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महात्मा गांधी को कैसे याद करें

शिवप्रसाद जोशी
२ अक्टूबर २०१८

महात्मा गांधी की 150वीं जयंती पर उन्हें बेशुमार तरीकों से याद किया जा रहा है. लेकिन क्या गांधी के नाम पर देश विदेश के भारी भरकम जलसे ही चाहिए या ये समय है उनके मूल्यों की याददिहानी और उन पर अमल का.

Mahatma Gandhi
तस्वीर: Getty Images/Central Press

भारत सरकार ने देश विदेश में महात्मा गांधी की 150वीं जयंती मनाने के लिए विभिन्न योजनाओं की घोषणा की है. गांधी जयंती से जुड़े कार्यक्रम अगले साल तीस मार्च तक चलेंगे. केंद्र सरकार ने बजट में गांधी जयंती समारोहों के लिए 150 करोड़ रुपये आवंटित किए थे. स्वच्छता अभियान भी इस दौरान प्रमुखता से चलाया जाएगा. जयंती समारोहों के साथ स्वच्छता अभियान की संगति तो बना दी गई है लेकिन उस विसंगति को तोड़ने की कोशिशें गायब या अधूरी हैं जिनसे हमारे समाज का मैनुअल स्केवेंजर कहलाने वाला तबका घिरा हुआ है. सर पर मैला ढोने की बेबसी हो या सीवर या सैप्टिक टैंकों या रेलवे पटरियों की सफाई- देश में एक तबका दूसरों की गंदगी साफ करने के लिए अपनी जान गंवा रहा है. दिल्ली में सैप्टिक टैंक की सफाई करते हुए पिछले दिनों हुई पांच मौतों के बाद एक ज्वार सा बेशक उठा लेकिन जल्द ही 150वीं जयंती समारोहों की स्वच्छता-बेला में वो दर्दनाक हादसा भुला दिया गया.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

जहां सीवर की सफाई से होने वाली मौतों पर काबू न पाया जा सका हो और मैनुअल स्केवेंजिंग जैसे काम गैरकानूनी होने के बावजूद जारी हो, ऐसे में गांधी जयंती को स्वच्छता अभियान से जोड़ना ही काफी नहीं है, गांधी जिन जीवन मूल्यों के प्रतिनिधि हैं उनका भी पालन किए जाने की जरूरत है. भेदभाव और छुआछूत खत्म होना चाहिए लेकिन जातीय दुराग्रह इतने तीव्र हैं कि जागरूकता का कोई भी अभियान शिथिल ही रह जाता है. अपनी गरीबी और पिछड़ेपन की वजह से ये काम करने पर विवश समुदाय की यातना से मुख्यधारा के समाज को कोई मतलब रह नहीं गया है. मान लिया गया है कि वे इसी काम के लिए हैं. ये भी एक तरह का शोषण हैं, कहीं घोषित तो कहीं अघोषित तौर पर बना हुआ. क्या गांधी आज होते तो अपने किस्म का निराला प्रतिरोध दिखाते हुए मैनुअल स्केवेंजिंग को खत्म करने के लिए खुद गटर में उतर जाते. ऐसा अविश्वसनीय साहस उनमें ही था.

गांधी जयंती को स्वच्छता अभियान से जोड़ने की कवायद के बीच ये सवाल इन दिनों अक्सर नागरिक समाज में पूछा जाता है कि गांधी जीवित होते तो सफाई के साथ साथ देश के कुल हालात पर उनकी क्या प्रतिक्रिया होती और अगर वे कुछ कहते तो उस पर लोग किस तरह रिएक्ट करते. क्या गांधी के लिए आज का समय ज्यादा कठिन होता.

इस तरह के द्वंद्वांत्मक सवाल बौद्धिक और एक्टिविस्ट हल्कों में पूछे जाते रहे हैं. भारतीय समाज के आघातों से गांधी बेखबर नहीं थे. जातीय दुराव, छुआछूत, सफाई के काम से मुख्यधारा के समाज की अनदेखी, सांप्रदायिक हिंसा, भीड़ की हिंसा, गोरक्षा के नाम पर लिंचिंग, या दलितों, औरतों और अल्पसंख्यको पर अत्याचार की घटनाएं, राजनीतिक शुचिता में निरंतर गिरावट, सत्ता की खींचतान और सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार- ये सारी समस्याएं उत्तरोत्तर घनी हुईं और उनसे निपटने के तरीके और औजार या तो नहीं हैं या हैं भी तो वे फीके और कमजोर नजर आते हैं. हो सकता है गांधी के लिए ये एक बहुत पीड़ादायक क्षण होता. लेकिन अपने जीवन काल में भी उन्होंने ऐसी कई पीड़ाओं, व्यथाओं और सामाजिक बुराइयों का सामना किया और अपनी देह और आत्मा को उनके खिलाफ अहिंसक संघर्ष में खपा दिया.

तस्वीर: AP

20वीं सदी की सबसे प्रभावशाली वैश्विक शख्सियतों की सूची में महात्मा गांधी का नाम दर्ज है. समकालीन इतिहास के महानायकों में कार्ल मार्क्स, अल्बर्ट आइन्शटाइन और चार्ली चैप्लिन के साथ उन्हें भी रखा जाता है. भारत में भी टेगौर और आंबेडकर के साथ गांधी एक अद्भुत त्रयी बनाते हैं जिसमें हम अपनी समूची भारतीयता को उसके सामाजिक सांस्कृतिक विशिष्टता और वैविध्य के साथ पा सकते हैं और इसी त्रयी में हमें समस्त भारतीय संताप और संघर्ष की झलकियां भी मिलती हैं. महात्मा गांधी की 150वीं जयंती धूमधाम से मनाई जा रही है. लेकिन इतने बड़े पैमाने पर महात्मा गांधी को याद करते हुए भी एक बड़ा शून्य छूटा हुआ लगता है. अलग अलग तरह की गंदगियों, नाइंसाफियों, असमानताओं और हिंसाओं के बीच गांधी का चश्मा, लाठी, तस्वीरें और उनके कथन जैसे एक बड़ी विडंबना की तरह यहां-वहां बिखरे हुए हैं.

गांधी अगर दृढ़प्रतिज्ञ और दूरदर्शी थे तो वो विसंगतियों और विडम्बनाओं के भी गांधी थे. 150वीं जयंती में ये भी करना चाहिए कि गांधी को ईश्वरीय आस्था या श्रद्धा की वस्तु बनाने के बजाय एक असाधारण मनुष्य के रूप में उनका आकलन और सम्मान करें, उनसे सबक लें और वे जिस भारतीयता की हिफाजत के लिए डटे रहे उसी भारतीयता को अक्षुण्ण रखने का प्रयत्न करें. क्योंकि ये सिर्फ गांधी की याद का जलसा नहीं, उनके मूल्यों की याददिहानी का महत्त्वपूर्ण अवसर भी है. 

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