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भूख हड़ताल से कोई गांधी नहीं होता

२० सितम्बर २०१२

कोई 80 साल पहले महात्मा गांधी ने पहली बार भूख हड़ताल की और दुनिया को विरोध का एक नया हथियार दे दिया. विरोध का यह तरीका और गांधी भारत के लिए अब कितने प्रासंगिक हैं इस पर गांधीवादी अनुपम मिश्रा से डीडब्ल्यू ने बातचीत की.

तस्वीर: AP

आज के ही दिन 80 साल पहले दिन गांधी ने अपनी भूख हड़ताल की थी. भूख हड़ताल का राजनीतिक हथियार के तौर पर गांधी ने ही पहली बार इस्तेमाल किया था. आज यह कितना असरदार है?

जैसा आपने कहा एक राजनीतिक हथियार के रूप में गांधी जी ने इसका इस्तेमाल किया था लेकिन नैतिक बल इसमें बहुत ज्यादा था. उन्होने उपवास शब्द का प्रयोग किया. उपवास का अर्थ होता है कि आप ईश्वर के पास जाते है. मतभेदों को सुलझाने के लिए अभी तक जितने भी शस्त्र दुनिया भर में इस्तेमाल होते रहे हैं ये उससे एक कदम आगे था. दूसरे पर दबाव बनाना, नफरत फैलाना, तलवार टांगना इन सबसे ये आगे था. इसीलिए आज से 80 साल पहले जो हुआ उसे मानव सभ्यता के लिए शुभ माना जाना चाहिए.

लोग कहते हैं कि आज भूख हड़ताल का इस्तेमाल बात मनवाने के लिए किया जा रहा है. खासकर अन्ना हजारे की भूख हड़ताल को लोग इसी निगाह से देखते हैं.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

जी बिल्कुल. गांधी ने कहा था कि साध्य हमारा अच्छा है तो साधन भी अच्छे होने चाहिए. भूख हड़ताल से दबाव बनता है लेकिन क्षणिक होता है. समाचार की सुर्खियां बनता है फिर गायब हो जाता है. एक आंदोलन की बात नहीं कर रहा मैं. जितने भी उपवास आजादी के बाद पिछले 50 - 60 सालों में हुए हैं चाहे पानी को लेकर हो, पर्यावरण को लेकर हो, विस्थापन को लेकर उसमे अंत में सारा मामला दबाव का बनता है. सरकार कभी भी उस काम को नहीं करती. मेरा ये मानना है कि अगर भूख हड़ताल दवाब के लिए किया जा रहा है तो दबाव को व्यावहारिक तो बनाओ. गांधी ने इसको लोकशिक्षण का हथियार बनाया था. दंगे के खिलाफ भी उन्होने उपवास किया. ये जनता पर दबाव बनाने के लिए था. गांधी ने उपवास को चमकाकर बिल्कुन नए तरीके से इस्तेमाल किया. हमने उसे धुंध में डाला है.

क्या आप ये कह रहे हैं कि अन्ना ने गांधी जी के सिखाए मंत्र का दुरुपयोग किया?

मैं ऐसा कह सकता हूं. इसमें किसी की व्यक्तिगत निंदा वाली बात नहीं है. मोटे तौर पर ये है कि एक चीज समाज के सामने उपलब्ध है. अब उसका उपयोग मैं कैसे करता हूं ये मुझ पर निर्भर करता है. शस्त्र भारी है लेकिन अगर मैं उसे उठा नहीं पाता तो मैं लड़खड़ा कर गिर जाता हूं. मुझे अपने को उसके योग्य बनाना पड़ता है. हमने ज्यादातर आंदोलनों को लड़खड़ाकर गिरते देखा है.

तो फिर दिक्कत कहां रह जाती है?

ये सब व्यक्ति केन्द्रित हो जाता हैं. मुद्दे से भटक जाता है. इसीलिए आप देखेंगे कि गांधी ने कलकत्ते में उपवास किया. दिल्ली में भी किया. दंगा करने वालों ने उनके पास हथियार जमा करना शुरु कर दिया था. उन लोगों ने खुद गांधी से उपवास खत्म करने का आग्रह किया. गांधी ने उपवास का इस्तेमाल खुद पर किया.

गांधी के बाद बहुत लोगों ने उपवास किया. हाल के वर्षों में मेधा पाटकर, अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल ने भूख हड़ताल किया. एक नाम और है जिसकी ओर लोगों का ध्यान कम ही जाता है, इरोम शर्मिला. 10 साल से ज्यादा हो गए जब से वो भूख हड़ताल पर बैठी हैं, लेकिन कोई सुन नहीं रहा है. क्या ये गांधी की सीख की असफलता है?

हम अगर इसका विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे कि पुलिस ने उठाया और जबरन खाना खिलाना शुरू कर दिया. तो एक तरह से उस हथियार की धार कम हो जाती है. उसी अनुपात में नतीजे भी निकलते हैं. उनका प्रयास अभिनंदनीय है. प्रशंसनीय है लेकिन उसकी धार जैसी होनी चाहिए वैसी नहीं है.

तस्वीर: AP

गांधी के देश में गांधी के बाद उनके रास्ते पर चलकर कोई सफल नहीं हुआ. लेकिन विदेशों में नेल्सन मंडेला, आंग सांग सू ची वगैरह हैं. ये सब गांधी के रास्ते पर चलते हुए मंजिल तक पहुंचे. इस विरोधाभास को आप कैसे देखते हैं?

मुझे लगता है ये कि ये अपेक्षाकृत छोटे समाज में किए गए काम हैं. इनमें सफलता की गुंजाइश ज्यादा दिखी. कष्ट तो बहुत सहा इन लोगों ने भी और एक विषय को लेकर आंदोलन किया. हिंदुस्तान में जिन लोगों ने किया वो बहुत बड़े समाज में किया. इसीलिए शायद असफल हुए. एक बात और कहना चाहूंगा कि अगर सफल नहीं हुए तो हमारे अंदर कोई न कोई कमी है. वो लोग सफल हुए तो उन लोगों ने इसे हमसे अच्छे से चलाया. इसमें कोई दो राय नहीं.

गांधी जी ने पहली भूख हड़ताल पूना पैक्ट के पहले दलितों के उत्थान के लिए की थी. सब जानते हैं अंबेडकर से उनका वैचारिक मतभेद था. कुछ ही दिन पहले हिंदुस्तान के पत्र पत्रिकाओं में, सोशल मीडिया में उस सर्वे की खूब चर्चा हुई जिसमें पूछा गया था कि सबसे महान भारतीय कौन. खासतौर से दलित बुद्धिजीवियों ने मुहिम चलाकर अंबेडकर को गांधी से बड़ा नायक साबित करने की कोशिश की. क्या कहना है आपका?

इसमें कुछ कहने की बात ही नहीं है. एक उपजाऊ लोकतंत्र में हर पीढ़ी में बड़े नेताओं को आना ही होगा. देश के बेटे बेटियों को इतना बड़ा बनना होगा कि आने वाली पीढ़ियां उनसे प्रेरणा ले सकें. अगर किसी को लगता है कि गांधी महान हैं तो बड़ी बात है और अगर किसी को लगता है कि अंबेडकर महान हैं तो ये भी बड़ी बात है. इसमें एक पक्ष देखने की मुझे जरूरत नहीं लगती. हर सौ पचास साल में कोई न कोई नेतृत्व उभरना चाहिए और उसे इस खालीपन को भरना चाहिए.

गांधी की आलोचना करते समय कई बार अश्लील और गंदे शब्दों का भी प्रयोग होता है. खासतौर से उनके सेक्स संबंधी प्रयोग की चर्चा ज्यादा की जाती है?

ये स्वाभाविक है. जब समाज में सहिष्णुता की कमी होगी तो ये होगा. उदारता से किसी की समीक्षा नहीं होती. कोशिश होती है कि अगर हम गिरे हैं तो दूसरे को भी गिरा दिया जाए. मैं तो ये मानता हूं कि इसे संयत भाव से लेना चाहिए. निंदा करने से काम नहीं चलने वाला है. हजारों लाखों लोगों में से कुछ लोग बुराई कर रहे हैं. ठीक है हम मान लेते हैं कि यही सही है. इस तरह की बातें उठती हैं और अगर उसमें वजन नहीं होता तो वो डूब भी जाती हैं.

कांग्रेस पार्टी खासतौर से गांधी नाम का इस्तेमाल करती है. गांधी जी के नारे, पोस्टर, फोटो सब कुछ लगाती है. क्या ये दुरुपयोग नहीं हैं?

फोटो पर तो किसी का कॉपीराइट है नहीं जिसे मन हो लगवा ले. लेकिन अगर नाम का इस्तेमाल कर रहे हैं तो कुछ काम भी दिखना चाहिए. हर बार कांग्रेस की सीटें कम हो रही हैं. यूपीए दो को ही ले लें. बार बार नये संकट में घिर जाता है. पहले तो यूपीए एक और यूपीए दो में ही अंतर. फिर यूपीए दो के हर हफ्ते में अंतर. तो गांधी जी की तस्वीर कोई नाव नहीं है जो उनको इस बाढ़ में पार लगा देगी.

आखिरी सवाल, अगर आप इस शब्दावली से इत्तफाक रखते हों तो गांधीवाद का क्या भविष्य नजर आता है?

गांधी जी ने बहुत सारे भाषणों में कहा है. जीवित रहते हुए ही उन्होने कहा था कि गांधीवाद जैसी कोई भी चीज मैं अपने पीछे छोड़कर नहीं जाना चाहता. कम से कम उनकी इतनी बात तो हमें मान ही लेनी चाहिए.

इंटरव्यूः विश्वदीपक

संपादनः एन रंजन

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