महामशीन महाप्रयोग के लिए फिर तैयार
२० मार्च २०१०स्वाभाविक है कि एलएचसी के दुबारा चालू होने पर उसके वैज्ञानिकों और कर्मचारियों को सबसे अधिक खुशी हो रही थी. यह वही महामशीन है, जिस के बारे में अफवाहें गरम थीं कि उसके प्रयोगों से पृथ्वी पर ऐसा ब्लैक होल (कृष्ण विवर) भी बन सकता है, जो सुरसा के मुंह की तरह पृथ्वी सहित हर चीज़ को निगल सकता है.
इस बार भी सर्दियों के अवकाश के बाद 28 फ़रवरी को इस मशीन को फिर से चालू करने से रोकने के लिए जर्मनी की एक महिला ने देश के सर्वोच्च न्यायालय तक का दरवाज़ा खटखटाया. सर्वोच्च न्यायलय ने 9 मार्च को यह कह कर उसकी अपील ठुकरा दी कि उसे एलएचसी से कोई ख़तरा दिखाई नहीं पड़ता. लगता है, कुछ लोग उसे हमेशा बंद ही देखना चाहते हैं, क्योंकि 10 मार्च को बीबीसी तक ने यह ग़लत ख़बर उड़ा दी कि एलएचसी एक बार फिर बंद किया जा रहा है. सेर्न को इसका खंडन करना पड़ा.
परमाणु के नाभिक में रहने वाले प्रोटोन कणों को लगभग प्रकाश जितनी तेज़ गति से दौड़ाने और उन की आपस में टक्कर करवाने के लिए बना एलएचसी संसार की सबसे बड़ी और सबसे मंहगी मशीन है. वह लघु रूप में उन परिस्थितियों का निर्माण करेगी, जो ब्रह्मांड को जन्म देने वाले महाधमाके बीग बैंग के समय रही होंगी.
सितंबर 2008 में बन कर तैयार होने के कुछ ही दिन बाद, 19 सितंबर को, उसे बंद कर देना पड़ा था. लगभग परमशून्य वाले तापमान पर ठंडे रहने वाले उस के दो चुंबकों के बीच के बिजली के केबलों में अचानक गर्मी पैदा होने से शॉर्टसर्किट हो गया और दोनो चुंबकों सहित प्रोटोन त्वरण प्रणाली भी 400 मीटर की लंबाई तक क्षतिग्रस्त हो गयी. उस गड़बडी के बारे में एलएचसी के निदेशक स्टीव मायर्स कहते हैं, "हमें चार किलोमीटर की लंबाई तक प्रोटोन किरण वाले निर्वात पाइप की साफ़ सफ़ाई करनी पड़ी. इसके लिए नई तकनीकें और मशीनें विकसित करनी पड़ीं. हमें सुनिश्चित करना पड़ा कि पिछली बार जैसा नुकसान फिर कभी न हो. हमें चुंबकों की सुरक्षा प्रणाली को भी फिर से डिज़ाइन करना पड़ा. इससे संकेत पड़ने पकड़ने की इस मशीन की संवेदनशीलता भी अब पिछली बार की अपेक्षा तीन हज़ार गुना बढ़ गई है."
स्टीव मायर्स ने बताया कि एलएचसी जैसी मशीनों में जो चुंबक होते हैं, उनमें लगे कुंडलीदार तारों में पूरी गति से चल रहे किसी विमनवाही युद्धक जहाज़ जितनी शक्ति बंधी होती है. गड़बड़ी होने पर 20 से तीस सेकंड में इस सारी ऊर्जा को शून्य पर लना पड़ता है. किसी विमानवाही युद्धक जहाज़ को ज़रा इतने समय में रोक कर देखिए! मायर्स
के मुताबिक़, "दूसरी बड़ी चुनौती है प्रोटोन किरण में संचित ऊर्जा. प्रोटोन कणों की गति बढ़ने के साथ उनमें इतनी गतिज ऊर्जा संचित हो जाती है कि वे एक टन तांबे को चुटकी बजाते पिघला सकते हैं. इसलिए चुंबकों और पूरी मशीन को पूरी सुरक्षा प्रदान करने के लिए बहुत ही सावधानी की ज़रूरत पड़ती है."
इस सावधानी का मतलब है कि इस महामशीन की कार्यक्षमता को कई चरणों में धीरे धीरे बढ़ाया जायेगा. मायर्स
बताते हैं, "पहले चरण में, जिसे एनर्जी रन कहा जाता है, हम मशीन को साढ़े तीन टेरा इलेक्ट्रॉन वोल्ट क्षमता संभालने के लिए तैयार करेंगे. देखेंगे कि निर्णायक पैरामिटर स्थिर रहते हैं और निर्वात कक्ष में प्रोटोन किरण का यात्रामार्ग भी हमेशा एक जैसा रहता है. जब हम साढ़े तीन टेरा वोल्ट क्षमता प्राप्त कर लेंगे, तब प्रोटोन किरणों की पहली टक्कर भी करेंगे."
साढ़े तीन टेरा वोल्ट का अर्थ है साढ़े तीन खरब इलेक्ट्रॉन वोल्ट, जो वास्तव में एलएचसी की अधिकतम क्षमता का केवल एक-चौथाई है. मायर्स बताते हैं, "इस समय संसार का सबसे शक्तिशाली मूलकण त्वरक है अमेरिका में शिकागो का टेवाट्रॉन एक्सिलरेटर. वह 950 गीगा इलेक्ट्रॉन वोल्ट पर काम करता है. जब भी हम इस सीमा को दूर पीछे छोड़ देंगे, एक नए भौतिक विज्ञान के उदय की आशा कर सकते हैं. साढ़े तीन टेरा इलेक्ट्रॉन वोल्ट भी एक बड़ी चीज़ है, लेकिन हम उस से भी आगे जाएंगे. एलएचसी का डिज़ाइन हर प्रोटोन किरण को सात टेरा इलेक्ट्रॉन वोल्ट के बराबर ऊर्जा प्रदान करने के लिए बनाया गया है. हम 2010 में पांच टेरा इलेक्ट्रॉन वोल्ट और 2011 में सात टेरा इलेक्ट्रॉन वोल्ट तक पहुंचने की कोशिश करेंगे. मुझे पूरा विश्वास है कि एलएचसी एक खोजी मशीन सिद्ध होगा."
2011 के अंत में देखरेख और मरम्मत के उद्देश्य से इस महामशीन को एक बार फिर लंबे समय के लिए बंद कर दिया जाएगा.
रिपोर्टः राम यादव
संपादनः ए कुमार