कई जगहों पर महिलाओं को आज भी माहवारी के दिनों में अपने घर की रसोई तक में जाने से रोका जाता है, लेकिन लखनऊ के एक मंदिर ने महिलाओं के लिए उनके मुश्किल दिनों में भी अपने दरवाजे खोल दिए हैं.
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भारत में माहवारी और महिलाओं की सेहत से जुड़े विषयों पर अब भी खुल कर बात नहीं होती. लेकिन अब धीरे धीरे जागरुकता बढ़ रही है. कई स्तरों पर हो रही सामाजिक पहलों के अलावा हाल में बनी एक बॉलीवुड फिल्म पैडमैन में भी इस बारे में खुलकर बात करने पर जोर दिया गया. फिल्म के प्रमोशन के दौरान इसके कलाकारों ने सोशल मीडिया पर #PadmanChallenge अभियान चलाया था. इसके तहत सिलेब्रिटीज को सैनिटरी पैड के साथ अपनी फोटो सोशल मीडिया पर डालनी थी ताकि पीरियड्स से जुड़ी शर्म और झिझक को दूर किया जा सके.
अब भी कई जगहों पर महिलाओं को माहवारी के दौरान अपवित्र माना जाता है. इसीलिए घर की रसोई तक में उनके आने पर रोक लगा दी जाती है. कई मंदिरों में भी उन्हें नहीं जाने दिया जाता. लेकिन लखनऊ के मनकामेश्वरमठ की महंत दिव्यागिरी ने पिछले दिनों मंदिर परिसर में पीरियडस को लेकर एक गोष्ठी कराई, जिसका विषय था 'माहवारी, शर्म नहीं सेहत की बात'.
पीरियड्स पर चुप्पी तोड़ो
पीरियड्स पर "चुप्पी तोड़ो"
भारत में माहवारी शब्द अब भी शर्म और चुप्पी की संस्कृति में लिपटा हुआ है. जब भी कहीं इसका जिक्र होता है तो धीमें, दबे और सांकेतिक शब्द एक फुसफुसाहट की भाषा का रूप ले लेते हैं. इस पर चुप्पी तोड़ने की जरूरत है.
तस्वीर: Archana Sharma
अंतरराष्ट्रीय दिवस
28 मई को "विश्व माहवारी स्वच्छता दिवस" के रूप में मनाया जाता है. इसका मुख्य उद्देश्य समाज में फैली मासिक धर्म संबंधी गलत भ्रांतियों को दूर करने के साथ साथ महिलाओं और किशोरियों को माहवारी के बारे में सही जानकारी देना है. महीने के वो पांच दिन आज भी शर्म और उपेक्षा का विषय बने हुए हैं. इस फुसफुसाहट को अब ऐसा मंच मिल रहा है जहां इसे बुलंद आवाज में बदला जा सके.
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चुप्पी तोड़ो बैठक
दिल्ली स्थित स्वयंसेवी संस्था गूंज भारत के कई गांवों में माहवारी पर "चुप्पी तोड़ो बैठक" कराती है. इनमें गांव की महिलाएं माहवारी से जुड़े अपने अनुभव साझा करती हैं. यहां उन्हें सैनिटरी पैड की अहमियत के बारे में जाता है. ये बैठक माहवारी से जुड़ी शर्म और चुप्पी को हटाने का एक जरिया है ताकि महिलाएं अपनी सेहत को माहवारी से जोड़ कर देख सकें और इस विषय पर नि:संकोच अपनी बात रख सकें.
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गीली कतरनें
राजस्थान की 25 साल की दुर्गा कहती हैं, "एक ही कपड़े को बार बार इस्तेमाल करना पड़ता है और माहवारी का एक एक दिन पहाड़ जैसा कटता है." इस्तेमाल की गई कपड़े की कतरनों को वे ठीक तरह धो भी नहीं पातीं और शर्म के कारण उन्हें कपड़ों के नीचे सूखने के लिए डाल देतीं हैं. कई बार कतरनें ठीक से नहीं सूखे पातीं और नमी भरा कपड़ा इस्तेमाल करना पड़ता है.
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डिग्निटी पैक्स
यह एनजीओ शहरों से प्राप्त कपड़ों से महिलाओं के लिए सूती कपड़े के सैनिटरी पैड बनाता है. इन्हें देश भर के गांवों में "माहवारी डिग्निटी पैक्स" के रूप में बांटा जाता है. एक किट में 10 कपड़े के बने सैनिटरी पैड के साथ–साथ महिलाओं के लिए अंडर-गारमेंट्स भी रखे जातें हैं. ये डिग्निटी पैक्स उन महिलाओं के लिए एक बड़ी राहत होते हैं, जिन्हें माहवारी के दौरान एक कपड़े का टुकड़ा भी नहीं मिल पाता.
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दयनीय हालात
गरीबी और अज्ञानता के चलते महिलाएं अपनी "मासिक जरूरत" को कभी मिट्टी, तो कभी घास या प्लास्टिक की पन्नी, पत्ते और गंदे कपड़ों से पूरा करती हैं. इसके चलते वे गंभीर बीमारियों का शिकार होती रहती हैं. माहवारी के दौरान हाथों-पैरों में सूजन और अत्यधिक रक्तस्राव होना बहुत सी महिलाओं के लिए आम बात है. संस्था महिलाओं के साथ माहवारी से जुड़ी ऐसी मुश्किलों पर संवाद करती है.
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माई पैड
शहरों में लोगों से घर के पुराने कपडे जमा किए जाते हैं, जैसे चादर, पर्दे, साड़ियां इत्यादि. इन्हें अच्छी तरह धो कर साफ किया जाता है और फिर पैड के आकार में काटा जाता है. हर पैड हाथ से बनता है. कोई कपड़े की कटाई का काम करता है, कोई इस्त्री का तो कोई सिलाई का. हर पैड एक जैसे आकार का बनता है. इस पहल को नेजेपीसी यानी नॉट जस्ट अ पीस ऑफ क्लोथ नाम दिया गया है.
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आगे बढ़ो
इसके अलावा माहवारी पर बातचीत को बढ़ावा देने के उद्देश्य से पूरे देश में "रेज़ योर हैंड" नाम की एक मुहिम भी चलाई गई है. यह मुहिम महिलाओं की गरिमा और माहवारी दोनों को एक समय में एक साथ संवाद में लाने की कोशिश है. इसी के तहत चुप्पी तोड़ो बैठक का आयोजन किया जाता है. इस तरह की बैठकों से समाज की मानसिकता को बदलने की कोशिश की जा रही है.
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महंत दिव्यागिरी कहती हैं, "दकियानूसी सोच ने पीरियड्स को लेकर भ्रांतियां पैदा कर दी हैं जबकि ये मुद्दा सीधे सेहत और स्वच्छता से जुड़ा हुआ हैं, इसलिए हमें बच्चियों को पीड़ा छिपाना नहीं बल्कि उन्हें हाइजीन का ख्याल रखना सिखाना चाहिए." दिव्यागिरी कहती हैं कि पीरियड्स के दिनों में आराम करने की सलाह दी जाती है. शायद इसी सलाह को मंदिर में आने पर प्रतिबंध के रूप में ले लिया गया, जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए.
भारत में अब भी पीरियड्स के साथ कहीं न कहीं एक शर्म जुड़ी है और इसीलिए महिलाओं के सैनेटरी पैड्स को काली पॉलिथीन में छुपा बेचा जाता है. ऐसे में, कई संस्थाएं अब खुले आम सैनिटरी पैड्स की बिक्री पर जोर दे रही हैं, ताकि शर्म की दीवार को तोड़ा जा सके. नेशनल हेल्थ मिशन के महाप्रबंधक डॉ. हरिओम दीक्षित कहते हैं कि पीरियड्स सिर्फ महिलाओं और किशोरियों का मुद्दा नहीं हैं बल्कि इस मुद्दे पर पुरुषों की भी भागीदारी होनी चाहिए.
चौथे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार उत्तर प्रदेश में 15-24 वर्ष की आयु वाली 81 प्रतिशत युवतियां माहवारी के दिनों में कपड़े का ही इस्तेमाल करती हैं. वहीं राष्ट्रीय स्तर पर यह आंकड़ा 62 प्रतिशत के आसपास है. भारत में सिर्फ 42 प्रतिशत युवतियां ही पीरियड्स के दौरान सैनिटरी पैड्स इस्तेमाल करती हैं.
जानिए पीरियड्स से जुड़ी गलतफहमियां
वहीं ग्रामीण इलाकों में रहने वाली ज्यादातर महिलाएं इन दिनों मे कोई सैनिटरी नेपकिन इस्तेमाल नहीं करतीं. कई बार वे आर्थिक कारणों से इन पैड्स को नहीं खरीद पाती हैं, तो कइयों को यह उपलब्ध नहीं होते हैं. पीरियड्स के दौरान साफ-सफाई बहुत जरूरी है, वरना कई तरह की बामारियां हो सकती हैं. इनमें बुखार, अनियमित पीरियड्स, खून ज्यादा आने के साथ गर्भधारण में दिक्कतें शामिल हैं.
यूनिसेफ का एक अध्ययन बताता है कि 28 प्रतिशत लड़कियां पीरियड्स के दिनों में स्कूल नहीं जातीं. इसीलिए केरल, छत्तीसगढ़ और ओडिशा जैसे राज्यों ने सरकारी स्कूलों में फ्री सैनिटरी नेपकिन देने की शुरुआत की है, ताकि पीरियडस के कारण लड़कियों की पढ़ाई का नुकसान न हो. कई संस्थाएं भी महिलाओं को पैड मुहैया कराने के प्रयासों में जुटी हैं. ब्रिजरानी मेमोरियल चैरिटेबल ट्रस्ट नाम की संस्था देश भर में एक हजार बैड बैंक बनाना चाहती है. इन पैड बैंकों में उन महिलाओं को पैड मुहैया कराए जाएंगे जो इन्हें नहीं खरीद पातीं.
लखनऊ विश्वविद्यालय में हाल में एक कार्यक्रम में मेयर संयुक्ता भाटिया ने एक पैड बैंक का उद्घाटन किया. मेयर का कहना है कि महिलाओं के लिए 45 पिंक टॉयलेट बनाने की योजना को लागू करने के प्रयास जारी हैं और उनकी कोशिश होगी कि ये शौचालय पैड बैंकों के करीब हों.मनकामेश्वरमठ की महंत दिव्यागिरी कहती हैं कि माहवारी को लेकर किसी तरह की शर्मिंदगी नहीं होनी चाहिए. मंदिर में पहली बार माहवारी विषय पर सेमिनार करा कर उन्होंने साबित किया है कि रास्ता भले ही लंबा हो लेकिन शुरुआत हो चुकी है. वह कहती हैं कि माहवारी के दिनों को छुपाने की नहीं, बल्कि इस पर खुल कर बात करने की जरूरत है.
पीरियड्स पर 5 जरूरी बातें
पीरियड्स पर 5 जरूरी बातें
28 मई को मेन्स्ट्रुअल हायजीन डे है. थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन के विशेषज्ञ बता रहे हैं पीरियड्स से जुड़ीं कुछ जरूरी बातें...
तस्वीर: picture alliance/D. Ebener
शौचालय क्यों जरूरी है?
रोजाना पूरी दुनिया में 15 से 49 साल की 80 करोड़ महिलाएं पीरियड्स में होती हैं. वॉटरएड दुनिया की सवा अरब औरतों को पीरियड्स के दौरान शौचालय की सुविधा नहीं होती. यूएन का अनुमान है कि इस वजह से हर 10 में से एक लड़की पीरियड के दौरान स्कूल नहीं जाती. धीरे-धीरे उसका स्कूल छूट जाता है.
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पीरियड्स पर बात क्यों नहीं होती?
पीरियड्स के लिए दुनियाभर में 5000 से ज्यादा सांकेतिक शब्दों का इस्तेमाल होता है क्योंकि सीधे-सीधे इसका नाम लेने में शर्म आती है. नेपाल जैसे देशों में आज भी चौपदी परंपराएं मानी जाती हैं जब पीरियड्स के दौरान महिलाएं खुद को परिवार से अलग कर लेती हैं. ईरान में 50 फीसदी और भारत में 10 फीसदी लड़कियां मानती हैं कि पीरियड्स बीमारी हैं.
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नजरअंदाज क्यों करते हैं?
एक स्वस्थ, प्रोडक्टिव और सम्मानजनक जीवन के लिए महिलाओं को पीरियड्स के दौरान पानी, साबुन, शौचालय और सैनिटरी पैड जैसी चीजें जरूर मिलनी चाहिए. वे अपने जीवन के 6-7 साल पीरियड्स में गुजारती हैं. यह उनकी जिंदगी का अहम हिस्सा है. फिर भी उन्हें मूलभूत सुविधाएं तक नहीं मिल पातीं.
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क्या असर?
पीरियड्स पर बात न हो पाने का असर ही है कि इसका नाम लेने तक में शर्म आती है. इसे बीमारी समझ जाता है. महिलाओं को परिवार से अलग तक कर दिया जाता है.
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क्या कहती है आयशा?
घाना की रहने वाली हाई स्कूल की छात्रा आयशा कहती है कि पीरियड्स के दौरान अगर स्कर्ट पर खून का धब्बा लग जाए तो लड़के हमें बेशर्म कहते हैं और शर्मिंदा करते हैं. हमें खुद को खराब लगता है कि लड़कों ने हमारे कपड़ों पर खून देख लिया. हमारे लिए तब उनके सामने जाना तक मुश्किल हो जाता है.