महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग के लिए तैयार एक रिपोर्ट के अनुसार मराठा किसानों की हालत के लिए सिर्फ बैंक और साहूकार ही नहीं, बल्कि केंद्र और राज्य सरकारें भी जिम्मेदार हैं.
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मराठा किसानों की बदतर स्थिति पर आए दिन कोई न कोई खबर आती रहती है. अब एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार किसानों की दुर्गति के लिए केंद्र, राज्य, बैंक और साहूकार सामूहिक रूप से जिम्मेदार हैं. महाराष्ट्र में मराठा समुदाय को राजनीतिक रूप से मजबूत माना जाता है लेकिन यह आधा ही सच है. इसी मराठा समुदाय के हजारों किसानों ने आर्थिक तंगी के चलते आत्महत्या की है. इन आत्महत्याओं की वजह से इनके परिवार ना केवल आर्थिक रूप से और कमजोर हुए हैं, बल्कि बिखर भी गए हैं.
ऐसा माना जाता है कि राज्य में आत्महत्या करने वाले किसानों में अधिकांश किसान मराठा समुदाय से आते हैं. वैसे, यह एक धारणा ही है क्योंकि जातिगत आधार पर ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है. मराठा किसानों की स्थिति के संबंध में भूमाता चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा किए गए सर्वे में समुदाय के किसनों की चिंताजनक तस्वीर सामने आई है.
सर्वे के नतीजे
महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग को सौंपी गई सर्वे रिपोर्ट में मराठा किसानों की दयनीय स्थिति के लिए राज्य और केंद्र सरकारों की भूमिका पर सवाल उठाया गया है. भूमाता चैरिटेबल ट्रस्ट फिलहाल सर्वे के बारे में कुछ कहना नहीं चाहता क्योंकि इस सर्वे को विधानसभा में पेश किया जाना है. सर्वे के नतीजों के बारे में जो रिपोर्ट मीडिया में आई है उसके अनुसार केंद्र सरकार द्वारा बढ़ाई गई सब्सिडी को राज्य सरकार ने कम कर दिया.
इसी तरह से राज्य सरकार द्वारा तय न्यूनतम समर्थन मूल्य को केंद्र सरकार द्वारा कम कर दिया गया, जो किसानों के कर्ज के जाल में फंसने का कारण बनता है. पिछले दो दशक में बैंकों द्वारा कृषि क्षेत्र में लागत मूल्य का मात्र 50 प्रतिशत ही कर्ज उपलब्ध करवाया गया है. मजबूरी में किसानों को कर्ज के लिए साहूकारों के पास जाना पड़ता है. मजबूरी का फायदा उठाते हुए ये साहूकार 24 से 60 फीसदी सालाना की दर से ब्याज वसूलते हैं. कई अध्ययन में सामने आया है कि ऐसे ही कर्ज आगे चल कर किसानों की आत्महत्या का कारण बनते हैं.
कर्ज का दुष्चक्र
अपनी फसल से दो जून की रोटी कमाने के लिए किसानों को छोटे निवेश की जरूरत होती है लेकिन कृषि प्रधान देश होने के बावजूद किसानों की आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए तंत्र विकसित नहीं हो पाया है. खेती किसानी छोड़कर अब नौकरी करने वाले दीपक भाऊ कहते हैं कि कुआं खुदवाने से लेकर बीज और खाद के लिए पैसे भी नहीं होते.
इन छोटी छोटी जरूरतों के लिए साहूकार से ही मदद मिलती है. उनका कहना है, "फसल बर्बाद होने पर कर्ज का बोझ संभाल पाना मुश्किल होता है." छोटे किसानों के लिए बैंकों से बार बार लोन ले पाना टेढ़ी खीर साबित होता है, तो मझोले किसानों को भी इतना लोन नहीं मिल पाता कि उनका काम हो सके. सरकार के अनुसार देश में 52 प्रतिशत कृषक परिवारों के कर्जदार होने का अनुमान है और प्रति कृषि परिवार पर बकाया औसत कर्ज 47,000 रुपये है.
ये हैं भारतीय किसानों की मूल समस्याएं
ये हैं भारतीय किसानों की मूल समस्याएं
भारत की पहचान एक कृषि प्रधान देश के रूप में रही है लेकिन देश के बहुत से किसान बेहाल हैं. इसी के चलते पिछले कुछ समय में देश में कई बार किसान आंदोलनों ने जोर पकड़ा है. एक नजर किसानों की मूल समस्याओं पर.
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भूमि पर अधिकार
देश में कृषि भूमि के मालिकाना हक को लेकर विवाद सबसे बड़ा है. असमान भूमि वितरण के खिलाफ किसान कई बार आवाज उठाते रहे हैं. जमीनों का एक बड़ा हिस्सा बड़े किसानों, महाजनों और साहूकारों के पास है जिस पर छोटे किसान काम करते हैं. ऐसे में अगर फसल अच्छी नहीं होती तो छोटे किसान कर्ज में डूब जाते हैं.
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फसल पर सही मूल्य
किसानों की एक बड़ी समस्या यह भी है कि उन्हें फसल पर सही मूल्य नहीं मिलता. वहीं किसानों को अपना माल बेचने के तमाम कागजी कार्यवाही भी पूरी करनी पड़ती है. मसलन कोई किसान सरकारी केंद्र पर किसी उत्पाद को बेचना चाहे तो उसे गांव के अधिकारी से एक कागज चाहिए होगा.ऐसे में कई बार कम पढ़े-लिखे किसान औने-पौने दामों पर अपना माल बेचने के लिए मजबूर हो जाते हैं.
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अच्छे बीज
अच्छी फसल के लिए अच्छे बीजों का होना बेहद जरूरी है. लेकिन सही वितरण तंत्र न होने के चलते छोटे किसानों की पहुंच में ये महंगे और अच्छे बीज नहीं होते हैं. इसके चलते इन्हें कोई लाभ नहीं मिलता और फसल की गुणवत्ता प्रभावित होती है.
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सिंचाई व्यवस्था
भारत में मॉनसून की सटीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती. इसके बावजूद देश के तमाम हिस्सों में सिंचाई व्यवस्था की उन्नत तकनीकों का प्रसार नहीं हो सका है. उदाहरण के लिए पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्र में सिंचाई के अच्छे इंतजाम है लेकिन देश का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जहां कृषि, मॉनसून पर निर्भर है. इसके इतर भूमिगत जल के गिरते स्तर ने भी लोगों की समस्याओं में इजाफा किया है.
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मिट्टी का क्षरण
तमाम मानवीय कारणों से इतर कुछ प्राकृतिक कारण भी किसानों और कृषि क्षेत्र की परेशानी को बढ़ा देते हैं. दरअसल उपजाऊ जमीन के बड़े इलाकों पर हवा और पानी के चलते मिट्टी का क्षरण होता है. इसके चलते मिट्टी अपनी मूल क्षमता को खो देती है और इसका असर फसल पर पड़ता है.
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मशीनीकरण का अभाव
कृषि क्षेत्र में अब मशीनों का प्रयोग होने लगा है लेकिन अब भी कुछ इलाके ऐसे हैं जहां एक बड़ा काम अब भी किसान स्वयं करते हैं. वे कृषि में पारंपरिक तरीकों का इस्तेमाल करते हैं. खासकर ऐसे मामले छोटे और सीमांत किसानों के साथ अधिक देखने को मिलते हैं. इसका असर भी कृषि उत्पादों की गुणवत्ता और लागत पर साफ नजर आता है.
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भंडारण सुविधाओं का अभाव
भारत के ग्रामीण इलाकों में अच्छे भंडारण की सुविधाओं की कमी है. ऐसे में किसानों पर जल्द से जल्द फसल का सौदा करने का दबाव होता है और कई बार किसान औने-पौने दामों में फसल का सौदा कर लेते हैं. भंडारण सुविधाओं को लेकर न्यायालय ने भी कई बार केंद्र और राज्य सरकारों को फटकार भी लगाई है लेकिन जमीनी हालात अब तक बहुत नहीं बदले हैं.
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परिवहन भी एक बाधा
भारतीय कृषि की तरक्की में एक बड़ी बाधा अच्छी परिवहन व्यवस्था की कमी भी है. आज भी देश के कई गांव और केंद्र ऐसे हैं जो बाजारों और शहरों से नहीं जुड़े हैं. वहीं कुछ सड़कों पर मौसम का भी खासा प्रभाव पड़ता है. ऐसे में, किसान स्थानीय बाजारों में ही कम मूल्य पर सामान बेच देते हैं. कृषि क्षेत्र को इस समस्या से उबारने के लिए बड़ी धनराशि के साथ-साथ मजबूत राजनीतिक प्रतिबद्धता भी चाहिए.
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पूंजी की कमी
सभी क्षेत्रों की तरह कृषि को भी पनपने के लिए पूंजी की आवश्यकता है. तकनीकी विस्तार ने पूंजी की इस आवश्यकता को और बढ़ा दिया है. लेकिन इस क्षेत्र में पूंजी की कमी बनी हुई है. छोटे किसान महाजनों, व्यापारियों से ऊंची दरों पर कर्ज लेते हैं. लेकिन पिछले कुछ सालों में किसानों ने बैंकों से भी कर्ज लेना शुरू किया है. लेेकिन हालात बहुत नहीं बदले हैं.
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आत्महत्या जारी है
मराठा किसान ही नहीं, बल्कि इस पेशे से जुड़े सभी समुदाय के अधिकांश किसान आर्थिक रूप से कमजोर होते जा रहे हैं. सरकारी आश्वासनों के बावजूद किसानों का असंतोष खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है. कभी ओला कभी सूखा से परेशान राज्य में किसानों की आत्महत्या जारी है.
सितंबर में विभिन्न कारणों के चलते राज्य में 235 किसानों ने आत्महत्या की. राहत और पुनर्वास मंत्री चंद्रकांत पाटिल ने पिछले दिनों विधानसभा में कहा कि नासिक जिले में जनवरी से सितंबर 2018 के बीच 73 किसान आत्महत्या के मामले सामने आए, जबकि मराठवाड़ा में जनवरी और सितंबर 2018 के बीच 674 किसानों ने आत्महत्या की. राज्य के राहत और पुनर्वास विभाग के आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले 4 वर्षों में 11 हजार से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है.
राज्य में इस बार फिर सूखे की आशंका है, जिसके चलते किसान आत्महत्या के मामले बढ़ सकते हैं. खासतौर पर मराठवाड़ा और विदर्भ के किसानों की मुसीबतों को देखते हुए राजनीतिक दल भी सक्रिय हो गए हैं. सरकार और विपक्ष, दोनों ही, किसानों को तत्काल राहत देने की वकालत कर रहे हैं.
विधानपरिषद में विपक्ष के नेता धनंजय मुंडे ने तत्काल राहत उपायों की आवश्यकता जताई है. उनकी मांग है कि सरकार फसल नुकसान के लिए 50 हजार रुपये प्रति हेक्टेयर का मुआवजा प्रदान करे और बागानों के लिए किसानों को एक लाख रूपये प्रति हेक्टेयर मिलना चाहिए. सरकार में मंत्री चंद्रकांत पाटिल का कहना है कि सरकार ने सूखा राहत के आठ उपायों पर काम लगभग पूरा कर लिया है और बाकी बचे कामों को भी जल्द ही पूरा कर लिया जाएगा.
लीची वाले बिहार में अब स्ट्रॉबेरी की मिठास
लीची वाले बिहार में अब स्ट्रॉबेरी की मिठास
लीची और आम के लिए विख्यात बिहार अब स्ट्रॉबेरी भी उगा रहा है. ठंडे इलाकों में उगने वाले इस फल के बिहार जैसे वातावरण में उगने की कल्पना नहीं की थी लेकिन वैज्ञानिकों की कोशिश और किसानों के हौसले ने इसे मुमकिन कर दिखाया है.
तस्वीर: Bihar Agriculture University
बिहार में स्ट्रॉबेरी
भारत में हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र और कुछ दूसरे ठंडे इलाकों में स्ट्रॉबेरी की खेती हो रही थी. बिहार के किसानों और कृषि विश्वविद्यालय सबौर के वैज्ञानिकों ने इसे अपने इलाके उगा लिया है. यहां नवंबर से फरवरी तक का मौसम ठंडा रहता है और इसी मौसम में स्ट्रॉबेरी उगाई जा रही है.
तस्वीर: Bihar Agriculture University
अक्टूबर में शुरुआत
अक्टूबर में इसके लिए पौधे लगाने के साथ काम शुरू होता है. दिसंबर तक पौधे तैयार होते हैं और फिर उनमें फूल आने शुरू हो जाते हैं. इसके बाद के दो तीन महीनों में इनसे फल निकलते हैं. गर्मी आने के साथ ही पौधे सूख जाते हैं इसलिए हर साल नए पौधे लगाने पड़ते हैं.
तस्वीर: Bihar Agriculture University
हर साल नए पौधे
यूरोपीय देशों और दूसरे ठंडे इलाकों या फिर ग्रीनहाउस में हो रही खेती का यही लाभ है कि यहां हर साल नए पौधे लगाने की जरूरत नहीं होती. एक बार पौधा लगाइए तो कई कई साल तक स्ट्रॉबेरी पैदा होती रहती है. जर्मनी में स्ट्रॉबेरी की कुछ किस्मों से तो छह साल तक फल निकलने का दावा किया जाता है.
तस्वीर: Bihar Agriculture University
स्वीट चार्ली, कामरोजा, विंटरडॉन, नबीला
बिहार कृषि विश्वविद्यालय में स्ट्रॉबेरी की विशेषज्ञ डॉ रूबी रानी ने बताया कि कई सालों तक 10-12 किस्मों पर प्रयोग किए और फिर देखा कि कुछ किस्में हैं जो यहां उगाई जा सकती हैं. बिहार में उपजाई जा रही स्ट्रॉबेरी की प्रमुख किस्मों में स्वीट चार्ली, कामरोजा विंटरडॉन, नबीला, फेस्टिवल शामिल हैं.
तस्वीर: Bihar Agriculture University
गर्मी और बारिश का संकट
तमाम कोशिशों के बावजूद पौधों को अप्रैल के बाद जीवित रखने में काफी मुश्किल हो रही है. गर्मी और भारी बारिश के कारण पौधे नष्ट हो जाते हैं, इस वजह से किसानों को हर साल ठंडे इलाकों से पौधे मंगाने पड़ते हैं और फिर उन्हीं को दोबारा खेत में लगाया जाता है.
तस्वीर: Bihar Agriculture University
पोषक तत्वों से भरपूर
दिल के आकार वाली खूबसूरत स्ट्रॉबेरी दिल के साथ ही ब्लड प्रेशर को नियंत्रित करने और कैंसर को दूर रखने में कारगर है. इसके अलावा कई पोषक तत्वों की मौजूदगी इसे बेहद फायदेमंद बनाती है. यही वजह है कि दुनिया भर में इसकी बड़ी मांग है.
तस्वीर: Bihar Agriculture University
मुश्किलों से पार पाई
मुश्किलें कई थीं लेकिन वैज्ञानिकों की जुटाई जानकारी और किसानों की मेहनत के बलबूते यह संभव हुआ. फिलहाल भागलपुर, औरंगाबाद, और आसपास के कई इलाकों में करीब 25-30 एकड़ में स्ट्रॉबेरी कारोबारी तरीके से उगाई जा रही है. इसके अलावा छोटे स्तर पर भी कई इलाके में इसे उगाया जा रहा है.
तस्वीर: Bihar Agriculture University
आस पास के इलाकों में भारी मांग
बिहार में उपजी स्ट्रॉबेरी की आसपास के इलाकों में काफी मांग है. पटना, कोलकाता और बनारस के बाजारों में ही सारी पैदावर खप जाती है. यहां स्टोरेज की सुविधा भी नहीं है इसलिए ज्यादातर स्ट्रॉबेरी तुरंत ही बेच दी जाती है. वैज्ञानिक इन्हें प्रोसेसिंग के जरिए लंबे समय तक रखने की तकनीक पर भी काम कर रहे हैं.
तस्वीर: Bihar Agriculture University
नगदी फसल
यहां किसानों को एक किलो स्ट्रॉबेरी के लिए 200 से 250 प्रति किलो की कीमत मिल रही है. नगदी फसल की भारी मांग को देख कर आसपास के इलाकों के किसान काफी उत्साहित हैं. स्ट्रॉबेरी की खेती में सफलता देख उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों से भी यहां लोग जानकारी के लिए आ रहे हैं.
तस्वीर: Bihar Agriculture University
लीची नहीं स्ट्रॉबेरी
बिहार बासमती धान और अच्छे गेहूं के साथ ही आम और लीची जैसे फलों के लिए विख्यात है हालांकि बदलते वक्त की मार इन पर भी पड़ी है और किसानों को तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. स्ट्रॉबेरी ने लोगों को एक नयी फसल उगाने का रास्ता दिखा दिया है.