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महिलाओं के प्रति रवैये पर निर्भर होगी संस्थानों की रैंकिंग

शिवप्रसाद जोशी
१ अक्टूबर २०२०

भारत में वैज्ञानिक संस्थानों की रैंकिंग का एक प्रमुख आधार होगा उनके यहां कमा करने वाली महिलाओं की संख्या, उनका पद और उन्हें मिलने वाली सुविधा और सहायता. महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की तैयारी की जा रही है.

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तस्वीर: Imago/Mint Images

साइंस, टेक्नोलजी ऐंड इनोवेशन पॉलिसी, स्टिप 2020 का फाइनल ड्राफ्ट लगभग तैयार है और इसे इस साल के अंत तक कैबिनेट की मंजूरी के लिए रखा जाएगा. संभवतः अगले वर्ष से लागू हो जाने वाली ये देश की पांचवी विज्ञान नीति होगी. विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना इस नीति का विशेष उद्देश्य बताया गया है जिसके दायरे में सरकारी और निजी संस्थान, दोनों आएंगें. विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के सचिव प्रोफेसर आशुतोष शर्मा के प्रेस में प्रकाशित बयान के मुताबिक, "समावेशिकता, समानता और विविधता की ओर अग्रसर नई नीति के एक हिस्से के रूप में इस फ्रेमवर्क की संकल्पना की गयी है.” 

देश में वैज्ञानिक उद्यम और वैज्ञानिक सोच की नींव रखने वाली सबसे पहली विज्ञान नीति 1958 में प्रसिद्ध वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा की अगुवाई में तैयार की गई थी. इसके तहत विज्ञान और वैज्ञानिक शोध के संवर्धन को प्रोत्साहित करने का लक्ष्य था. 1983 में आयी दूसरी विज्ञान नीति का फोकस स्थानीय प्रौद्योगिकी के जरिए प्रौद्योगिकीय आत्मनिर्भरता के निर्माण पर था. 2003 में बनायी गयी तीसरी विज्ञान नीति का लक्ष्य था कि अधिक से अधिक वैश्विक होती जाती दुनिया में प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिए शोध और विकास के सेक्टर में बड़े पैमाने पर निवेश करते रहना होगा. 2010 से 2020 के दशक को इनोवेशन का दशक घोषित किया गया था. इसीलिए 2013 में आई चौथी विज्ञान नीति में नई खोज के जरिए ज्ञान आधारित प्रौद्योगिकियों की ओर बढ़ने का फैसला किया गया था. 2020 की नई नीति में इसी उद्देश्य को और वृहद और सघन बनाने की कोशिश की गयी है और संस्थानों की गुणवत्ता के निर्धारण के लिए जेंडर रेटिंग डाली गयी है. 

तस्वीर: Reuters/Abhishek N. Chinnappa

विज्ञान नीतियों के बीच पिछली सदी में लंबा अंतराल था और अब ये घट रहा है. पहली से दूसरी नीति के बीच 25 साल का, दूसरी और तीसरी के बीच 20 साल का, तीसरी और चौथी के बीच 10 साल का और चौथी और पांचवी के बीच सात साल का गैप है. सात साल के अंदर नई विज्ञान नीति बनाने की जरूरत क्यों पड़ी? और पिछली नीतियों से ये कितनी अलग होगी, आइए इस पर भी नजर डाल लें. स्टिप 2020 इस मामले में पिछली नीतियों से अलग और व्यापक है कि अव्वल तो इसका निर्माण महामारी प्रभावित असाधारण समय में हो रहा है और दूसरे इसे काफी हद तक विकेंद्रीकृत, ऊर्ध्वगामी (बॉटम-अप) और समावेशी बनाया गया है. तीसरी बात ये है कि नीति की गतिशीलता और निरंतर बदलती प्रौद्योगिकी के साथ तालमेल बनाए रखने के लिए हर साल उसकी समीक्षा का प्रस्ताव रखा गया है. क्वांटम प्रौद्योगिकी जैसे भविष्य के लिए भी इस नीति में तैयारियों का दावा किया गया है. सबसे खास बात यह है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में महिला भागीदारी पर जोर दिया गया है.

शोध कार्य, प्रशासन, अध्यापन और अध्ययन का प्रदर्शन और उपलब्धियों जैसे बहुत से मानकों के अलावा महिला स्टाफ के प्रति संस्थान के रवैये का भी पैमाना रैंकिग के लिए रखा गया है. संस्थान में कितनी महिलाएं कार्यरत हैं और कौन कौन से पदों पर तैनात हैं, शीर्ष और निचले पदों पर कितनी महिलाएं हैं, महिला वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं की संख्या क्या है, महिला स्कॉलरों को कितने प्रोजेक्ट मिलते हैं और पुरुष स्टाफ की तुलना में उनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार तो नहीं हो रहा है- इन सब बिंदुओं की जांच होगी. लैंगिक संवेदनशीलता और कार्यस्थल पर उत्पीड़न रोकने की व्यवस्था और शिकायत प्रकोष्ठ के अलावा मां बनने वाली, नवजात शिशुओं की मांओं और छोटे बच्चों की मांओं के लिए बच्चों की देखभाल, क्रेच आदि से जुड़ी संस्थान की ओर से क्या सुविधा और सहायता उपलब्ध कराई जाती है- यह भी देखा जाएगा.  

विज्ञान में महिलाओं की स्थिति पर 2005 में एक टास्क फोर्स का गठन किया गया था. उसके मुताबिक विश्वविद्यालय स्तर पर महिला नामाकंन 1950-51 में करीब 11 प्रतिशत था तो 21वीं सदी के प्रारंभ में यह बढ़कर 39.4 प्रतिशत हो गया था. हालांकि क्षेत्रीय आधार पर स्थिति की विकटता समझ आती है. केरल, गोवा, पंजाब और पुद्दुचेरी में 50 प्रतिशत से अधिक महिला भागीदारी है तो बिहार, राजस्थान, ओडीशा और अरुणाचल प्रदेश में 35 प्रतिशत से भी कम. इसी टास्क फोर्स ने बताया था कि आईआईटी में तो और भी बुरे हाल हैं. पीएचडी से लेकर वैज्ञानिक या फैकल्टी तक महिलाओं की संख्या बहुत कम है. शोध संस्थानों और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में फैकल्टी के रूप में कार्यरत महिला वैज्ञानिकों की संख्या 15 प्रतिशत से भी कम पाई गई थी. 

नये आंकड़ों के मुताबिक देश भर के आईआईटी के इंजीनियरिंग कोर्सों में महिला प्रतिनिधित्व 10-12 प्रतिशत है. यहां तक कि केंद्र के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग में भी अनुपात निर्धारित पैमाने से नीचे है. अधिकारियों के मुताबिक विभागीय कमेटियों में कम से कम 25 प्रतिशत पदों पर महिलाएं होनी ही चाहिए. लेकिन एक चिंता ये भी है कि विज्ञान विषयों में महिलाओं की संख्या इतनी कम है कि ये पद भरे नहीं जा सकते. सरकार की ये चिंता जायज तो है लेकिन इसका निदान भी उसी के हाथ में है. बड़े पैमाने पर नीतिगत और जागरूकता अभियान छेड़े जाने की जरूरत है जिनसे परिवारों तक ये संदेश जाए कि बेटियों को ना सिर्फ शिक्षित करें बल्कि उन्हें विषयों के चुनाव में भी आजादी दें. हल्केफुल्के विषय और आरामदायक सुविधाजनक नौकरियां ही लड़कियों के लिए उपयुक्त हैं- ये स्टीरियोटाइपिंग और रूढ़िवाद खत्म करना चाहिए. विज्ञान हो या मानविकी- विषयों को लेकर किसी तरह का अतिरेक भी सही नहीं है. इसीलिए इस विज्ञान नीति का नयी शिक्षा नीति से भी समन्वय बनाए रखना जरूरी है.

दुर्भाग्य ये है कि अजीबोगरीब और विकृत दलीलों को कभी भावुकता, जरूरत, शर्त या अनिवार्यता की तरह थोप दिया जाता है. भारतीय घरों में आज भी नैतिक दबाव की ये समस्या विकराल बनी हुई है जहां लड़कियों की शिक्षा से जुड़े भले-बुरे के निर्धारण की डोर अभिभावकों, परिजनों, शिक्षकों या सलाहकारों के हाथों में है. शहरी इलाकों में ही नहीं, भारतीय भाषाओं के देहातों में ये जंजीरें सदियों से टूटी नहीं हैं. दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक वर्गों की महिलाओं के लिए स्थितियां और भी बुरी हैं. इक्का दुक्का अपवाद बेशक हैं लेकिन इन्हें जागरूकता के उपकरण के तौर पर विकसित नहीं किया गया है. विज्ञान पॉलिसी ने समावेशी नजरिए का दावा किया है लेकिन क्या ही अच्छा हो कि इसका दायरा बढ़ाया जाए और प्राकृतिक विज्ञानों में ही नहीं सामाजिक विज्ञानों में भी इसकी तामील करायी जाए.

प्रतिभाएं होने के बावजूद मानविकी और सामाजिक विज्ञानों से जुड़े अकादमिक संस्थानों और मीडिया में महिला कर्मियों की ना सिर्फ कमी है बल्कि निर्णायक पदों पर उनकी उपस्थिति पुरुषों के अनुपात में कम है. कार्यस्थल की दशाएं विचलित कर देने वाली पाई गई हैं. कुंठाजनित दुर्व्यवहार और वर्चस्व की राजनीति की जाती है. अफसोस ये है कि कई कारणों से ऐसी शिकायतें भी कम आती हैं और प्रशासन या सरकार में शीर्ष स्तर पर निगरानी और पर्यवेक्षण का अभाव बना रहता है जो न्यायसंगत और पारदर्शी ढंग से संस्थानों और अधिकारियों की कार्यशैली का निरंतर मूल्यांकन करता रह सके. अकेली जिम्मेदारी इस तरह सिर्फ पीड़िता या सरवाइवर पर ही आ जाती है कि वो चाहे तो शिकायत करने का दुस्साहस करे या ना करने में ही अपनी भलाई समझे, उत्पीड़न को साबित करने की बात तो बहुत दूर ही रह जाती है. नयी विज्ञान नीति तभी सार्थक मानी जाएगी जब वो व्यापक सामाजिक कल्याण के लिए भी नए रास्ते बना सके.

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