50 लाख की संख्या के साथ फ्रांस में मुसलमान कुल आबादी में आठ फीसदी हिस्सा रखते हैं. गर्भावस्था परीक्षण के लिए जिस आकार का उपकरण इस्तेमाल होता है उसी आकार का उपकरण इसमें भी उपयोग होता है. उपकरण का उद्देश्य न केवल खाद्य पदार्थों में सुअर का मांस तलाशने में मदद करना है बल्कि सौंदर्य प्रसाधन और दवाइयों में भी इसकी मौजूदगी जांचने में सहायता करना है. किट के साथ एक छोटी टेस्ट ट्यूब आती है, जिसमें खाद्य सामग्री का नमूना गर्म पानी के साथ मिलाया जाता है. इसके बाद पानी में एक टेस्ट स्ट्रिप डाली जाती है, जो कुछ मिनट बाद परिणाम दे देता है. स्ट्रिप पर एक रेखा उभरती है तो इसका मतलब है कि सामग्री में पोर्क नहीं है और अगर दो रेखा बनती है तो पता चल जाता है कि उस चीज में पोर्क मौजूद है.
दो साल पहले यूनिवर्सिटी की पढ़ाई के दौरान फ्रांसीसी जां फ्रांसोआ जुलियन और अल्जीरियाई अब्दर रहमान छवी को इसे बनाने का विचार तब आया जब यूरोप में मीट स्कैंडल की खबरें जोरों पर थीं. मीट स्कैंडल में खाने पीने की चीजों में बीफ की जगह घोड़े का मांस मिला दिया गया था. इन दोनों उद्यमियों की कंपनी कैपिटल बॉयोटेक की दलील है कि मौजूदा कोई अन्य परीक्षण उनके परीक्षण के मुकाबले उपयोगकर्ता को आसानी से और सस्ते उपाय के साथ खाद्य उत्पाद की सामग्री का विश्लेषण करने की क्षमता देता है. टेस्ट किट की कीमत करीब 7 यूरो (550 रुपये) है और नतीजे 99 फीसदी सटीक हैं.
संस्थापकों का कहना है कि जल्द ही 'हलाल टेस्ट' नाम का ये उपकरण ऑनलाइन बिक्री के लिए उपलब्ध होगा. कैपिटल बॉयोटेक का कहना है कि इस किट के नाम के बावजूद कोई भी परीक्षण यह नहीं बता सकता है कि मांस व्यंजन हलाल है. लॉन्च होने के 24 घंटे के भीतर कंपनी को दस हजार किट के ऑर्डर मिले.
फ्रांस के मुसलमान प्रोडक्ट को हाथों हाथ ले रहे हैं. हलाल सुपरमार्केट में काम करने वाले मोहम्मद हातमी कहते हैं, "इस परीक्षण के साथ हम यह पता कर सकते हैं कि खाद्य सामग्री के भीतर वास्तव में पोर्क है या नहीं."
इससे पहले शराब परीक्षण और अन्य कई परीक्षण विकसित करने वाले जुलियन और अब्दर रहमान का मानना है कि लाखों लोगों की दिलचस्पी इस किट में पैदा हो सकती है.
हर रोज सामने आ रहीं मिलावटी खाने और पर्यावरण परिवर्तन की खबरों के बीच कई लोग अब शाकाहारी जीवन की ओर रुख कर रहे हैं. हालांकि इसका सिर्फ यही उपाय नहीं है.
तस्वीर: DW/V. Kernभारत में लाखों टन अनाज सरकार की उपेक्षा और गोदामों में हो रही लापरवाही की वजह से खराब होता है. अनाज के खेत खलिहान से लेकर बाजार तक के सफर में कुल फसल का लगभग 40 फीसदी बर्बाद हो जाता है.
तस्वीर: DWभारत में भंडारण की पर्याप्त क्षमता नहीं होने की वजह से भी अनाज बर्बाद होता है. अनुमान के मुताबिक चावल के मामले में 1.2 किलो प्रति क्विंटल और गेहूं के मामले में 0.95 किलो प्रति क्विंटल का नुकसान होता है.
तस्वीर: AFP/Getty Imagesजर्मनी में हर साल 2 करोड़ टन खाना बर्बाद होता है वहीं दूसरी ओर एक दूसरे के साथ खाना बांटने का चलन भी अब सामने आ रहा है. रेस्त्रां और सब्जियों के स्टोर उस खाने को दान कर देते हैं जो उनके पास बचता है.
तस्वीर: Dietmar Gustहर रोज सामने आ रहीं मिलावटी खाने और पर्यावरण परिवर्तन की खबरों के बीच कई लोग अब शाकाहारी जीवन की ओर रुख कर रहे हैं.
तस्वीर: imago/Eibner70-80 के दशक में शुद्ध शाकाहारी खाने जिनमें अंडे का इस्तेमाल भी नहीं होता था, ज्यादा चलन में नहीं थे. लेकिन इन दिनों बहुत कुछ बदल रहा है. लोग अनेक तरह के मांस खा रहे हैं.
तस्वीर: DW/V. Kernशाकाहारी भोजन से दुनिया भर में कार्बन फुटप्रिंट और पानी के इस्तेमाल को कम किया जा सकता है. मांसाहारी भोजन के कारण दुनिया भर में ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन का पांचवां हिस्सा मनुष्य के कारण होता है.
तस्वीर: Fotolia/Janis Smitsअगर सिर्फ आसपास के बाजार में मिलने वाले, करीब ही उगने वाले फल और सब्जियों का सेवन किया जाए तो इससे परिवहन के कारण होने वाले प्रदूषण और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से भी बचा जा सकता है.
तस्वीर: DW/E. Shoo'मोनोकल्चर' यानि एक ही जमीन पर ज्यादा समय तक एक ही प्रकार की फसल उगाते रहने का चलन भी भारी पड़ रहा है. इससे फसल में बीमारी और कीड़ों के पैदा होने की संभावना हो जाती है, जिससे बचने के लिए कीटनाशक इस्तेमाल किए जाते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpaबड़े शहरों में भी अब खुद अपने लिए छोटे पैमाने पर खाने पीने की चीजें उगाना मुश्किल नहीं. जर्मनी के बर्लिन शहर के बीचोंबीच जैसे यह 'प्रिंसेस गार्डेन', जहां लोकल इस्तेमाल के लिए फसल उगाई जाती है.
तस्वीर: picture-alliance/dpaकुछ शोधों में यह भी बात सामने आई है कि मांस के कम इस्तेमाल से कैंसर, हृदय रोग और डायबिटीज की संभावना भी कम होती है.
तस्वीर: dream79 - Fotolia.com