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भूत दुनिया में हैं या मन में

२० दिसम्बर २०१७

किसी खंडहर में अंधेरा और फिर अचानक कोई टक टक की आवाज. ऐसी परिस्थितियों में डर लगने लगता है, बदन में झुरझुरी सी होती है. लेकिन यह डर आता कहां से है?

Alfred Hitchcock Psycho
तस्वीर: Taschen

डर या भय, इसका सामना हर इंसान करता है. क्या वाकई कोई चीज हमें डराना चाहती है या फिर मस्तिष्क भ्रम पैदा कर हमें असुरक्षित महसूस कराता है. असाधारण घटनाओं का वैज्ञानिक अध्ययन करने वाली पैरासाइकोलॉजी, इसी डर का जवाब खोजने की कोशिश कर रही है. बकिंघमशायर न्यू यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान विभाग के प्रमुख डॉ. कायरन ओकीफ कहते हैं, "पैरासाइकोलॉजिस्ट मुख्य रूप से तीन प्रकार की रिसर्च में शामिल हैं. पहला इलाका है, विचित्र किस्म का आभास. इसमें टेलिपैथी, पहले से आभास होना या परोक्षदर्शन जैसी चीजें आती हैं. दूसरा है, मस्तिष्क के जरिये कोई काम करना, जैसे बिना छुए चम्मच को मोड़ देना. तीसरा है, मृत्यु के बाद का संवाद, जैसे भूत प्रेत या आत्माओं से संवाद."

असाधारण घटनाक्रम से जुड़े मनोविज्ञान को समझने के लिए वैज्ञानिक न्यूरोसाइंस की भी मदद ले रहे हैं. असामान्य परिरस्थितियों में कई बार हमारी आंखें अलग ढंग से व्यवहार करती हैं. कम रोशनी में आंखों की रेटीनल रॉड कोशिकाएं सक्रिय हो जाती हैं और हल्का मुड़ा हुआ सा नजारा दिखाती हैं. डॉक्टर ओकीफ के मुताबिक, "आंख की पुतली को बेहद कोने में पहुंचाकर अगर हम आखिरी छोर से कोई मूवमेंट देखें तो वह बहुत साफ नहीं दिखता है. डिटेल भी नजर नहीं आती है. सिर्फ काला और सफेद ही दिखता है. इसका मतलब साफ है कि रॉड कोशिकाएं रंग नहीं देख पा रही हैं. हो सकता है कि ऐसी परिस्थितियों में हमारा मस्तिष्क सूचना के अभाव को भरने की कोशिश करता हो. दिमाग उस सूचना को किसी तार्किक जानकारी में बदलने की कोशिश करता है. हमें ऐसा लगने लगता है जैसे हमने कुछ विचित्र देखा है. तर्क के आधार पर हमें लगता है कि शायद कोई भूत है."

मस्तिष्क से निकलती है डर की भावनातस्वीर: Friedrich Wilhelm Murnau Stiftung

ऐसे भले ही कुछ पलों के लिए होता हो, लेकिन इसके बाद इंसान के भीतर हलचल शुरू हो जाती है. सांस तेज चलने लगती है, धड़कन तेज हो जाती है, शरीर बेहद चौकन्ना हो जाता है. कुछ लोगों को बहुत ज्यादा डर लगता है और कुछ को बहुत कम, वैज्ञानिक इसके लिए मस्तिष्क में मौजूद न्यूरोट्रांसमीटरों को जिम्मेदार ठहराते हैं. वैज्ञानिकों के मुताबिक जिस तरह हर व्यक्ति में भावनाओं का स्तर अलग अलग होता है, वैसा ही डर के मामले में भी होता है. ओकीफ कहते हैं, "डरावने माहौल में कुछ लोगों के मस्तिष्क में डोपोमीन का रिसाव होने लगता है, इसके चलते उन्हें मजा आने लगता है, जबकि बाकी लोग बुरी तरह डर रहे होते हैं." वैज्ञानिकों के मुताबिक बचपन में खराब अनुभवों का भी डर से सीधा संबंध है. अक्सर भूतिया कहानियां सुनने वालों या हॉरर फिल्में देखने वाले लोगों के जेहन में ऐसी यादें बस जाती हैं. और जब भी कोई असाधारण वाकया होता है, तो ये स्मृतियां कूदने लगती हैं.

जब हम कोई पुरानी जर्जर इमारत देखते हैं, जहां अंधेरा हो, आस पास कोई आबादी न हो, तो हमें भय का अहसास होने लगता है. वैज्ञानिकों के मुताबिक ज्यादातर हॉरर फिल्मों में ऐसी इमारतों को भूतिया बिल्डिंग के रूप में पेश किया गया. यह जानकारी हमारे मस्तिष्क में बैठ चुकी हैं. ऐसी इमारत देखते ही हमारा मस्तिष्क हॉरर फिल्मों की स्मृति सामने रख देता है. डर पैदा कर मस्तिष्क ये चेतावनी देता है कि इस जगह खतरा है, जान बचाने के लिए यहां से दूर जाना चाहिए. इसके बाद धड़कन तेज हो जाती है और पूरा बदन फटाक से भागने या किसी संकट का सामना करने के लिए तैयार हो जाता है. यह सब कुछ बहुत ही सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक स्तर पर होता है.

ओकीफ कहते हैं कि किसी शख्स से इतना भर कह दीजिए कि यह इमारत भूतिया है तो उसके भीतर एक अजीब सी भावना फैलने लगेगी. इसके बाद उस इमारत में जो कुछ भी सामान्य ढंग से घटेगा, वो डरावना महसूस कराने लगेगा. लेकिन क्या भूत होते हैं, इसके जबाव में ओकीफ कहते हैं, "कल्पना और भूतों पर विश्वास या विचित्र परिस्थितियां, इनके संयोग से ऐसा आभास होता है कि जैसे हमारे अलावा भी कोई और है, जबकि असल में कोई और होता ही नहीं है." लेकिन किसी चीज को बिना छुए उसमें हलचल कर देना या फिर पूर्वाभास व टेलिपैथी जैसे वाकये अब भी विज्ञान जगत को हैरान कर रहे हैं. ओकीफ जानते हैं कि मस्तिष्क की कुछ विलक्षण शक्तियां अब भी विज्ञान के दायरे से कोसों दूर हैं.

(इंसान के भीतर छुपे हैं कैसे कैसे डर)

लेरिसा वॉरनेक/ओएसजे

 

 

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