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भाषा और भ्रष्टाचार

२७ जनवरी २०१३

क्या भाषा भी भ्रष्टाचार का शिकार होती है? लेखकों से लेकर प्रकाशकों और अंत में पाठकों तक पहुंचने में भाषा को कई बदलावों का सामना करना पड़ता है. प्रकाशक कहते हैं कि जो बिकता है, वो छपता है. लेकिन क्या एक मात्र मापदंड है?

तस्वीर: DW

जयपुर में चल रहे साहित्यकार सम्मलेन में भाषाओं के भ्रष्ट आचरण पर जम कर चर्चा हुई. सम्मलेन में दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहे अजय नावरिया ने तो भाषा के भ्रष्ट आचरण का दोष मुंशी प्रेमचंद सरीखे लेखकों तक पर मढ़ दिया. उन्होंने कहा यह कोई नई बात नहीं है जब साहित्यकारों ने भाषा के साथ खिलवाड़ किया हो.

प्रेमचंद की एक कहानी 'सदगति' जिस पर बाद में सत्यजीत रे ने फिल्म भी बनाई, इस का सबसे बड़ा उदहारण है. उन्होंने कहा कि इस कहानी के एक पात्र 'दुखी चमार' के साथ प्रयोग में लाई गई भाषा अपत्तिजनक संबोधनों और शब्दों के साथ भाषा के भ्रष्ट आचरण का सबसे बड़ा सबूत देती है. वह कहते है कि कहानी के एक अन्य पात्र 'पंडित जी' के लिए मुंशी प्रेमचंद बेहद ही सम्मानजनक भाषा प्रयोग में लाते हैं जबकी वही भाषा दुखी दलित के वर्णन में दूसरा रूप ले लेती है.

प्रेमचंद द्वारा ही अपने दामाद को लिखी गई एक चिठ्ठी का उल्लेख करते हुए अजय बताते हैं की वहां भी उन्होंने यह लिखा "जमाई साहिब, मेरी बिटिया पढी लिखी 'तितली' नहीं है. सम्मलेन में जब उनके इस कथन पर आपत्ति प्रकट की गयी तो अजय ने कहा कि हिंदी में भ्रष्ट आचरण का इस से बड़ा उदहारण क्या होगा कि महान साहित्यकारों की रचनाओं पर खुल कर बेबाग टिप्पणी भी नही की जा सकती. अजय ने एक अन्य उदाहरण देते हुए बताया कि शब्दों पर भी देश की वर्ण व्यवस्था कितनी हावी है. अपने एक कार्यक्रम की शुरुआत जब उन्होंने नमस्कार, आदाब के साथ की तो सब कुछ ठीक था पर जैसे ही उन्होंने 'जय भीम' का प्रयोग किया, दर्शकों का एक बहुत बड़ा वर्ग उन से वहां भी नाराज हो गया. अजय देश के ऐसे गिने चुने दलित अध्यापकों में शामिल है जो अपने विद्यार्थियों को हिन्दू धार्मिक ग्रंथ पढाते हैं.

अजय नावरियातस्वीर: DW

भाषा एक सेतु

दिल्ली के एक कालेज में अंग्रेजी पढ़ा रही हिंदी की प्रसिद्ध कवियत्री और उपन्यासकार 'अनामिका' भाषा को एक चटाई मानती है जो दो वर्ग और वर्ण में के बीच पुल का काम करते हुए उन्हें संवाद का माध्यम उपलब्ध कराती है. लेकिन उनका कहना है कि भाषा की भी एक 'एलओसी' यानि नियत्रंण रेखा होनी चाहिए. कहती हैं कि कहीं तो हमें भाषा के आचरण और अनाचरण में भेद करना होगा. वह कहती हैं कि कुछ भाषाओं के अश्लील शब्द दूसरी भाषा में आते ही कब शालीन हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता.

एक ही भाषा नारी के शरीर को अभिव्यक्ति देने में कब भ्रष्ट आचरण करने लगती है इस का पता भी तभी चल सकता है जब उसी भाषा से पुरुषों का वर्णन किया जाए. भाषा तो संवाद का सबसे बड़ा माध्यम है तो इस के आचरण को क्यों भ्रष्ट करते हुए अनावश्यक विवाद खड़ा किया जाए. अनामिका कहती है कि भाषा तो प्यार की एक झप्पी जैसी होनी चाहिए जो सुकून दे, दूरियां मिटाए और प्यार जगाए.

इंटरनेट युग में भाषा

अनामिका के मुताबिक इन्टरनेट ने एक नई भाषा जिसे 'खिचड़ी भाषा' भी कहा जाता है, बना डाली है. यह भाषा उस गरीब का सबसे बड़ा भोजन है जो भाषा की सरलता को ही अभिव्यक्ति की भाषा मानता है और इसे भाषा का भ्रष्ट आचरण कहा जाना उचित नहीं होगा. ब्लॉग की भाषा अपनी मूल भाषा से बिलकुल भिन्न है और इसे पाठकों का बहुत बड़ा वर्ग भी हासिल है. वह कहती है कि ईसा मसीह ने उस युग में कहा था कि उन्हें सूली पर चढाने वाले यह नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं पर आज के युग में अब यह बताया जाना बहुत जरूरी है कि क्या हो रहा है और इस के लिए भाषाओं को अपने संकुचित दायरों में विस्तार करते हुए नए शब्दों को अपनाना होगा. कुछ समय पहले तक शादी के पहले किसी पुरुष के साथ रहने वाली महिला को संदिग्ध चरित्र बताया जाता था, लेकिन अब इसे 'लिविंग रिलेशन' लिखा जाता है.

अनामिकातस्वीर: DW

प्रकाशक तय करते भाषा का आचरण

गौरव सोलंकी यूं तो आईआईटी से उच्च शिक्षा प्राप्त हैं पर अब लेखन को अपना रोजगार बनाए हुए हैं. फिल्मों की कहानी लिख रहे गौरव कहते हैं कि भाषा के आचरण की ज़िम्मेदारी लेखकों ने नहीं वरन प्रकाशकों ने संभाल रखी है. 'जो बिकता है, वही छपता है' प्रकाशक अकसर यही कहते हैं. यही वजह है कि लेखक को भी मजबूरी में भाषा के साथ कभी कभी खिलवाड़ करना ही पड़ता है.

गौरव के मुताबिक लेखन किसी भी भाषा में करना एक कठिन कार्य है पर उस से भी कठिन है उस के जरिए रोजी कमाना. कहते हैं कि कई बार जब उन्होंने सही भाषा और विचार के साथ लिखा तो प्रकाशक ने उसे क्यों नहीं छापा, यह उन की समझ में आज तक नहीं आया. गौरव कहते है कि पुस्तकालयों के लिए कौन सी किताबें खरीदी जाएं, इसमें भी भ्रष्ट आचरण होता है.

गौरव कहते हैं कि फूलों के साथ कांटे भी होते है, ये तो माली पर निर्भर है कि वो क्या तोड़ना चाहता है. इस लिहाज से पाठक की भी जिम्मेदारी है कि वो भी भाषा का आचरण तय होने में अपना योगदान दें.

रिपोर्ट: जसविंदर सहगल, जयपुर

संपादन: ओ सिंह

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