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भ्रष्टाचार के दाग बड़े या छोटे

१४ नवम्बर २०१३

आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल की युवा में बढ़ती पैठ को कुछ कम करने की कोशिश में लगी राजनीतिक पार्टियों ने टीम केजरीवाल पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया है लेकिन इससे उनकी सीमित सोच भी जाहिर होती है.

तस्वीर: AFP/Getty Images

आम आदमी पार्टी का जन्म भ्रष्टाचारविरोधी आंदोलन की कोख से हुआ है. इसके नेता अरविन्द केजरीवाल पहले गांधीवादी समाजसुधारक अन्ना हजारे के नेतृत्व में चले आंदोलन 'इंडिया अगेंस्ट करप्शन' के अग्रणी कार्यकर्ताओं में शामिल थे. इस आंदोलन और इसके गर्भ से जन्मी आम आदमी पार्टी के अस्तित्व का आधार ही सार्वजनिक जीवन में शुचिता की मांग और उस पर सबसे अधिक बल देना है. शुरुआत में अन्ना हजारे और केजरीवाल जैसे उनके सहयोगियों का आग्रह राजनीति से बाहर रहकर देश की राजनीतिक व्यवस्था की सफाई करने पर था क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि उन पर किसी भी राजनीतिक पार्टी के हितों के लिए काम करने का आरोप लगे या वे भी उस तरह के दबावों का सामना करें जो अक्सर राजनीतिक पार्टियों को करने पड़ते हैं.

लेकिन बाद में केजरीवाल को लगा कि राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लिए बिना उसे सुधारना संभव नहीं है और उन्होंने आम आदमी पार्टी का गठन किया. यहीं से उनके और अन्ना के रास्ते अलग हो गए. आम आदमी पार्टी के गठन को अधिकांश दलों ने गंभीरता से नहीं लिया हालांकि युवा वर्ग के बीच उसे लेकर काफी उत्साह देखा जा रहा था. लेकिन जब गठन के तत्काल बाद अरविन्द केजरीवाल ने न केवल चुनाव में भाग लेकर दिल्ली में सरकार बनाने का महत्वाकांक्षी इरादा जाहिर किया बल्कि बरेली जाकर विवादास्पद मुस्लिम नेता मौलाना तौकीर हुसैन से भेंट की और आम नेताओं के पारम्परिक हथकंडों का भी इस्तेमाल करना शुरू कर दिया, तो कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के कान खड़े हुए. उधर जमीनी रिपोर्टें भी बता रही थीं कि आम आदमी पार्टी का नयापन और राजनीतिक अनुभवहीनता उसके दोष नहीं बल्कि गुण की तरह देखे जा रहे हैं क्योंकि कांग्रेस और बीजेपी की तरह उसका अतीत दागदार नहीं है.

तस्वीर: AFP/Getty Images

सीमित सोच दिखाती रणनीति

ऐसे में सबसे कारगर राजनीतिक रणनीति यही हो सकती है कि भ्रष्टाचार का विरोध करने वाले को ही भ्रष्टाचारी सिद्ध कर दिया जाए. यदि सिद्ध न भी किया जा सके तो उसके बारे में पर्याप्त संदेह तो पैदा कर ही दिया जाए ताकि जब वह अपने बेदाग होने का दावा करे तो उसका यह दावा संदिग्ध नजर आए. कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही केंद्र सरकार में गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने इसी रणनीति को अपनाते हुए आम आदमी पार्टी के खिलाफ जांच बिठाने का ऐलान किया है ताकि यह पता लगाया जा सके कि उसे विदेशी स्रोतों से धन मिलता है या नहीं और यदि मिलता है तो कहां से.

आम आदमी पार्टी का दामन बेदाग है, यह दावा तो उसके अलावा कोई भी नहीं कर सकता क्योंकि उसे ही अपने बारे में मालूम है. लेकिन केंद्रीय गृहमंत्री के इस बयान से वे लोग भी सकते में हैं जो आम आदमी पार्टी के तौर तरीकों से सहमत नहीं हैं और उसे समर्थन नहीं देते. चुनावी प्रक्रिया के शुरू हो जाने के बाद इस तरह की जांच कराना स्पष्ट रूप से राजनीतिक मंतव्यों से प्रेरित लगता है और बहुत संभव है कि निर्वाचन आयोग इसका संज्ञान ले.

इस संदर्भ में दिलचस्प बात यह है कि बीजेपी भी कांग्रेस के सुर में सुर मिलाकर बोल रही है. समाजवादी पार्टी ने भी इस जांच को अपना समर्थन दिया है. ये सभी पार्टियां यह भूल रही हैं कि आम आदमी पार्टी ने शुरू से ही राजनीतिक जीवन में पारदर्शिता के अपने आदर्श पर चलते हुए अपनी वेबसाइट पर लगातार अपनी आय का ब्यौरा दिया है, जबकि कांग्रेस या बीजेपी इस मामले में कतई पारदर्शिता नहीं बरतते. इस समय लागू कानूनों के अनुसार चुनाव में उम्मीदवार द्वारा खर्च किये जाने वाली धनराशि पर तो सीमा लगाई गयी है, लेकिन राजनीतिक पार्टी द्वारा किया जाने वाले खर्च पर किसी किस्म की सीमा नहीं है. यह भी एक हकीकत है कि सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करके प्राप्त की गई जानकारी के अनुसार राजनीतिक दलों की 75 प्रतिशत आय के स्रोत के बारे में कुछ भी पता नहीं है.

तस्वीर: AP

भूल चुके हैं पुराने उसूल

यह भी किसी से छिपा नहीं है कि अब कांग्रेस आजादी के पहले वाली कांग्रेस नहीं रही जो अपने हर सदस्य से प्रतिवर्ष चवन्नी शुल्क इकट्ठा करती थी और उससे ही अपना खर्च चलाने की कोशिश करती थी. ऐसा नहीं कि उस समय उसे घनश्यामदास बिड़ला या जमनालाल बजाज जैसे सेठों से सहायता नहीं मिलती थी, लेकिन जो कुछ भी उसे मिलता था उसे छिपाया नहीं जाता था. सभी जानते हैं कि भारत की राजनीतिक व्यवस्था में भारी चुनावी खर्च भ्रष्टाचार बढ़ने का सर्वप्रमुख कारण है. दूसरा कारण जनता और राजनीतिक दलों के बीच बढ़ने वाली दूरी है. आज के नेता राजनीतिक प्रक्रिया के दौरान आंदोलनों के बीच से उभर कर नहीं आते. अधिकांश अपनी पारिवारिक और सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के कारण विभिन्न पार्टियों में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हो जाते हैं.

ऐसे में पार्टी चलाने के लिए और चुनाव लड़ने के लिए काला धन लेना अनिवार्य हो जाता है. इसी कारण समय-समय पर चुनाव सुधारों की आवश्यकता की बात उठती है. एक वक्त पर बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी इस मुद्दे पर लेख लिखा करते थे. लेकिन अब लगभग सभी पार्टियां सिर्फ जुबानी जमाखर्च करके ही संतुष्ट हो जाती हैं. अरविन्द केजरीवाल ने अपनी पार्टी के खिलाफ जांच का स्वागत किया है लेकिन साथ ही यह मांग भी की है कि कांग्रेस और बीजेपी को मिलने वाले फंड की भी इसी तरह जांच की जाए. उनकी इस मांग से किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए, लेकिन कांग्रेस, बीजेपी और समाजवादी पार्टी इस पर चुप्पी साधे हुए हैं जिसे लोकतंत्र की भावना के अनुरूप नहीं कहा जा सकता.

ब्लॉगः कुलदीप कुमार

संपादनः मानसी गोपालकृष्णन

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