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मदद में जान का खतरा

१ अगस्त २०१३

किसी जमाने में रेड क्रॉस और इस तरह के संगठनों के लोग खुद को महफूज समझते थे और किसी भी युद्धस्थल पर जाकर लोगों की मदद करते थे. लेकिन बदलते वक्त के साथ स्थितियां भी बदल रही हैं और उन्हें खास ट्रेनिंग लेनी पड़ रही है.

तस्वीर: Reuters

बड़े से एसयूवी में पांच सैनिक बैठे हैं, जिनमें से एक चिल्लाता है, "गो.. गो..." पास ही एक विस्फोट होता है, जिसके बाद धुएं का गुबार उठता दिखता है. यह बिलकुल असली दृश्य की तरह लगता है. लेकिन यह युद्ध का कोई मैदान नहीं, बल्कि स्विट्जरलैंड के जेनेवा शहर से कुछ ही दूर पर बनी जगह है. इस देश को दुनिया के सबसे सुरक्षित देश के तौर पर जाना जाता है.

अंतरराष्ट्रीय रेड क्रॉस ने कोई 15 साल पहले अल्पेसिया नाम की इस जगह को तैयार किया, जो जेनेवा के पास के जंगलों में है. यहां राहतकर्मियों को दुनिया के नए खतरों के बारे में आगाह कराया जाता है और इसके लिए उनकी बाकायदा ट्रेनिंग होती है.

25 से 35 साल के बीच के लगभग 200 लोगों को यहां ट्रेनिंग दी जा रही है, जिन्हें सशस्त्र बलों के साथ राहत के काम पर जाने से पहले यह सब सीखना पड़ता है. उन्हें सशस्त्र हमले, अपहरण और अस्पताल में बमबारी जैसी स्थितियों से निपटने की तैयारी करनी पड़ती है.

तस्वीर: picture-alliance/Ton Koene

स्विट्जरलैंड के जंगलों में उन्हें वह स्वाद चखना पड़ता है, जिससे युद्ध के मैदान में उनका सामना हो सकता है, सैनिक चौकियां, शरणार्थी शिविर और अस्पताल को उड़ाने जाते आतंकवादियों का जत्था. पूरी ट्रेनिंग सिर्फ आठ दिन में पूरी करनी पड़ती है.

युद्ध जैसे हालात

रेड क्रॉस के प्रतिनिधियों में से पांच लोगों की टीम तैयार की जाती है और उन्हें शरणार्थी शिविर की तरफ भेजा जाता है. लेकिन इससे पहले ही उन्हें एक सैनिक चौकी पर रोक लिया जाता है. कुछ राहतकर्मियों को उनकी टीम से अलग कर दिया जाता है. एक सैनिक असली (लेकिन बिना गोलियों वाली) राइफल के साथ उन पर नजर रखता है. अब यह राहतकर्मी पर निर्भर करता है कि वह इस स्थिति से कैसे निपटता है. वह अपनी बात रख सकता है और खुद को सहज और शांत दिखा सकता है. उसे अपने बोले गए हर शब्द के बारे में बार बार सोचना चाहिए.

रेड क्रॉस के प्रवक्ता फिलिपे मार्क स्टोल बताते हैं, "अगर कभी नकली सैनिक किसी प्रतिनिधि के व्यवहार से संतुष्ट नहीं होता है, तो उसे काफी परेशान करता है"

यहां की ट्रेनिंग में हिस्सा लेने आए इटली के गाइया पालेची का कहना है कि "ऐसी ट्रेनिंग से असली स्थिति का अंदाजा मिलता है." 29 साल के पालेची को बोगोटा भेजा जा रहा है.

सुरक्षित नहीं राहतकर्मी

हालांकि इतनी ट्रेनिंग के बावजूद भी असली खतरे से पूरी तरह सुरक्षित होना संभव नहीं है. रेड क्रॉस के लिए पिछले कुछ साल बेहद खराब रहे. सीरिया में 2011 में संघर्ष शुरू होने के बाद से संस्था के 20 प्रतिनिधियों की जान चली गई. ऐसी ही हालत दूसरी मदद करने वाली संस्थाओं की भी है. संयुक्त राष्ट्र के पास मौजूद आंकड़ों के मुताबिक 2011 में रिकॉर्ड 308 राहत और सहायता कर्मियों की मौत हुई. ज्यादातर नुकसान पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सोमालिया, दक्षिणी सूडान और सूडान में हुआ.

तस्वीर: DW/Shant Shahrigian

पिछले साल से अपहरण की घटनाएं भी तेजी से बढ़ रही हैं. 2012 में 87 ऐसे लोगों को अगवा किया गया, जो 2002 में सिर्फ 24 थे. संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी यूएनएचसीआर के सुरक्षा प्रमुख अमीन अवद ने बताया, "अगर आप 10, 20 साल पहले की स्थिति देखें, तो पाएंगे कि हम भी संघर्ष में फंस रहे हैं. पहले यह सिर्फ हादसा होता था, अब हमें निशाना बनाया जाता है."

खराब होता माहौल

यूएनएचसीआर के उन कर्मियों को भी ट्रेनिंग करनी पड़ती है, जिन्हें संघर्ष की जगहों पर काम करना है. उन्हें बंधक संकट, अपहरण और दूसरे तनाव भरे पलों से गुजरना पड़ता है. अवद कहते हैं, "मानवीय क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है. हम जिस माहौल में काम कर रहे हैं, वह बेहद असुरक्षित होता जा रहा है और हमारे कर्मचारियों को खराब से खराब स्थिति के लिए तैयार रहना पड़ता है."

संयुक्त राष्ट्र हर किसी को बुनियादी ट्रेनिंग मुहैया कराता है और पिछले पांच साल से उन्हें संकट वाले क्षेत्रों के लिए खास ट्रेनिंग भी दी जा रही है. संस्था के येन्स लेरके का कहना है, "ट्रेनिंग को पिछले चार पांच साल में ज्यादा पेशेवर बनाया गया है लेकिन इस पर अभी भी काम जारी है."

उनके मुताबिक इन प्रतिनिधियों को उनकी लोकप्रियता की कीमत चुकानी पड़ती है क्योंकि 10 साल पहले के मुकाबले अब दस गुना ज्यादा राहतकर्मी काम करने लगे हैं, "अब बहुत ज्यादा संस्थाएं आ गई हैं, ज्यादा लोग आ गए हैं और बहुत ज्यादा जगहें तैयार हो गई हैं. इसलिए जाहिर है कि ऐसी घटनाएं भी ज्यादा होने लगी हैं."

एजेए/एनआर (एएफपी)

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