?
विज्ञापन
भारत सरकार ने इस बात पर जोर दिया है कि भारतीय रिजर्व बैंक की स्वायत्तता "जरूरी" है. कहा जा रहा है कि देश के केंद्रीय बैंक के साथ भारत सरकार की तनातनी सार्वजनिक होने पर निवेशकों की चिंता देख सरकार ने यह बयान दिया है. बुधवार को इस बयान के आने से पहले भारतीय शेयर बाजार और रुपये की कीमत गिर गई थी. मीडिया में ऐसी खबरें आ रही थीं कि रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल सरकार के साथ चली आ रही तनातनी की वजह से इस्तीफा दे सकते हैं. खबरों में तो यहां तक कहा गया कि सरकार ने सार्वजनिक हित के मसलों पर केंद्रीय बैंक के गवर्नर को निर्देश देने के लिए ऐसे अधिकार का इस्तेमाल किया जो आमतौर पर नहीं किया जाता.
वित्त मंत्रालय की तरफ से जारी बयान में कहा गया है कि रिजर्व बैंक की "स्वतंत्रता एक अत्यावश्यक और स्वीकृत शासन की जरूरत" थी. इसके साथ ही सरकार की तरफ से कहा गया है कि केंद्रीय बैंक के साथ वह विस्तृत विमर्श जारी रखेगा ताकि मुद्दों पर अपना आकलन और संभावित हल के बारे में सुझाव दे सके.
हालांकि यह साफ नहीं हुआ कि क्या सरकार ने रिजर्व बैंक को निर्देश देने के लिए पहली बार आरबीआई एक्ट के तहत काम किया है. भारत के प्रमुख अखबार 'द इकोनॉमिक टाइम्स' में छपी खबरों के मुताबिक सरकार ने इस अधिकार का इस्तेमाल कर गवर्नर को पत्र लिखे हैं. भारत के दो टीवी चैनलों ने भी इससे पहले खबर दी थी कि उर्जित पटेल इस्तीफा दे सकते हैं. रिजर्व बैंक ने इस बारे में प्रतिक्रिया देने से मना कर दिया.
मुंबई में आईसीआईसीआई सिक्योरिटीज की प्राइमरी डीलरशिप में प्रमुख अर्थशास्त्री ए प्रसन्ना ने कहा, "बयान अस्पष्ट है और कई मुद्दे हैं जिनके बारे में पूरी तरह से स्पष्टीकरण नहीं देता. फिर भी ऐसा लग रहा है कि वित्त मंत्रालय आंच को कम करने की कोशिश में है." इकोनॉमिक टाइम्स की रिपोर्ट कहती है कि धारा 7 के अधिकारों का इस्तेमाल गैर बैंकिंग फाइनेंस कंपनियों की तरलता से लेकर कमजोर बैंकों की पूंजी जरूरतों के साथ ही छोटी और मझोली कंपनियों के लिए कर्ज तक के मामलों में किया गया है.
रिजर्व बैंक और सरकार के बीच तनाव की बात तब सामने आई, जब डेपुटी गवर्नर विरल आचार्य ने शुक्रवार को कहा कि केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता को कमजोर करना "सशक्त रूप से विनाशकारी" हो सकता है. साफ है कि बैंक पर अगले साल मई के आम चुनाव से पहले सरकार की तरफ से नीतियों में छूट और अपने अधिकारों को कम करने के लिए दबाव है और वह उसके खिलाफ जोर लगा रही है.
डॉलर के मुकाबले 1 से 72 तक ऐसे पहुंचा रुपया
अमेरिकी डॉलर के मुकाबले आज भारतीय रुपया जिस स्तर पर खड़ा है, उसे देखते हुए क्या कोई यकीन करेगा कि आजादी के समय रुपया और डॉलर बराबर थे? फिर डॉलर के मुकाबले रुपया 72 तक कैसे पहुंचा, जानिए.
तस्वीर: Imago/Zumapress/I. Chowdhury
1947
भारत को 15 अगस्त 1947 को जब आजादी मिली तो अमेरिकी डॉलर और भारतीय रुपये के बीच एक्सचेंज रेट बराबर था. यानी एक डॉलर एक रुपये के बराबर था. दरअसल देश नया नया आजाद हुआ था और उस पर कोई बाहरी कर्ज नहीं था.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo
1948
अंग्रेजों के भारत से जाने के बाद देश की आर्थिक हालत खस्ता थी. गरीबी से निपटने के साथ साथ देश के पुनर्निर्माण की चुनौती थी. यहीं से भारतीय रुपये के कमजोर होने का सिलसिला शुरु हुआ. फिर भी 1948 में एक डॉलर की कीमत चार रुपये से भी कम थी.
तस्वीर: picture alliance/dpa/AP Photo/M. Desfor
1951
देश के विकास की खातिर 1951 में पहली पंचवर्षीय योजना तैयार की गई, जिसके लिए सरकार ने विदेशों से कर्ज लेना शुरू किया. भारत ने आजादी के समय फिक्स्ड रेट करंसी व्यवस्था को चुना. इसीलिए लंबे समय तक रुपया डॉलर के मुकाबले 4.79 रहा.
तस्वीर: picture alliance/Fritz Fischer
1966
चीन के साथ 1962 में और पाकिस्तान के साथ 1965 की लड़ाई के कारण भारत को बड़ा बजट घाटा उठाना पड़ा. इसके अलावा उन दिनों पड़े सूखे से महंगाई बहुत बढ़ गई थी. ऐसे में, सरकार को 1966 में डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत को घटाकर 7.57 करना पड़ा.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo
1971
भारतीय रुपये को 1971 में सीधे अमेरिकी डॉलर से जोड़ दिया गया जबकि अब तक वह ब्रिटिश पाउंड के साथ जुड़ा था. इस दौरान राजनीतिक अस्थिरता, घोटालों के कारण सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था और अंतरराष्ट्रीय कारणों से भारत का व्यापार घाटा बढ़ता गया.
तस्वीर: imago/ZUMA/Keystone
1975
भारतीय रुपये को लेकर 1975 में बड़ा कदम उठाया गया. उसे दुनिया की तीन मुद्राओं के साथ जोड़ा गया, जिसमें अमेरिकी डॉलर के अलावा जापानी येन और जर्मन डॉएच मार्क शामिल थे. इस दौरान एक अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये की कीमत 8.39 थी.
तस्वीर: imago/Birgit Koch
1985
1985 आते आते भारतीय रुपया में उस समय तक की रिकॉर्ड गिरावट दर्ज की गई और डॉलर के मुकाबले उसका दाम 12.34 जा पहुंचा. सियासी उथल पुथल और तंग आर्थिक हालात के बीच भारतीय रुपया कमजोर हो रहा था.
तस्वीर: Imago/Teutopress
1991
खाड़ी युद्ध और सोवियत संघ के विघटन के कारण भारत बड़े आर्थिक संकट में घिर गया और अपनी देनदारियां चुकाना उसके लिए मुश्किल हो गया. विदेशी मुद्रा भंडार में सिर्फ 11 करोड़ डॉलर बचे, जिससे सिर्फ तीन हफ्ते का आयात हो सकता था. ऐसे में रुपया प्रति डॉलर 26 को छूने लगा.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/J. Maps
1993
अब भारतीय मुद्रा में उतार चढ़ाव बाजार से तय होने लगा. हालांकि ज्यादा उथल पुथल की स्थिति में रिजर्व बैंक को हस्तेक्षप करने का अधिकार दिया गया. 1993 में एक अमेरिकी डॉलर खरीदने के लिए 31.37 रुपये देने पड़ते थे.
तस्वीर: Reuters/Danish Siddiqui
2002-2003
1993 के बाद लगभग एक दशक तक रुपये के मूल्य में सालाना औसतन पांच प्रतिशत की गिरावट आती रही. इसी का नतीजा रहा कि 2002-03 में भारतीय रुपया डॉलर के मुकाबले गिर कर 48.40 के स्तर पर पहुंच गया.
तस्वीर: AP
2007
भारत में नई ऊंचाइयों को छूते शेयर बाजार और फलते फूलते आईटी और बीपीओ सेक्टर की वजह से भारत में बड़ा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आने लगा. इसी का नतीजा था कि 2007 में भारतीय रुपये ने डॉलर के मुकाबले 39 के स्तर को छुआ.
तस्वीर: AP
2008
2008 के वैश्विक आर्थिक संकट ने अमेरिका और दुनिया की अर्थव्यवस्था को बड़ा झटका दिया है. इसके चलते डॉलर के मुकाबले रुपये के मूल्य में भी कुछ ठहराव आया. लेकिन साल 2008 खत्म होते रुपया गिरावट का नया रिकॉर्ड बनाते हुए 51 के स्तर पर जा पहुंचा.
तस्वीर: AFP/Getty Images
2012
यह वह समय था जब ग्रीस और स्पेन गंभीर आर्थिक संकट में घिरे थे. एक नई मंदी की आशंकाओं के बीच भारत की अर्थव्यवस्था पर भी इसका कुछ असर दिखने लगा. नतीजतन रुपया और गिर गया और डॉलर के मुकाबले उसकी कीमत 56 तक जा पहुंची.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/N. Seliverstova
2013
भारतीय रुपये ने अगस्त 2013 में रिकॉर्ड गिरावट देखी और एक अमेरिकी डॉलर 61.80 रुपये के बराबर हो गया. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में विपक्ष ने रुपये के मूल्य में गिरावट के लिए यूपीए सरकार की आर्थिक नीतियों को जिम्मेदार ठहराया जबकि सरकार बाहरी कारणों का हवाला देती रही.
तस्वीर: Getty Images
2018
पीएम मोदी ने सत्ता संभालते ही भारत को मैन्यूफैक्चरिंग हब बनाने के लिए 'मेक इन इंडिया' का एलान किया. लेकिन चार साल में उम्मीद के मुताबिक ना नौकरियां बढ़ी और ना अर्थव्यवस्था की रफ्तार. रुपया भी डॉलर के मुकाबले 72 को पार कर गया. अब मोदी सरकार बाहरी कारणों का हवाला दे रही है.
तस्वीर: Imago/Zumapress/I. Chowdhury
15 तस्वीरें1 | 15
निवेशक इस बात से चिंता में हैं कि सरकार और रिजर्व बैंक के बीच चली आ रही तनातनी फैसले लेने को प्रभावित कर सकती है. खासतौर पर ऐसे वक्त में जब भारत का वित्तीय बाजार बड़े बुनियादी निर्माण के लिए धन देने वाली कंपनियों के कर्ज भुगतान में नाकामी के कारण संकट में है. इसकी वजह से पूरे नॉन बैंकिंग फाइनेंस सेक्टर में तरलता(लिक्विडिटी) की भारी कमी आ सकती है.
एमके ग्लोबल फाइनेंशियल सर्विसेज में इंस्टीट्यूशनल रिसर्च के प्रमुख धनंजय सिन्हा कहते हैं, "सार्वजनिक बैंकों और गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थानों के बीच हमारा वित्तीय तंत्र मोटे तौर पर कमजोर है, अगर रिजर्व बैंक के शीर्ष अधिकारी पद छोड़ देते हैं तो यह आशंका होगी की अस्थिरता बनी रहेगी और इसका अर्थव्यवस्था और बाजार पर असर हो सकता है."
विश्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक 2017 में भारत की अर्थव्यवस्था फ्रांस को पीछे छोड़ दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गई और अब यह ब्रिटेन से ज्यादा पीछे नहीं है.
आचार्य का बयान सरकार और रिजर्व बैंक के बीच 48.73 अरब डॉलर के रिजर्व को लेकर लंबे समय से चल रही खींचतान के बाद आया. देश के आर्थिक घाटे को कम करने के लिए रिजर्व बैंक इस रिजर्व का इस्तेमाल करे या नहीं इसे लेकर दोनों में विवाद है.
सरकार के अधिकारी रिजर्व बैंक से कमजोर बैंकों के लिए कर्ज लेने के नियमों को आसान बनाने की भी मांग कर रहे हैं. यहां तक कि रिजर्व बैंक के नियामक अधिकारों में कटौती कर एक नई भुगतान नियामक एजेंसी भी बनाने की तैयारी है.
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने मंगलवार को केंद्रीय बैंक पर 2008-2014 के दौरान कर्ज लेने में आई तेजी को रोकने में नाकम रहने का आरोप लगाया. जेटली के मुताबिक इसकी वजह से बैंक पर 150 अरब डॉलर का कर्ज चढ़ गया.
गवर्नर उर्जित पटेल और उनके सहयोगी जल्दी ही वित्त मंत्रालय के अधिकारियों से मुलाकात कर सकते हैं. इस बीच टीवी चैनलों पर यह भी खबर आ रही है कि पटेल ने रिजर्व बैंक के बोर्ड की बैठक 19 नवंबर को बुलाई है.