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सुप्रीम कोर्ट ने उठाया मणिपुर में सेना का मामला

प्रभाकर१५ जनवरी २०१६

सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर में 35 साल से लगे सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून पर सवाल उठाया है और पूछा है कि क्या यह अनंतकाल तक लागू रहेगा. इसी कानून के विरोध में मानवाधिकार कार्यकर्ता ईरोम शर्मिला 15 साल से भूख हड़ताल पर हैं.

Irom Sharmila NESO Indien
तस्वीर: picture-alliance/dpa

भारत की सर्वोच्च अदालत ने इन आरोपों की जांच के लिए एक उच्च-स्तरीय समिति का गठन किया था कि सुरक्षा बलों ने बीते 30 वर्षों के दौरान राज्य में 1500 से ज्यादा लोगों को बिना किसी वजह के इस कानून की आड़ में मार डाला है. ऐसे मामलों में पुलिस ने भी प्राथमिकी दर्ज करने से इंकार कर दिया है.

वर्ष 1958 में पूर्वोत्तर में नगा आंदोलन के सिर उठाने पर केंद्र सरकार ने इस पर अंकुश लगाने के लिए अंग्रेजों के जमाने के एक कानून का इस्तेमाल किया जिसे सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून कहा जाता है. यह कानून ऐसा है कि सेना के किसी नॉन कमीशंड अधिकारी को भी सिर्फ शक के आधार पर किसी को भी गिरफ्तार या टॉर्चर करने या अनिश्चितकाल तक हिरासत में रखने की छूट मिल जाती है. इस कानून की आड़ में बिना सर्च वारंट के किसी के घर की तलाशी ली जा सकती है. इसमें यह भी प्रावधान है कि केंद्र सरकार की मंजूरी के बगैर किसी भी अधिकारी या जवान को सजा नहीं दी जा सकती. बीतते समय के साथ मणिपुर के अलग-अलग जिले इस कानून के तहत लाए गए और 1980 तक इसे पूरे मणिपुर में लागू कर दिया गया.

मणिपुर में भूकंप के बाद मदद करते सैनिकतस्वीर: picture alliance/AP Photo/B. Raj

अब अदालत ने पूछा है कि क्या बीते 35 वर्षों से राज्य में सेना की मौजूदगी से कानून व व्यवस्था की हालत में कुछ सुधार आया है? सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ ने मणिपुर सरकार से कहा है कि यह अधिनियम अस्थायी उपाय के तौर पर लागू किया गया था, लेकिन यह 35 वर्षों से लागू है. लेकिन राज्य सरकार के वकील की दलील है कि राज्य में कानून व व्यवस्था बहाल रखने के लिए यह कानून अब भी जरूरी है. सरकार का कहना है कि 35 साल पहले जब यह कानून लागू किया गया था तब राज्य में चार प्रमुख उग्रवादी गुट थे, लेकिन अब उनकी तादाद बढ़ कर एक दर्जन से ज्यादा हो चुकी है. हालांकि सरकार ने भी माना है कि इस कानून की आड़ में होने वाली कथित ज्यादातियों के मामले में राज्य में ज्यादा पुलिस रिपोर्ट दर्ज नहीं हुई है. अदालत ने हैरत जताते हुए कहा है कि जब इतने लंबे अरसे से सुरक्षा बलों और सेना की मौजूदगी के बावजूद हालात में कोई सुधार नहीं आया है तो इस कानून की जरूरत क्या है.

दरअसल, सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जो दलील दी है वह काफी हद तक सही है. लंबे अरसे से सेना की मौजूदगी ने पुलिस बल को नाकारा बना दिया है. राज्य में पुलिस बल के प्रशिक्षण और आधुनिकीकरण की दिशा में भी अब तक कोई ठोस पहल नहीं हुई है. नतीजतन कानून व व्यवस्था सेना या कहें तो असम राइफल्स के ही जिम्मे है. पुलिस के एक बड़े अधिकारी कहते हैं, ‘हम हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहने के अलावा कुछ खास नहीं कर सकते. हमारे पास न तो पर्याप्त जवान हैं और न ही आधुनिक हथियार व गोला-बारूद. पुलिस के जवान भी हमेशा तनाव में रहते हैं.' उक्त अधिकारी मानते हैं कि राज्य के तमाम पुलिस स्टेशनों में सुधार की जरूरत है. वह कहते हैं, ‘फिलहाल राज्य के हर थाने में सिर्फ 10-15 लोग हैं जबकि हर पुलिस स्टेशन में यह आंकड़ा कम से कम 58 का होना चाहिए. हमें और जवानों व अत्याधुनिक हथियारों की जरूरत है.'

सन 2000 से ईरोम शर्मिला की भूख हड़तालतस्वीर: picture-alliance/dpa

सुरक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि राज्य में कोई साढ़े तीन दशकों से सेना की तैनाती ने पुलिस व्यवस्था को लगभग पंगु बना दिया है. चुनावों के समय लगभग हर राजनीतिक दल मणिपुर से इस अधिनियम को हटाने का भरोसा देता है. लेकिन सत्ता में आने के बाद वे कानून व व्वस्था की आड़ में सेना को बनाए रखने की दलील देने लगते हैं. पुलिस के मुकाबले उग्रवादियों के पास आधुनिकतम हथियारों का जखीरा होता है. इसलिए अपनी जान के डर से पुलिस वाले हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने पर मजबूर हैं. पर्यवेक्षकों का कहना है कि उग्रवाद के खात्मे के नाम पर केंद्र से मिलने वाली सरकारी सहायता की रकम पुलिस बल के आधुनिकीकरण पर खर्च करने की बजाय तमाम सत्तारुढ़ दल अपनी झोली भरते रहे हैं. राजनेताओं से लेकर पुलिस अधिकारियों तक में यह बात घर कर गई है कि सेना के बिना राज्य में हालात काबू में नहीं रहेंगे. इस मानसिकता के साथ फिलहाल तो राज्य की स्थिति में कोई सुधार होता नजर नहीं आता. इस मामले में शायद अदालत भी कुछ खास नहीं कर सकती. ऐसे में मणिपुर के आम लोग उग्रवादियों और विशेषाधिकारों से लैस सेना के जवानों की दोहरी चक्की के तले पिसने पर मजबूर ही रहेंगे.

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