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महिला आरक्षण देकर बीजू जनता दल ने मारी बाजी

शिवप्रसाद जोशी
१२ मार्च २०१९

महिला आरक्षण पर वर्षों के गतिरोध और विवाद के बीच ओडीशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने लोकसभा चुनावों में 33 फीसदी सीटें महिला उम्मीदावारों को देने का ऐलान कर खलबली मचा दी है.

Naveen Patnaik Indien
तस्वीर: Getty Images/AFP/Strdel

अगर महिला उम्मीदवारों के लिए 33 फीसदी सीटें आरक्षित कर बीजू जनता दल (बीजेडी) आम चुनाव लड़ता है तो ऐसा करने वाला वह देश का पहला राजनीतिक दल होगा और नवीन पटनायक पहले नेता. ओडीशा की 21 लोकसभा सीटों में से बीजेडी के पास 20 सीटें हैं. नवीन पटनायक की घोषणा का अर्थ है कि उन्हें 21 में से सात लोकसभा सीटों पर महिला उम्मीदवारों को टिकट देना होगा. इस समय पार्टी की तीन महिला सांसद हैं.

नवीन पटनायक ने चुनाव तारीखों की घोषणा से कुछ ही घंटे पहले ओडीशा के केंद्रपाड़ा जिले और अपने पिता बीजू पटनायक की ‘कर्मभूमि' में इस आशय की घोषणा की. राज्य सरकार ने संसद और विधानसभा में महिला आरक्षण संबंधी प्रस्ताव पिछले साल नवंबर में ही पास करा लिया था. मुख्यमंत्री पटनायक ने अन्य दलों से बाजी हथियाते हुए कहा कि इस बारे में उन्होंने सभी दलों और नेताओं को अपना ये प्रस्ताव भेज दिया था. उनकी घोषणा पर बीजेपी और कांग्रेस जैसी धुरंधर पार्टियां आवाक हैं और उन पर चुनावी हथकंडे के इस्तेमाल का आरोप लगा रही हैं. लेकिन पटनायक ने सही समय पर अपनी ‘साइलेंट पॉलिटिक्स' का आकर्षक उदाहरण भी पेश किया है. ओडीशा के 3.18 करोड़ मतदाताओं में से 1.56 करोड़ महिला मतदाता हैं.

तस्वीर: AP

2012 में ओडीशा सरकार ने पंचायतों मे महिलाओं के लिए 50 फीसदी आरक्षण कर दिया था. हालांकि ये भी हैरानी की बात है कि पांचवी बार सरकार बनाने की कोशिशों के तहत चुनाव मैदान में उतर रहे नवीन पटनायक ने विधानसभा चुनावों के लिए ऐसा कोई ऐलान नहीं किया जबकि राज्य में लोकसभा के साथ ही विधानसभा चुनाव भी होंगे. 147 सीटों वाली ओडीशा विधानसभा में सिर्फ 12 महिला विधायक हैं. ओडीशा में किसानों, बेरोजगारों और आदिवासियों के असंतोष बने हुए हैं- स्वास्थ्य से लेकर शिक्षा तक कई पैरामीटरों पर राज्य की स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती है. लेकिन महिला आरक्षण जैसी एक पुरानी और कठिन मांग को निभाने की घोषणा करने वाले पटनायक के इस कदम की तो सभी दाद दे रहे हैं. 

भारत में महिलाएं कुल जनसंख्या का करीब 48 फीसदी हैं लेकिन रोजगार में उनकी हिस्सेदारी सिर्फ 26 फीसदी की है. न्यायपालिका और केंद्र और राज्य सरकारों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व काफी कम है. पंचायतों में जहां राज्यों में महिलाओं के लिये आरक्षण किया गया वहां महिलाओं के नाम पर उनके पति और बेटे निर्वाचन से मिली ताकत का उपयोग कर रहे हैं. ओडीशा के अलावा कर्नाटक और उत्तराखंड जैसे राज्यों में 50 फीसदी आरक्षण का लाभ भी महिलाओं को उस रूप में नहीं मिल पा रहा है जिसकी वो अधिकारी हैं.

इन सब चिंताओं के बीच यूएनडीपी की वो रिपोर्ट भी है जिसके मुताबिक महिलाओं के सशक्तीकरण में अफगानिस्तान को छोड़कर सभी दक्षिण एशियाई देश भारत से बेहतर हैं. यह भी एक तथ्य है कि संसद में महिला प्रतिनिधित्व के वैश्विक औसत में भारत का स्थान बहुत नीचे है. 543 सीटों वाली लोकसभा में इस समय 62 महिला सांसद हैं, इससे पहले 2009 में 58 महिलाएं थीं. थोड़ा सा ग्राफ बढ़ा लेकिन 33 फीसदी आरक्षण के हवाले से तो ये नगण्य ही कहा जाएगा. 2010 में यूपीए सरकार ने इसे राज्यसभा में पास तो करा दिया था लेकिन पर्याप्त संख्याबल के बावजूद लोकसभा से पास कराने में विफल क्यों रह गई, ये सवाल बना हुआ है. 2014 में प्रचंड बहुमत के साथ केंद्र में आई बीजेपी भी इसे भूलती चली गई जबकि ये उसके चुनावी घोषणापत्र का हिस्सा था.

पितृसत्तात्मक संरचना वाले समाज में घर हो या दफ्तर, सड़क हो या संसद- स्त्रियों के विकास का नारा खूब पीटा जाता है. अफसोस ये है कि कि ये तोतारटंत वाली बातें इतने लंबे समय से आखिरकार कैसे चल पा रही हैं और उन्हें सुना भी जा रहा है, तालियां भी बज रही हैं और वोट भी पड़ रहे हैं. हालांकि महिला हितों को लेकर कोई ठोस कार्ययोजना या कार्रवाई नहीं दिखती है, जबकि संसद से ही इसकी शुरुआत होती तो ये देश के लिए बड़ा संदेश  होता. नवीन पटनायक ने अपनी लोकसभा सीटों की लैंगिक समीकरणों को टटोलते-परखते हुए 33 फीसदी आरक्षण की घोषणा कर दी लेकिन बीजेपी जैसे अन्य दलों को सांप क्यों सूंघा- ये तो मतदाताओं को पूछना ही चाहिए.

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