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समाज

मजदूरों को देखिए और चुनाव का समय याद कीजिए

ओंकार सिंह जनौटी
१५ मई २०२०

भारत में चुनावों के दौरान रैलियों और रोड शो के लिए सैकड़ों बसें अरेंज की जाती हैं. हजारों लोगों को टोपी और खाना दिया जाता है. ऐसी राजनीति वाले देश में हजारों मजदूर बेबस होकर पैदल घर लौट रहे हैं. उनकी कोई सुनने वाला नहीं.

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तस्वीर: Reuters/A. Dave

मई 2019 के लोकसभा चुनावों में ऐसे कई रोड शो और रैलियां हुईं, जिनमें भीड़ दिखाने के लिए तमाम कोनों से लोगों को भर भर कर लाया गया. बसों का रेला खड़ा हो गया. हाथ, कमल, साइकिल, हाथी ये सब फूड पैकेटों, टोपियों, बैचों और टीशर्टों में दिखने लगे.

आज एक साल बाद, सड़कें सूनी हैं. प्रचार के लिए सब कुछ का इंतजाम करने वाले चेहरे, शायद अगले चुनावों के मुद्दे खोजने में व्यस्त हैं. ज्यादातर वोटर घरों में बंद हैं. लेकिन रैलियों के लिए पताकाएं लगाने वालों, स्टेज बनाने वालों समेत हजारों लोग उन सड़कों पर हैं.

देश के तमाम राज्यों में बीते कुछ हफ्तों से राष्ट्रीय राजमार्गों पर गाड़ियाँ कम और लुटे पिटे दिखते इंसान ज्यादा चल रहे हैं. मई के सूरज ने सड़कों को तपा दिया है. उन पर चलते कई मजदूरों की चप्पलें टूट चुकी हैं. उनकी बनाई हुई सड़कें ही आज उनके पैरों को छील रही हैं और जला भी रही हैं. किसी के कंधे पर बच्चा है तो किसी झुकी कमर पर भारी गठरी. ऐसे बहुत सारे दृश्य हैं जिनमें पत्नी डगमागाते हुए पीछे चल रही है. कहीं सूटकेस पर निढाल बच्चा सरक रहा है.

बीच बीच में जब कोई जरा सी मदद करता है या कुछ पूछता है तो मजदूर फफक कर रो पड़ते हैं. अपनी दास्तान सुनाने लगते हैं. हजारों की संख्या में मजदूरों का ऐसा पैदल काफिला भारत के तमाम राष्ट्रीय राजमार्गों पर दिख रहा है. वे किसी तरह अपने गांव वापस पहुंचना चाहते हैं.

प्रवासी मजदूर परिवारों का दर्द उनके चेहरों पर झलक रहा हैतस्वीर: Reuters/R. De Chowdhuri

24 मार्च से लागू लॉकडाउन के चलते उन्हें रोजी रोटी के लाले पड़ गए. केंद्र और राज्य सरकारों के तमाम दावों के के बावजूद ज्यादातर मजदूरों तक न तो राशन पहुंचा, ना पैसा. उनके सामने दो विकल्प रह गए, मदद की आस में शहरों में भूख झेलते रहना या जैसे भी हो गांव लौट जाना. परिवहन के साधन बंद होने के कारण वे पैदल ही निकल गए.

कई शहरों से उन्हें डंडे के दम पर बाहर नहीं निकलने दिया जा रहा है. राजनीतिक दल उनकी आड़ में एक दूसरे को नीचा दिखाने में तुले दिख रहे हैं. चुनाव रैलियों से हफ्ते भर के भीतर सैकड़ों बसों, ट्रकों और लाखों फूड पैकेटों का इंतज़ाम करने वाले पार्टी पदाधिकारी इस वक्त सोशल मीडिया पर इस त्रासदी का फायदा कैसे उठाया जाए, शायद ये रणनीति बना रहे हैं.

कई जगहों से मजदूरों की मदद करने वाले लोगों की रिपोर्टें आ रही हैं तो कुछ जगहों से मजबूर मजदूरों से 10 गुना किराया वसूलने की खबरें. अनुमानों के मुताबिक भारत में दिहाड़ी मजदूरों की संख्या 4 करोड़ से 12 करोड़ के बीच है. इनमें से कितने सड़क के रास्ते एक अंतहीन से दिखते सफर पर निकले हैं, इसकी सटीक जानकारी नहीं है.

कहीं रेल की पटरियों पर उनकी रोटियां बिखरी हैं तो कहीं सड़क किनारे खून से बिखरी फटी कमीज. जिन लोगों को स्वाभिमान ने भीख मांगने के बजाए कड़ी मेहनत करना सिखाया आज वो अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति का उदाहरण देते हुए पैदल गांव की तरफ लौट रहे हैं. शहर की लेबर गांव पहुंच पाएगी या नहीं, ये बात गारंटी से कोई नहीं कह सकता.

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