महामारी की दुश्वारी में सही सूचना की तलाश
७ जनवरी २०२२क्या आप इस बारे में कभी खिन्न हुए है कि कैसे शोधकर्ता, महामारी के दौरान दिशा निर्देशों को बदलते रहे हैं? या इस बात पर खफा हुए हैं कि वैकल्पिक विशेषज्ञों को वो तवज्जो नहीं मिली जिसकी उन्हें दरकार थी? आखिरकार उनमें से कई लोग किसी न किसी रूप में डॉक्टर और प्रोफेसर भी हैं. एक भरोसेमंद जानकार किसे माना जा सकता है और किसे नहीं? आखिर क्यों वैज्ञानिक अपनी कही बातों पर कायम नहीं रहते हैं? दूसरे शब्दों में, आखिर विज्ञान काम करता भी कैसे है?
पहले, कुछ बुरी खबर. विज्ञान कभी भी सच या निश्चित ज्ञान की इच्छा को पूरा नहीं कर पाएगा. वो ऐसा करने का दावा करता भी नहीं है. बर्लिन के शारिटे अस्पताल में आघातों पर शोध करने वाले उलरिष डीरनागेल कहते हैं, "विज्ञान एक ऐसी प्रक्रिया है जो हमेशा खुद को सवालों के घेरे में रखती है, और जिसके जरिए वो खुद में सुधार करती जाती है.” डीरनागेल और उनके सहयोगी वैज्ञानिक, बर्लिन स्वास्थ्य संस्थान (बीआईएच) में बायोमेडिकल रिसर्च में गुणवत्ता प्रबंधन के प्रभारी हैं, एक तरह से उस पर शोध कर रहे हैं.
क्या किस्सों कहानियों पर भरोसा करें?
यूं तो वैज्ञानिक कार्यों में आगामी अध्ययनों और संशोधनों-सुधारों की मांग बनी रहती है, फिर भी कई परिकल्पनाओं और निष्कर्षों का समान वजन नहीं होता है. महामारी की इस अवस्था के दौरान बहुत से किस्सों में से एक ये है, "मेरी एक दोस्त दाई है और उसने देखा है कि कई औरतों को टीका लगने के बाद गर्भपात हुआ है." ये ऐसे किस्से हैं जो लोगों में सबसे पहले तो एक किस्म का खौफ भर देते हैं, आखिरकार दाई भी एक औरत है और जानती है कि वो क्या कह रही है.
इस तरह की बात दाई से सुनने को मिले या नहीं, ऐसे किस्से मामले को और नजदीकी से देखने को बाध्य करते हैं. डीरनागेल कहते हैं, "एक किस्से से एक परिकल्पना निश्चित रूप से तैयार हो जाती है. लेकिन कोई कारण संबंध स्थापित करने के लिए उस परिकल्पना का नियंत्रित अध्ययनों में परीक्षण करना होता है." गर्भ गिरने और टीकों के बीच में कोई संबंध नहीं पाया गया है. दुनिया भर में टीके की 8.7 अरब खुराकें लग चुकी हैं.
वैज्ञानिक दावों की छानबीन भी जरूरी
इसीलिए ये संभव है कि दाई का नजरिया एक गंभीर मानव प्रविधि से निर्मित हुआ हो, जिसे पहले से बनी बनाई धारणा या सिद्धांत के आधार पर नये प्रमाणों की विवेचना करने की प्रवृत्ति यानी संपुष्टि पक्षपात कहा जाता है. इस संज्ञानात्मक त्रुटि की वजह से हम पहले से कायम अपने विश्वासों से जुड़ने वाली सूचना को और पुख्ता और विश्वसनीय बना लेते हैं. और कोई भी इस किस्म के पक्षपात से अछूता नहीं है. कॉन्सिपिरेसी यानी साजिश वाली मानसिकता के बारे में शोध करने वाले सामाजिक मनोविज्ञानी रोलांड इम्हॉफ कहते हैं, "इस बारे में एक ही चीज मदद करती है कि आप अपने ही तर्क की खाल उतारने लग जाएं यानी वितंडावादी हो जाएं, जो मानते हैं उससे उलट तर्क करने लग पड़ें."
कॉन्सिपिरेसी के कई सिद्धांतकारों की अपेक्षा वैज्ञानिक क्योंकि इस बारे में कहीं ज्यादा सजग हैं कि उनसे गलतियां हो सकती हैं, इसलिए संभव है कि वे गर्भपात या अकाल प्रसव के मुद्दे की छानबीन करना जारी रखें. डीरनागेल कहते है, "संगठित संशयवाद एक वैज्ञानिक आदर्श है. क्योंकि हम जानते हैं कि हमारे परिणाम और निष्कर्ष गलत आ सकते हैं, इसलिए हम बुनियादी तौर पर संदेहवादी होते हैं, अपने बारे में भी."
इसीलिए विशेषज्ञ पत्रिकाओं में प्रकाशित होने जा रहे वैज्ञानिक अध्ययनों या शोध-पत्रों की, संबंधित क्षेत्र के अन्य विशेषज्ञ पीयर रिव्यू के जरिए छानबीन करते हैं. वैज्ञानिक बिरादरी, प्रकाशन से पहले प्लेटफॉर्मों में अपलोड होने वाले रिसर्च नतीजों की भी गहराई से जांच करती है. हालांकि इनमें से कोई भी प्रणाली मुकम्मल नहीं है, लेकिन उससे ये संभावना बढ़ जाती है कि विधि या गणना की त्रुटियों का पता चल जाए.
डीरनागेल कहते हैं, "संगठित संशयवाद का ये अर्थ भी है कि अच्छे अध्ययन आखिर में अपनी सीमाओं या कमियों का उल्लेख कर देते हैं. मिसाल के तौर पर ये कि कोई समुचित नियंत्रण समूह संभव नहीं हो पाया या शोधकर्ता विभिन्न कारणों से कुछ खास पहलुओं को नहीं देख पाए." डीरनागेल कहते हैं कि वैज्ञानिक पारदर्शिता का अर्थ ये भी है कि अध्ययनों को इस ढंग से प्रकाशित किया जाए कि दूसरे शोधकर्ता फिर से नतीजे निकाल पाने में समर्थ हो सकें. एक काम अच्छा होने का मतलब ये नहीं कि आगे भी अच्छा ही होगा.
खंडन का मतलब साबित नहीं
विज्ञान का प्रयोजन सत्य की स्थापना का नहीं है. डीरनागेल कहते हैं कि "परिकल्पना को गलत ठहराना कहीं ज्यादा आसान है. ये धारणा कि हंस सफेद होते हैं तभी तक वैध है जब तक कि काले हंस नहीं दिखाई दे जाते." अगर विज्ञान का लक्ष्य परिकल्पना की पुष्टि करना है, यानी ये देखना की मान्यता सत्य है या नहीं, तब हंस के उदाहरण के हवाले से देखें तो आपको दुनिया के तमाम हंसों को देखना होगा. और इस बात से कभी इंकार नहीं किया जा सकता कि हंसों को देखने निकले लोगों से एक न एक हंस छूट ही जाएगा, भले ही वे कितने मुस्तैद क्यों न हो.
हममें से कम ही लोग खुद शोधकर्ता होते हैं. एक अध्ययन में प्रस्तुत प्रयोगों और गणनाओं को दोबारा करने के हमारे अवसर सीमित होते हैं. और हम तमाम लोग वाइरोलॉजिस्ट यानी वायरस-विज्ञानी भी होते तो वायुमंडलीय भौतिकी का हमें बहुत ही कम ज्ञान होता. आखिरकार सारी बात विश्वास की होती है. एक अध्ययन में इम्हॉफ और उनके सहयोगियों पिया लाम्बैर्ती और ओलिवियर क्लाइन ने विशेषज्ञों पर लोगों के भरोसे की जांच की. उन्होंने पाया कि कॉन्सपिरेसी थ्योरियों से बहुत कम प्रभावित होने वाले लोग, वैज्ञानिकों द्वारा समर्थित परिकल्पनाओं पर भरोसा करने को तैयार थे. परिकल्पना में सामग्री की भूमिका गौण थी.
इम्हॉफ कहते हैं, "लंबे समय तक इसे अतार्किक माना जाता रहा." लेकिन ये है बड़ा मानीखेज. वो कहते हैं कि "एक समाज के रूप में हम लोग एक सहमति तैयार करने और फिर उस सहमति पर भरोसा करने की ओर प्रवृत्त होते हैं."
भरोसा करने का विज्ञान
वायरस-विज्ञानी क्रिस्टियान ड्रॉस्टेन पर जर्मनों को भरोसा है क्योंकि वे सार्स-कोवि-1 की खोज में शामिल थे. उसी वायरस से 2002-2003 की सार्स महामारी फैली थी. तबसे वे कोराना वायरसों के बारे में रिसर्च करते रहे हैं. वे सार्स-कोवि-2 से जुड़ी कई सामग्रियों, अध्ययनों के प्रकाशन में भी मदद करते रहे हैं. शोध कार्य के ऑनलाइन डाटा स्रोतों में पबमेड भी शामिल है. इनके जरिए यूट्यूब वीडियो में प्रस्तुत चेतावनीपरक सिद्धांतों की सच्चाई लोगों को पता चल पाती है कि उस विषय में चल रहे वैज्ञानिक शोध या अध्ययन से वे सूचनाएं कितना मेल खाती हैं.
वैक्सीन विरोधियों और महामारी की मौजूदगी से इंकार करने वाले तबकों के लगातार आरोपों का जवाब देते हुए इम्हॉफ कहते हैं, "कोई भी यूं ही पोप नहीं घोषित हो जाता या यूं ही संभ्रांत या कुलीन नहीं बन जाता." ड्रॉस्टेन का रिसर्च कार्य भी अपने साथी वैज्ञानिकों की तहकीकात और जांच से गुजरकर ही प्रकाशित हो पाया. और ड्रॉस्टेन को इसीलिए विशेषज्ञ माना जाता है कि वे पीयर रिव्यू यानी सहयोगियों की समीक्षा में खरे पाए गए.
डाटाबेस का मुआयना इतना आसान नहीं होता जितना कि हमें लगता है. फिर भी कुछ चीजें हैं जो गैर-वैज्ञानिक के रूप में हमारे दिमागों में घंटियां बजा सकती हैं यानी हमें सचेत कर सकती हैं. डीरनागेल कहते हैं कि "किसी भी चीज के 100 फीसदी सच होने का ऐलान वैज्ञानिक तौर पर संदिग्ध माना जाना चाहिए. एक अतिवादी परिकल्पना भी संदिग्ध ही है. जैसे कि वायरस के प्रोटीन को जहरीला बताने की परिकल्पना है तो उसे भी सबूतों के उच्चतम मापदंडों से होकर गुजरना होगा." और महज एक यूट्यूब वीडियो तो कतई किसी पैमाने या मापदंड पर खरा नहीं उतरता है.