महिलाओं के लिए पुरुष नेता
२५ नवम्बर २००९संयुक्त राष्ट्र प्रमुख बान की मून महिलाओं के ख़िलाफ हिंसा को रोकने के लिए पुरुष नेताओं का एक नया नेटवर्क स्थापित कर रहे हैं. दुनिया भर से मशहूर राजनीतिज्ञ, अदाकार, धार्मिक नेता और सामाजिक कार्यकर्ता को इस मुहिम का हिस्सा बनाने की बात की जा रही है.
बान की मून का कहना है कि दुनिया में 70 प्रतिशत महिलाएं अपनी जीवन में किसी न किसी तरह पुरुषों के हिंसा का शिकार बनतीं हैं. इनमें से ज़्यादातर पुरुष इन महिलाओं के क़रीबी होते हैं, जैसे इनके पिता, पति या कोई ऐसा शख़्स जिन्हें वह जानतीं हैं. इस तरह के नेटवर्क से महिलाओं के प्रति हिंसा के ख़िलाफ आवाज़ें उठाने में मदद मिलेगी.
बान की मून के 'यूनाइट टू एंड वायलेंस अगैंस्ट वीमेन' के तहत उन संगठनों, अभियानों और आंदोलनों की मदद की जाएगी जो महिलाओं के प्रति हिंसा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते हैं, रोकथाम की कोशिशें करते हैं. लोगों में जागरुकता बढ़ाने के साथ साथ नैतिक तौर पर भी बदलाव लाने की कोशिश की जाएगी. इसके लिए संयुक्त राष्ट्र ने एक करोड़ की सहायता का एलान किया है जिसे 18 देशों में चलाया जाएगा.
बान की मून पुरुषों से इसके ख़िलाफ उठ खड़े होने का आह्वान करते हैं. कहते हैं, "मैं दुनिया भर के पुरुषों और लड़कों से कहता हूं, हमारा साथ दें, इस चुप्पी को तोड़ें. जब आप किसी महिला को हिंसा का शिकार बनते हुए देखें, तो हाथ पर हाथ धरे बैठे ने रहें." उनका कहना है कि महिलाओं के ख़िलाफ हिंसा तब तक चलेगी जब तक पुरुष इसके ख़िलाफ नहीं बोलेंगे.
संयुक्त राष्ट्र के यूनाइट अभियान के तहत पांच लक्ष्य बनाए गए हैं जिन्हें 2015 तक लागू करने की कोशिश की जाएगी. इनमें, देशों में महिलाओं के ख़िलाफ हिंसा को रोकने के लिए क़ानून बनाना और उन्हें लागू करना, महिलाओं और लड़कियों के ख़िलाफ हर तरह की हिंसा को सज़ा दिलाना, लोगों को जागरूक करना और यौन शोषण को रोकना शामिल हैं.
भारत ही में देखा जाए तो संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक 1998 से लेकर 2002 तक महिलाओं के ख़िलाफ हिंसा लगातार बढ़ती जा रही है और देश में हर तरह के जुर्मों को देखा जाए तो सबसे ज़्यादा हिंसा का शिकार महिलाएं होती हैं. सोचने वाली बात यह भी है कि 2001 की जनगणना के मुताबिक भारतीय जनसंख्या में प्रति एक हजा़र पुरुषों के लिए केवल 927 महिलाएं हैं. भारत में महिलाओं को शोषण से बचाने के लिए क़ानूनी तौर पर कई साधन मौजूद हैं. लेकिन एक रूढ़ीवादी समाज और क़ानूनों को कार्यान्वित करने में लापरवाही अक्सर आड़े आती रही है.
रिपोर्ट- एजेंसियां/एम गोपालकृष्णन
संपादन- ओ सिंह