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महत्वपूर्ण पहल है जर्मनी की इंडो-पैसिफिक नीति

राहुल मिश्र
७ सितम्बर २०२०

जर्मन सरकार ने इंडो-पैसिफिक रणनीति की कैबिनेट से पुष्टि के बाद औपचारिक तौर पर इंडो-पैसिफिक व्यवस्था को अपने समर्थन की घोषणा कर दी. जर्मनी हिंद और प्रशांत महासागर के बीच के इलाके को इंडो-पैसिफिक की संज्ञा देता है.

Südchinesisches Meer Woody Island
तस्वीर: picture-alliance/CPA Media

पिछले हफ्ते की इस घोषणा के साथ 40 पन्नों का एक प्रपत्र भी सामने आया जिसमें जर्मन सरकार ने इंडो-पैसिफिक क्षेत्र को लेकर अपनी प्राथमिकताओं और नीतियों पर भी प्रकाश डाला है. जर्मन सरकार ने यह भी स्पष्ट किया है कि फिलहाल इंडो-पैसिफिक के समर्थक देशों में इस क्षेत्र की भौगोलिक सीमाओं को लेकर आम राय नहीं बनी है लेकिन जर्मनी हिंद महासागर और प्रशांत महासागर के बीच के क्षेत्र को इंडो-पैसिफिक की संज्ञा देता है.

इंडो पैसिपिक से जुड़े यूरोपीय हित

इस घोषणा के साथ ही जर्मनी इंडो-पैसिफिक को अपनाने वाला यूरोप का दूसरा देश बन गया है. इससे पहले फ्रांस ने भी इंडो-पैसिफिक क्षेत्र को अपनी सामरिक और विदेश नीति के लिए महत्वपूर्ण बताते हुए विदेश नीति में समुचित बदलाव लाने की घोषणा की थी. हालांकि फ्रांस की तरह जर्मनी इंडो-पैसिफिक का सीधे तौर पर तो हिस्सा नहीं है लेकिन इसके व्यापारिक, आर्थिक, और सामरिक हित इंडो-पैसिफिक से सीधे तौर पर जुड़े हैं.

जर्मनी के इस निर्णय में चीन की झलक साफ देखने को मिलती है. परोक्ष रूप से चीन की दक्षिण चीन सागर और अन्य क्षेत्रों में बढ़ती गतिविधियों का भी जिक्र है. जर्मनी के इस कदम से चीन के नाराज होने की संभावना तो है लेकिन बदलते वैश्विक परिदृश्य में यह कदम जरूरी भी लगता है. चीन को लेकर जर्मनी की चिंताएं आर्थिक और सामरिक दोनों स्तरों पर हैं. गहन व्यापार और निवेश संबंध होने के बावजूद जर्मनी को लगने लगा है कि चीन के साथ आर्थिक संबंधों में उसे उतना फायदा नहीं हो पाया है जितनी उम्मीद थी. और इसीलिए जापान और अमेरिका की तर्ज पर संभवतः जर्मनी भी अपने निवेश और व्यापार संबंधों  में विविधता लाने की कोशिश करेगा.

दक्षिण चीन सागर में हर देश के अपने दावे

आर्थिक व्यवस्था का मोटर एशिया

चीन के अलावा जापान, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर, वियतनाम और आसियान के अन्य देशों और भारत की अर्थव्यवस्थाओं के पिछले कुछ सालों में विकसित होने से आज अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था का धुरा एशिया की ओर झुकता दिख रहा है. दस-सदस्यीय आसियान के साथ तो जर्मनी के आर्थिक और निवेश संबंध मजबूत रहे ही हैं. 40 पन्नों की अपनी रणनीति में जर्मनी ने भारत के साथ भी आर्थिक और कूटनीतिक संबंधों को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा है. आसियान क्षेत्र और भारत दोनों ही न सिर्फ व्यापार और निवेश की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं बल्कि इंडो-पैसिफिक व्यवस्था में भी इनका बड़ा स्थान है.

सामरिक और राजनय मामलों से जुड़े कई टिप्पणीकारों ने जर्मनी की इंडो-पैसिफिक नीति को अमेरिका के साथ सहयोग से जोड़ कर देखा है. यूरोप की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति और यूरोपीय संघ का वर्तमान अध्यक्ष होने के नाते जर्मनी का यह निर्णय निःसंदेह इंडो-पैसिफिक के समर्थक देशों - अमेरिका, जापान, भारत, आस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया और आसियान के देशों को मजबूती देगा. इसके साथ ही साथ इस निर्णय का दूसरे यूरोपीय देशों पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ने की उम्मीद है. माना जा सकता है कि  आने वाले दिनों में यूरोप के अन्य देश भी इंडो-पैसिफिक को अपना समर्थन दें. जर्मनी अगले 6 महीनों तक य़ूरोपी संघ का अध्यक्ष है.

दक्षिण चीन सागर में चीन का लड़ाकू विमानतस्वीर: picture-alliance/AP Photo/Xinhua/Liu Rui

नियमों पर आधारित विश्व व्यवस्था

अमेरिका का साथ देने से ज्यादा यह नीति जर्मनी के अपने दम पर बड़ी भूमिका अदा करने की मंशा की ओर इशारा भी करती है. इंडो-पैसिफिक प्रपत्र में भारत और जापान के साथ मिलकर संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में सुधार लाने की बात इसी की परिचायक है. जर्मनी भारत, जापान, और ब्राजील के साथ मिलकर संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में सुधार की पुरजोर वकालत करता रहा है. पिछले कई वर्षों से इन चारों देशों ने जी-4 के माध्यम से अपनी साझा दावेदारी पेश की है और मांग की है कि इन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में जगह दी जाए.

बदलती विश्व व्यवस्था में जर्मनी एक सक्रिय और सकारात्मक भूमिका अदा करना चाहता है और इंडो-पैसिफिक रणनीति इसी का एक हिस्सा है. विदेश मंत्री हाइको मास के वक्तव्य में भी इसी की झलक देखने को मिली. हाइको मास ने कहा कि इंडो-पैसिफिक ही वह क्षेत्र है जहां से नियम-परक विश्व व्यवस्था के अगले चरण का निर्धारण होगा. जर्मनी इस व्यवस्था के सृजन में सक्रिय भागीदारी निभा कर यह सुनिश्चित करना चाहता है कि यह व्यवस्था न्याय और सहयोग पर आधारित हो और जिसकी लाठी उसकी भैंस की तर्ज पर दुनिया न चले.

जर्मनी के इस निर्णय को इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के देशों में हाथों हाथ लिया जा रहा है. आसियान के अलावा भारत और जापान के लिए भी यह अच्छी खबर है. उम्मीद की जा सकती है कि  इससे ट्रांस-अटलांटिक संबंधों में आयी दूरियां भी कम होंगी. लेकिन यह सब इस पर निर्भर करेगा कि जर्मनी का इंडो-पैसिफिक नीति के क्रियान्वयन में पहला कदम क्या होता है.

(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)

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