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भूख एक राजनीतिक समस्या है

३१ अक्टूबर २०११

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार धरती की आबादी आज 7 अरब हो गई. आबादी बढ़ रही है लेकिन भुखमरी की समस्या बनी हुई है. मुख्य संपादक ऊटे शेफर का कहना है कि भुखमरी इसलिए है कि विश्व आर्थिक व्यवस्था औद्योगिक देशों को लाभ पहुंचाती है.

तस्वीर: Dagmar Wittek

एक दुनिया भूख के बिना. ऐसी दुनिया जहां सारे सात अरब लोगों को रोटी मिले. ऐसी दुनिया सिर्फ सपना नहीं. संभव है. पृथ्वी पर इतना अन्न पैदा होता है कि सभी पेट भरकर खा सकें. लेकिन इस बात का भूख नाम की समस्या से कोई लेना देना नहीं. भूख इसलिए हैं क्योंकि दूसरी चीजों को उससे ज्यादा अहम समझा जाता है. मसलन यूरोपीय किसानों और उपभोक्ताओं की आवाज में ज्यादा राजनीतिक दम होता है. अगर पश्चिम देश अपने ही शब्दों पर कायम रहें तो उन्हें सब्सिडी खत्म करनी होंगी, व्यापारिक रिश्तों को बदलना होगा. नतीजा, उन देशों में खाना महंगा होगा.

तस्वीर: Dagmar Wittek

गरीब देशों की कोई नहीं सुनता

भूखे पेट की आवाज में राजनीतिक दम नहीं होता. उनके लिए कोई लॉबीइंग नहीं करता. सच यह है कि जो जमीन अनाज उगाती है, उसी के रहने वाले भूखे मर रहे हैं. जैसे छोटे छोटे इलाकों के ग्रामीण किसान. क्योंकि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय और आर्थिक संस्थानों में उनकी आवाज नहीं सुनी जाती. जब मुक्त व्यापार समझौते होते हैं तो उनकी बात रखने वाला कोई नहीं होता. तब भी नहीं, जबकि वे बहुमत में हैं. दुनिया की कुल आबादी का आधा हिस्सा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से खेती पर जीता है. और विकासशील दुनिया का बड़ा हिस्सा इस आर्थिक व्यवस्था की कीमत चुकाता है. एक अरब लोग भूखे सोते हैं.

यूरोपीय राजनेता हमेशा खुद को लाचार दिखाते हैं. वे कहते हैं कि उनके अपने वोटरों को नई कर व्यवस्था के लिए इस दलील पर तैयार करना संभव नहीं कि दुनिया के सबसे गरीब लोगों को फायदा पहुंचाना है. लेकिन यह इतना मुश्किल भी नहीं है. नेताओं को अपने वोटरों को समझाना होगा कि भूख से लड़ना उनके ही हित में है. उन्हें आप सिर्फ एक तथ्य बताकर देखिए कि यूरोप उन डेढ़ करोड़ भूखे लोगों का क्या करेगा जो अफ्रीकी देशों से 2020 तक यूरोप में आने वाले हैं.

तस्वीर: AP

राजनेताओं को अपने वोटरों को यह भरोसा दिलाना होगा कि उन्हें दोगुना कर देने की जरूरत नहीं है. हम विकास योजनाओं के जरिए जिसका निर्माण करते हैं, उसे अपनी आर्थिक नीतियों और अंतरराष्ट्रीय व्यापार के जरिए बर्बाद कर देते हैं. आखिर में, हम सिर्फ विकसित और विकासशील देशों के बीच निर्भरता पैदा कर पाते हैं.

असली अपराधी कौन

भूख के मानवीय पहलू का जमकर प्रचार होता है. लेकिन भूख की वजह से जिन लोगों को फायदा पहुंचता है, वे लोगों की निगाह में नहीं आ पाते. यह साफ साफ कहना होगा कि भुखमरी पैदा करने वाली मौजूदा आर्थिक व्यवस्था कुछ लोगों के हित में है. विकसित देशों के उपभोक्ताओं को भी इस व्यवस्था से फायदा होता है. 20 साल पहले जो खाने की कीमत थी, आज उससे कम हो चुकी है. उन्हें एक यूरो यानी 60-65 रुपये में ब्रेड मिलता है और 70 सेंट यानी 40-45 रुपये में दूध. विकसित देशों के लोग मानते हैं कि खाना महंगा नहीं होना चाहिए. एक सदी पहले जर्मन उपभोक्ताओं की आय का 70 फीसदी हिस्सा खाने पर खर्च होता था. आज सिर्फ 20 फीसदी.

यूरोप के किसानों को भी इस व्यवस्था से खूब फायदा पहुंचता है. वे बाजार की जरूरत से कहीं ज्यादा पैदा करते हैं. लेकिन उन्हें मांग की फिक्र नहीं है क्योंकि राजनीतिक समर्थन से मिलने वाली भारी सब्सिडी से उनकी जिंदगी बढ़िया गुजरती है. विकासशील देशों के किसान तो इसकी बस कल्पना कर सकते हैं. क्योंकि अपने बीजों और खाद से बाजारों को पाट देने वाली बड़ी बड़ी कंपनियां इससे फायदा उठा रही होती हैं.

दक्षिणी गोलार्ध में भी एक बड़ा हिस्सा है जो इस व्यवस्था से लाभ कमाता है. इन देशों में नीतियां या तो किसी खास हिस्से को फायदा पहुंचाने के लिए बनाई जाती हैं या फिर वोट बटोरने के लिए. वहां गांवों और खेती में निवेश को घाटे का सौदा माना जाता है. जहां 80 फीसदी लोग खेती किसानी पर जीते हैं, वे देश मानते हैं कि उन्हें खेत के लिए किसी नीति की जरूरत नहीं. मोजांबिक जैसे उपजाऊ जमीन के देश में पूरे दक्षिणी अफ्रीकी महाद्वीप के लिए चावल या मक्का पैदा करने और निर्यातक बनने की क्षमता है. लेकिन वहां के अमीर राजनीतिक तबके की इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं है इसलिए देश आयात पर जीता है.

तस्वीर: picture alliance/dpa

ऐसे देशों की नीतियां बदलने के लिए खासी मेहनत की जरूरत होगी. हर द्विपक्षीय बैठक और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में यह कोशिश करनी होगी. और पश्चिमी देश ऐसा तभी कर सकते हैं जब वे विकासशील देशों को समझा सकें कि उन्हें इस बदलाव से कितना फायदा होगा. उन्हें समझाना होगा कि निर्यात के ज्यादा मौके, यूरोपीय बाजारों तक पहुंच और अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कृषि उत्पादों की बढ़िया कीमत संभव है.

मुनाफाखोर और भूखे

पर इन सबके बीच में वे लोग भी हैं जो अन्न बाजार पर सट्टा लगाते हैं. 2010 की दूसरी छमाही में खाद्य पदार्थों की कीमतें 30 फीसदी तक बढ़ गईं. यह निवेशकों और सट्टेबाजों के लिए आकर्षक बात है. लेकिन पोर्त ओ प्रां, ढाका और अगादेज के लोगों को इन बढ़ती कीमतों से सिर्फ एक चीज मिली, भूख.

हमें अपने समृद्ध समाजों के झूठों को खत्म कर देना चाहिए. अकाल जो अक्सर युद्धों और कुदरती आपदाओं द्वारा मिलकर पैदा किए जाते हैं, शहरी गरीबों के लिए कोई समस्या नहीं हैं. भूख असल में एक बड़ी आबादी को सामाजिक रूप से बाहर कर देने को मिले राजनीतिक समर्थन की देन है. उनकी मुश्किलों और मुसीबतों को हित साधने वाले बड़ी आसानी से नजरअंदाज कर देते हैं. औपनिवेशिक शक्तियों पर कई सौ साल तक निर्भर रहने के बाद नए नए आजाद हुए देशों पर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और वर्ल्ड बैंक ने 1980 के दशक में ऐसी नीतियां थोप दीं, जिनकी वजह से उन्हें अपनी अर्थव्यवस्थाओं में आमूल चूल बदलाव करने पड़े. इन नीतियों का मकसद था उदारीकरण, निजीकरण और विनियमीकरण. लेकिन ऐसे देशों में जहां न कोई ढांचा था न तकनीकी जानकारी. न घरेलू निवेशक थे और न सुचारू अर्थव्यवस्था. उन देशों में ये मकसद कहर बनकर बरपे और आपदाएं लेकर उतरे. न सिर्फ कृषि बल्कि शिक्षा और स्वस्थ्य भी इससे प्रभावित हुए.

तस्वीर: AP

चेतावनी

21वीं सदी में भूख एक स्कैंडल है और दुनिया आज भी उसे नजरअंदाज कर रही है. यह एक विनाशकारी गलती है. और इसकी वजह सिर्फ नैतिक नहीं है. हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि भूखा पेट कितनी विस्फोटक हो सकता है. 2008 से ही हम कैमरून से लेकर मिस्र तक में हम भूख की गर्मी में सत्ताओं को पिघलते देख चुके हैं. यही गर्मी यूरोप और अन्य विकसित देशों को भी अस्थिर कर सकती है.

जब आप अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को समझ लेते हैं तो आप इसी नतीजे पर पहुंचते हैं कि आमूल चूल राजनीतिक बदलाव की जरूरत है. भूख और गरीबी से जो आर्थिक और सामाजिक कटाव होता है उसे कोई निर्माण योजना, आपात सहायता पैकेज यानी आधे अधूरे दिल से किए गए और जल्द भुला देने वाले वादे नहीं रोक सकते. जिस तरह समृद्ध दक्षिणी गोलार्ध के किसान उत्तर के व्यापारिक नियमों और कीमतों पर निर्भर हैं, वैसे ही इन समाजों की निर्भरता दक्षिण के तेजी से बढ़ते देशों की राजनीतिक और आर्थिक स्थिरता पर निर्भर है. हमें अपने लघुकालीन हितों में कटौती करनी होगी ताकि कहीं किसी जगह कोई भूख से न मरे.

40 साल पहले अमेरिकी विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर ने विश्व खाद्य सम्मेलन में एक वादा किया था - एक दशक के भीतर कोई बच्चा भूखा नहीं सोएगा. अब भी यह वादा पूरा होने से दशकों दूर दिखता है.

समीक्षा: ऊटे शेफर/वी कुमार

संपादन: ए कुमार

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