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भारत सरकार की उपलब्धियाँ और नाकामी

२१ मई २०१०

जर्मन भाषी अख़बारों में इस हफ्ते भारत की खबरें ही छाई रहीं. समाजवादी अख़बार नोएस डोएचलांड ने 2009 चुनावों के बाद मनमोहन सिंह सरकार के एक साल पूरा होने पर लिखा है कि इस अवधि में रोशनी और अँधेरा दोनों देखने को मिले.

तस्वीर: UNI

अख़बार पिछले एक साल में भारत सरकार की उपलब्धियों का लेखा जोखा करते हुए कहता है,

रोशनी और अंधेरा, दोनों देखने को मिले हैं. लेकिन इस साल को सकरात्मक या नकरात्मक रूप से देखना दृष्टिकोण पर निर्भर करता है. आम आदमी और गरीबों के लिए महंगाई बहुत ज़्यादा भारी पड़ी है. ख़ासकर पिछले सात महीनों में मूल खाद्य पदार्थों और तेल के दाम बढ़े हैं. आलू, दालें, फल और सब्ज़ियां लगभग पहुंच से बाहर हो गईं. इसकी वजह से गरीबों और अमीरों के बीच खाई और गहरी होती जा रही है. जिस तरह से भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि आर्थिक विकास में सभी शामिल होंगे, इस तरह के विकास का भारतीयों को अभी इंतज़ार करना पड़ रहा है.

प्राकृतिक गैस के दाम को लेकर अंबानी भाईयों के बीच कट्टर लड़ाई छिड़ गई थी. अब भारत के सुप्रीम कोर्ट ने मुकेश अंबानी को सही ठहराया और कहा कि क़ीमत का निर्धारण सरकार करेगी क्योंकि गैस राष्ट्रीय संपत्ति है. इसलिए सरकार को कीमत तय करने में अंतिम अधिकार होना चाहिए. लेकिन इस फैसले का ऊर्जा के लिए तरस रहे भारत के लिए नकारात्मक असर भी हो सकता है. ज़्यूरिख से प्रकाशित नोए ज़ुरिषर त्साईटुंग का कहना है,

पत्नी नीता के साथ मुकेश अंबानीतस्वीर: AP

ऊर्जा विशेषज्ञ इस फैसले से ज़्यादा खुश नहीं हैं. प्राकृतिक तेल को बाज़ार के दाम पर बेचा जाना चाहिए, किसी सरकार द्वारा तय किए दाम पर नहीं. विशेषज्ञों का मानना है कि फैसले की वजह से विदेशी कंपनियां शायद तेल और गैस के क्षेत्र में निवेश करने से हिचकिचा सकती हैं और यह ऊर्जा के लिए तरस रहे भारत के लिए अच्छा नहीं होगा. इस वक्त भारत अपने इस्तेमाल के लिए ज़रूरी तेल का तीन चौथाई हिस्सा बाहर से आयात करता है. लेकिन भारत की इच्छा है कि वह आयातों से अपनी निर्भरता को कम करे. वैसे फैसले के साथ भारत के दोनों सबसे मशहूर विरोधियों के बीच झगड़ा कतई खत्म नहीं हुआ है. दोनों अंबानी भाई सालों से वह सब कुछ कर रहे हैं, जिसकी वजह से दूसरे को सबसे ज़्यादा नुक्सान हो.

भारत और चीन मिलकर जलवायु की रक्षा करना चाहते हैं, लेकिन पश्चिमी देशों के आदेश और नियमों के मुताबिक नहीं. जर्मनी के प्रसिद्ध साप्ताहिक अख़बार डी त्साईट का कहना है कि भारत और चीन पर यूरोप के देश कोपनहेगन में हुए जलवायु सम्मेलन के बाद गालियों बकने लगे हैं. यूरोपीय देशों का मानना है कि किसी तरह से अमेरिका को प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने के लिए राज़ी किया जा सकता था, लेकिन भारत और चीन ने प्रस्ताव का विरोध किया. इसकी वजह से दुनिया को जलवायु परिवर्तन के असरों से बचाया नहीं जा सकता. अख़बार कहता है,

मनमोहन सिंह और हू चिनथाओतस्वीर: UNI

इतनी निराशा भारतीयों और चीनियों के बीच नहीं देखी जा सकती है. इस वक्त चीन और भारत दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाएं हैं. इस को लेकर खुशी दोनों देशों से कोई नहीं छीन सकता है. इससे ज़्यादा दिलचस्प बात यह है कि यूरोप की जलवायु नीति की आलोचना के बीच चीन और भारत कुछ सामान्य हितों को भी देख रहे हैं. लेकिन जो भारत और चीन कोपनहेगन की सामान्य भावना के रूप में देख रहे हैं वह राजनीतिक तौर पर बदला लेने से कई गुना ज़्यादा बड़ी बात है. कोपनहेगन सम्मेलन की नाकामी के कारण पैदा संकट के बाद इसे एक नई शुरुआत माना जा सकता है. भारत और चीन एक टिकाऊ जलवायु और ऊर्जा नीति की कल्पना कर रहे हैं. और यह पश्चिमी देशों के दबाव के बिना और उनके आदेशों के बिना. शायद ही भारत और चीन ने पहले कभी अंतरराष्ट्रीय मंच पर इस तरह कंधे से कंधा मिलाकर काम किया होगा.

और अंत में एक नज़र पाकिस्तान पर.

पाकिस्तानी तालिबान

अमेरिका में हाल ही में तीन पाकिस्तानियों को गिरफ्तार किया गया है. इस तरह की सूचना है कि उन्होंने न्यूयार्क में नाकाम किए गए बम हमले के संदिग्ध हमलावर फैसल शहज़ाद को पैसा दिया था. जर्मनी का मशहूर अनुदारवादी दैनिक फ्रांकफुर्टर आलगमाईने त्साईटुंग कहता है,

अमेरिका के न्याय मंत्री होल्डर ने भी इस बात की पुष्टि की है कि पाकिस्तानी तालिबान का नाकाम हुए हमले में हाथ है. राष्ट्रपति बराक ओबामा के आंतरिक सुरक्षा सलाहकार जॉन ब्रेनन ने भी बताया कि शहज़ाद और तहरीक-ए-तालिबान के बीच संबंध थे. तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर इलाकों में अफ़ग़ानिस्तान से भागे आतंकवादी संगठन अल क़ायदा के प्रमुखों को शरण दे रहा है. उनमें शायद ओसामा बिन लादेन भी शामिल है.

संकलन: आना लेमान/प्रिया एसेलबॉर्न

संपादन : महेश झा

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