मस्जिदों में भगवान और अदालतों में मुकदमों का अंबार
३ जून २०२२पिछले कुछ दिनों में अदालतों में मस्जिदों के भीतर ‘मंदिर के अवशेष' होने संबंधी इतनी ज्यादा याचिकाएं आने लगीं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक प्रमुख मोहन भागवत तक को कहना पड़ गया कि हमें हर एक मस्जिद में भगवान की मूर्तियां ढूंढ़ने की जरूरत नहीं है.
मस्जिदों में भगवान
शुक्रवार को मथुरा के कृष्णजन्मभूमि-शाही ईदगाह मामले के हिंदू पक्षकारों ने पुरातत्व विभाग और कुछ अन्य सरकारी संस्थाओं को एक लीगल नोटिस दिया है जिसमें मांग की गई है कि आगरा की जामा मस्जिद में लोगों की आवाजाही रोकी जाए. महेंद्र प्रताप सिंह और अन्य लोगों का दावा है कि मस्जिद की सीढ़ियों के नीचे से ठाकुर केशवदेव का विग्रह निकालकर हिंदू पक्ष को सुपुर्द किया जाए. इन लोगों ने का यह भी कहना है कि ऐसा नहीं करने पर तय समय के बाद अदालत में मुकदमा दायर किया जाएगा.
पिछले दिनों दिल्ली के कुतुब मीनार परिसर में हिंदू और जैन देवताओं की मूर्तियां होने का दावा करते हुए पूजा के अधिकार की मांग करने वाली एक याचिक दिल्ली के साकेत कोर्ट में दायर की गई. याचिकाकर्ता के वकील हरि शंकर जैन ने मंदिर के साक्ष्य और पूजा के अधिकार की बात करते हुए कोर्ट में दलीलें रखीं. उनका कहना था कि इस बात के सबूत हैं कि खंडहर के ऊपर कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद बनी है. वहीं भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण यानी एएसआई का कहना है कि सरकार ने इसे संरक्षित इमारत माना है और कानून राष्ट्रीय स्मारक पर पूजा की इजाजत नहीं देता है. कोर्ट इस मामले में नौ जून को अपना फैसला सुनाएगा.
वाराणसी में ही ज्ञानवापी विवाद के बाद एक और मामला तूल पकड़ रहा है. पंचगंगा घाट स्थित बिंदु माधव में धरहरा मस्जिद में नमाज पर रोक लगाने को लेकर कुछ लोगों ने सिविल जज जूनियर डिवीजन की अदालत में याचिका दी है. अदालत ने सुनवाई की तारीख चार जुलाई तय की है.
अदालतों में याचिकाओं का अंबार
ऐसे कई मामले पिछले कुछ दिनों में उत्तर प्रदेश के विभिन्न इलाकों के अलावा देश के अन्य हिस्सों से भी आए हैं और कई मस्जिदों में नमाज पर रोक लगाकर उनके भीतर ‘मंदिर के अवशेष' ढ़ूंढ़ने की इजाजत या फिर परिसर उन्हें सौंपने की मांग की गई है. कई मामलों में अदालतों ने याचिकाकर्ताओं को फटकार भी लगाई लेकिन ज्यादातर मामले स्वीकार कर लिए गए हैं और उन पर सुनवाई चल रही है.
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पिछले दिनों इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने आगरा के ताजमहल में बंद पड़े 22 कमरों को खुलवाने की मांग वाली याचिका खारिज कर दी थी. कोर्ट ने याचिकाकर्ता को इस मामले में कड़ी फटकार भी लगाई और कहा कि पहले ताजमहल के बारे में पढ़कर आओ. हालांकि कमरों को खुलवाने और सर्वे कराने की याचिका दाखिल करने वाले बीजेपी नेता डॉक्टर रजनीश सिंह का कहना है कि अब वो इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट जाएंगे.
पिछले दिनों जब वाराणसी में सिविल जज ने ज्ञानवापी मस्जिद परिसर के सर्वे का आदेश दिया था तब इस आदेश पर टिप्पणी करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश गोविंद माथुर ने न्यूज वेबसाइट द क्विंट में एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने कहा था कि यह आदेश 1991 के अधिनियम के प्रावधानों के उल्लंघन या टकराव के रूप में प्रतीत होता है.
पूजा स्थल अधिनियम 1991 की परवाह नहीं
दरअसल, ये मामले तब अदालतों में धड़ाधड़ पहुंच रहे हैं और वहां विचार के लिए इन्हें स्वीकार भी कर लिया जा रहा है जबकि देश में पूजा स्थल अधिनियम 1991 मौजूद है और जिसके अनुसार किसी भी उपासना या पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र को परिवर्तित नहीं किया जा सकता है. कानून के मुताबिक, 15 अगस्त 1947 की स्थिति में जो उपासना स्थल (अयोध्या विवाद को छोड़कर) जैसे थे, उन्हें उसी स्थिति में रखा जाये, उन्हें बदला नहीं जा सकता.
यहां तक कि अयोध्या मामले में फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भी इस कानून के महत्व पर जोर देते हुए कहा था कि यह अधिनियम ऐसे मामलों में नए मुकदमे या न्यायिक कार्यों के गठन को रोकता है.
बावजूद इसके, इस उपासना स्थलों के मौजूदा स्थिति को चुनौती देने वाली याचिकाएं दायर की जा रही हैं, अदालतों में उन्हें स्वीकार भी किया जा रहा है और कहीं न कहीं सुप्रीम कोर्ट से भी उन याचिकाओं को पोषण मिल रहा है.
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सुप्रीम कोर्ट की भूमिका
अयोध्या विवाद पर चर्चित पुस्तक "एक रुका हुआ फैसला” के लेखक और सुप्रीम कोर्ट कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार प्रभाकर मिश्र कहते हैं कि अदालतों में ऐसी याचिकाएं स्वीकार करने से पहले थोड़ी संवेदनशीलता दिखाने की जरूरत है. उनके मुताबिक, "पूजा स्थल कानून लागू होता है या नहीं, यह तय करना निचली अदालतों के दायरे में नहीं है. इसे उन्हें ऊंची अदालतों पर छोड़ देना चाहिए, जैसा कि ताजमहल के मामले में हुआ. जब मामला सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में है तो सुप्रीम कोर्ट को एक आदेश पारित कर देना चाहिए कि इन मामलों में दूसरी कोर्ट में याचिकाएं ना दायर की जाएं और ना वहां स्वीकार किया जाए.”
प्रभाकर मिश्र कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट को एक आदेश पारित करके पूजा स्थल कानून से संबंधित मामलों को खुद ही डील कर लेना चाहिए, जैसा कि धर्म संसद की याचिकाएं जगह-जगह दायर हुईं, कोरोना की हुईं तो सुप्रीम कोर्ट ने रोक दिया और कहा कि इन याचिकाओं को हम सुनेंगे.
निचली अदालतों और उच्च अदालतों में भी लाखों की संख्या में मामले कई वर्षों से लंबित हैं, ऐसे में इन याचिकाओं को तुरंत स्वीकार करना और उनकी सुनवाई भी शुरू कर देना थोड़ा हैरान करने वाला है. यूपी में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शाहनवाज आलम कहते हैं, "पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह एक खास राजनीतिक प्रवित्ति वाली याचिकाएं अदालतों द्वारा स्वीकार की जा रही हैं उससे यह संदेश जा रहा है कि न्यायपालिका का एक हिस्सा सरकार के साथ सांठगांठ में है और न्यायतंत्र के स्थापित मूल्यों के खिलाफ जा रहा है. ऐसी धारणा बन रही है कि जो काम सीधे सरकार नहीं कर पा रही है उसे न्यायपालिका के एक हिस्से से कराया जा रहा है ताकि विरोध ना हो.”
ज्ञानवापी का उदाहरण देते हुए वो कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने कथित सर्वे की रिपोर्ट के लीक होने पर तो नाराजगी जताई लेकिन उसके आधार पर मीडिया द्वारा प्रसारित किए जा रहे सांप्रदायिक अफवाहों पर कोई रोक नहीं लगाई. उन्होंने आशंका जताई है कि कहीं यह कथित जन भावना के निर्माण की कोशिश तो नहीं है जिसके आधार पर बाद में इसे मंदिर घोषित कर दिया जाएगा.
क्या पूजा स्थल कानून खत्म करने की तैयारी है
यही नहीं, 1991 के पूजा स्थल कानून की वैधानिकता भी कोर्ट की चहारदीवारी के भीतर पहुंच गई है और लगातार कई याचिकाएं दायर की जा रही हैं. बीजेपी नेता और सुप्रीम कोर्ट में वकील अश्विनी उपाध्याय ने गत 31 अक्टूबर को जनहित याचिका दाखिल कर इस कानून की धारा 2, 3 और 4 को संविधान का उल्लंघन बताते हुए रद्द करने की मांग की है.
याचिका में कहा गया है कि इस कानून में अयोध्या में श्रीरामजन्म स्थान को छोड़ दिया गया जबकि मथुरा में कृष्ण जन्म स्थान को नहीं छोड़ा गया. जबकि दोनों ही भगवान विष्णु के अवतार हैं. याचिका में यह भी कहा कहा गया है कि केंद्र सरकार को यह कानून बनाने का अधिकार ही नहीं है क्योंकि संविधान में तीर्थ स्थल राज्य का विषय है. अश्विनी उपाध्याय के अलावा इस तरह की कुछ अन्य याचिकाएं भी सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई हैं.
आशंकाएं यह भी जताई जा रही हैं कि क्या इस कानून को खत्म करने की तैयारी है?
हालांकि इस कानून का विरोध उस वक्त भी हुआ था जब जुलाई 1991 में कांग्रेस के नेतृत्व में तत्कालीन केंद्र केंद्र सरकार ये कानून लेकर आई थी. उस वक्त संसद में भारतीय जनता पार्टी ने इसका विरोध किया था और बीजेपी के नेताओं ने इस मामले को संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी के पास भेजने की मांग की थी. हालांकि इस विरोध के बावजूद संसद से यह कानून पास हो गया था.