आमतौर पर मां बच्चों पर प्यार लुटाने और बाप अपनी नाराजगी दिखाने के लिए जाने जाते हैं लेकिन ऐसा होता क्यों है. मां बाप के रवैये पर रिसर्च करने वाली न्यूरोबायोलॉजिस्ट को नोबेल से तीन गुना ज्यादा इनामी पुरस्कार मिला है.
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हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में न्यूरोबायोलॉजी की प्रोफेसर कैथरीन डुलाक हमेशा से मां बाप के रवैये से अभिभूत रहती थीं और सिर्फ इंसानों के लिए ही नहीं बल्की सभी जीवों में. 57 साल की फ्रांसीसी वैज्ञानिक ने चूहे के दिमाग में बच्चों के प्रति रवैये के लिए जिम्मेदार तंतुओं की खोज की है. यह खोज इंसान और दूसरे स्तनधारियों में और ज्यादा प्रयोगों के लिए आधार बनेगी.
कैथरीन डुलाक उन सात वैज्ञानिकों में शामिल हैं जिन्हें 2021 के ब्रेकथ्रू पुरस्कार के लिए चुना गया है. यह पुरस्कार सिलिकॉन वैली के कुछ प्रबुद्ध लोगों की तरफ से विज्ञान और आधारभूत भौतिकी के क्षेत्र में बड़ी खोजों के लिए दिया जाता है. पुरस्कार जीतने वाले हर उम्मीदवार को 30 लाख डॉलर या फिर नोबेल पुरस्कार में मिलने वाली रकम से तीन गुना ज्यादा राशि दी जाती है.
प्रोफेसर डुलाक हार्वर्ड ह्यूग्स मेडिकल इंस्टीट्यूट में काम करती हैं. वे इस बात की पड़ताल कर रही थीं कि क्यों चुहिया हमेशा अपने छोटे बच्चों का ख्याल रखती है, उन्हें प्यार करती है जबकि नर चूहा परिस्थितियों के मुताबिक उन पर हमले करता है. यह रवैया खास तौर से कुंवारे चूहों में दिखाई देता है.
डुलाक ने अपने प्रयोग के जरिए दिखाया है कि इस रवैये के लिए जिम्मेदार तंतु नर और मादा दोनों में होते हैं. हार्मोंस में बदलाव के कारण यह बदल सकते हैं लेकिन फिर ये दोनों तरफ जा सकते हैं. यही वजह है कि कुंवारे चूहे बाप बनने के बाद बच्चों को प्यार करने लगते हैं, दूसरी तरफ तनाव के आलम में कोई मां अपने बच्चों को मार भी सकती है.
प्रोफेसर डुलाक ने समाचार एजेंसी एएफपी से बातचीत में कहा, "हमें लगता है कि हमने कुछ ऐसा पा लिया है जो दूसरे जीवों तक जामसकता है. यह एक प्रवृत्ति है और यह प्रवृत्ति इन न्यूरॉन्स का काम है, जो मैं शर्त लगा सकती हूं कि सारे स्तनधारियों के दिमाग में हैं, और जब वे नवजातों की मौजूदगी में होते हैं, तो वे उन्हें बताते हैं - तुम्हें इनका ख्याल रखना है."
डुलाक अपना काम चूहों पर ही केंद्रित रखना चाहती हैं. हालांकि यह एक बुनियादी रिसर्च है और जाहिर है कि जो लोग इस तरह के लैंगिक मामलों पर काम कर रहे हैं उनमें इसके प्रति स्वाभाविक रुचि होगी. प्रोफेसर डुलाक कह रही हैं कि ये "नर" और "मादा" तंतु सारे जीवों के दिमाग में मौजूद हैं. डुलाक का कहना है, "मैं वैज्ञानिक हूं, मैं आंकड़े देखती हूं, मैं तटस्थ हूं," हालांकि उन्होंने माना, "यह सचमुच मुझे छू गया, तभी मैं कहती हूं, मैं उपयोगी हूं."
इन सवालों से घिरे रहते हैं जर्मन माता पिता
बच्चे को पालने का सही तरीका क्या हो? उन्हें कब क्या खिलाया जाए? मां बाप अकसर ऐसे सवालों से घिरे रहते हैं. जानिए, भारत की तुलना में कितना अलग है जर्मनी में बच्चा पालना.
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नाम कैसा हो?
जर्मनी हो या भारत, बच्चे का नाम हमेशा ही एक बड़ा मुद्दा बना रहता है. नाम पारंपरिक भी हो और साथ ही मॉडर्न भी. कहीं माता पिता कोई ऊलजलूल नाम ना रख दें, इसलिए जर्मनी में ऐसे नामों की एक लिस्ट भी है, जिन्हें रखने की अनुमति नहीं है.
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दूध कहां पिलाएं?
हालांकि जर्मन लोगों को इससे कोई दिक्कत नहीं है लेकिन देश में ऐसा कोई कानून नहीं है जो महिलाओं को सरेआम अपने बच्चे को दूध पिलाने का हक देता हो. कभी कभार ऐसे मामले भी देखे गए हैं जहां रेस्तरां में महिलाओं को ऐसा करने से मना किया गया.
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कब तक पिलाएं?
बच्चे को दूध पिलाने के मामले में भारत को दुनिया के सबसे उदार देशों में माना जाता है. जर्मनी में बच्चा पैदा होने पर माओं से पूछा जाता है कि वे अपना दूध पिलाना पसंद करेंगी या नहीं. कम ही महिलाएं एक साल से ज्यादा बच्चे को अपना दूध पिलाती हैं.
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कौन सा किंडरगार्टन?
जर्मनी में बच्चा होने पर काम से लंबी छुट्टी मिलती है. एक साल तक माता पिता में से कोई एक घर पर रह सकता है. इसके बाद किंडरगार्टन की जरूरत पड़ती है. यह घर के करीब हो या दफ्तर के, बच्चा कितने घंटे वहां बिताएगा, मां बाप के सामने ऐसे कई सवाल होते हैं.
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टीका लगाएं या नहीं?
भारत में इस तरह का सवाल नहीं होता. लोग जानते हैं कि टीका लगवाना जरूरी है. लेकिन जर्मनी समेत कई पश्चिमी देशों में ऐसे लोग हैं जिन्हें लगता है कि टीके से बच्चा बीमार हो सकता है. हालांकि जर्मनी में 96 फीसदी लोग अपने बच्चों को टीका लगवाते हैं.
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रोने दें या नहीं?
90 के दशक में जर्मनी में एक किताब आई जिसका शीर्षक था, "हर बच्चा सोना जानता है". इस किताब के अनुसार बच्चा जब रोए, तो उसे रोने दें. आखिरकार वो खुद ही सो जाएगा. यह किताब खूब बिकी और लोग ऐसा करने भी लगे. हालांकि नए शोध इसे गलत बताते हैं.
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कहां सुलाएं?
कुछ लोग शुरू से ही बच्चे को अलग कमरे में या कम से कम अलग बिस्तर में सुलाते हैं, तो वहीं कुछ का मानना है कि बच्चे को सीने से लगा कर रखना चाहिए. ऐसे लोग घर से बाहर जाते समय भी बेबी बैग का इस्तेमाल करते हैं.
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कौन सा डायपर?
बगैर डायपर के शायद ही कोई बच्चा दिखे. लेकिन डायपर कैसा हो? कपड़े वाला या साधारण? सस्ता या महंगा? पेट्रोलियम वाला या ऑर्गेनिक? पार्क में जब माता पिता एक दूसरे से मिलते हैं, तो शायद सबसे ज्यादा चर्चा इसी विषय पर होती है.
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क्या खिलाएं?
बाजार में बच्चों को खिलाने के लिए कई तरह की चीजें मौजूद हैं. जिनके पास वक्त की कमी है, वे अकसर इनका सहारा लेते हैं. लेकिन जो लोग घर पर ही बच्चे का खाना बनाते हैं, उन्हें "अच्छे माता पिता" का दर्जा दिया जाता है.
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टीवी और स्मार्टफोन?
आज के जमाने में बच्चों को स्क्रीन से दूर रखना बहुत मुश्किल है. टीवी, स्मार्टफोन और कंप्यूटर बच्चों के बड़े होने का हिस्सा हैं. लेकिन बच्चों को कितनी देर तक इनके सामने बैठने दिया जाए? सभी मां बाप अपनी समझ के हिसाब से फैसले लेते हैं.
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कितना मीठा?
पहले साल में ज्यादातर बच्चे को ना नमक दिया जाता है और ना ही चीनी. धीरे धीरे इनकी शुरुआत होती है और फिर एक वक्त ऐसा भी आता है जब बच्चे गर्मी के मौसम में हर रोज आइसक्रीम खाते हैं. लेकिन शाम छह बजे के बाद चीनी पर रोक होती है.
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बड़ी इनामी रकम के बारे में डुलाक ने कहा कि वे इसका एक हिस्सा स्वास्थ्य, महिलाओं की शिक्षा और असहाय आबादी पर खर्च करेंगी. डुलाक 25 साल पहले फ्रांस से अमेरिका आ गईं. वे पहले वापस जाना चाहती थीं, "लेकिन मेरी पोस्ट डॉक्टरेट की पढ़ाई काफी अच्छी रही और मुझे अमेरिका में अपनी लैब बनाने का मौका मिला और फ्रांस में मेरी अपनी लैब नहीं होती. वहां तो मुझे सचमुच पितृसत्तात्मक संरचना से जूझना पड़ता, जहां लोग कहते, 'ओह तुम अभी बहुत जवान हो, तुम्हें अपना बजट नहीं मिल सकता, तुम्हारा अनुभव इतना नहीं है कि तुम स्वतंत्र रूप से काम कर सको."
यही वजह है कि डुलाक ने हार्वर्ड को चुना और अपनी जिंदगी खुद से बनाई, आखिरकार उन्हें दोहरी नागरिकता भी मिल गई. वे मानती हैं कि जब लैंगिक समानता को बढ़ावा देने की बात होती है तो अमेरिका फ्रांस से काफी आगे नजर आता है.