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समाज

माइग्रेशन के दुष्चक्र में फंसे मजदूरों की सुध कौन लेगा

शिवप्रसाद जोशी
३० सितम्बर २०१९

अपने बीवी बच्चों के साथ एक राज्य से दूसरे राज्य और एक शहर से दूसरे शहर भटकते मजदूरों का जीडीपी ग्रोथ में बेशकीमती योगदान है लेकिन उनकी अपनी हालत दयनीय बनी रहती है. 

Indien mehr Arbeitslose in Kalkutta
तस्वीर: DW/P. M. Tiwari

संयुक्त राष्ट्र के मिलेनियम लक्ष्यों में शामिल होने के बावजूद भारत के तमाम राज्यों में रह कर काम करने वाले प्रवासी मजदूर और बच्चे कुपोषित, अंडरवेट और बीमार हैं. गुजरात के प्रवासी मजदूरों पर हाल के एक सर्वे से चिंताजनक हालात का पता चलता है. एक अनुमान के मुताबिक निर्माण सेक्टर में करीब पांच करोड़ लोग काम करते हैं, इनमें से दस प्रतिशत महिला मजदूर हैं. यह देश के सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले क्षेत्रों में से एक है. लेकिन ये सेक्टर प्रवासी मजदूरों पर बहुत अधिक निर्भर है. असंगठित क्षेत्र का रोजगार होने के कारण कर्मचारियों और मजदूरों की सामाजिक और कानूनी सुरक्षा भी नहीं रहती. अत्यंत खतरनाक और जानलेवा स्थितियों में मजदूरों को दिहाड़ी कमाने के लिए विवश होना पड़ता है. हालात तब और पेंचीदा हो जाते हैं जब कामगार पुरुषों को अपने साथ अपने घरों की औरतों और बच्चों को भी ले आना होता है. रहने को कोई निश्चित जगह नहीं होती और अधिकांश परिवारों में बच्चे दुधमुंहे या बहुत छोटे होते हैं लिहाजा माएं उन्हें अपने साथ निर्माणाधीन साइटों पर ले जाती हैं जहां वे भी अपने पति के साथ हाड़तोड़ मेहनत करती हैं. ऐसे दृश्य आपको शहरों और उसके किनारों पर अक्सर दिख जाएंगें जहां हाईवे, मॉल, होटल या अपार्टमेंट बन रहे हैं, बेशुमार निर्माण के करीब मजदूरों के बच्चे धूल से लिथड़े हुए हैं या घिसट रहे हैं.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे, 2015-16 के मुताबिक करीब 38 प्रतिशत शिशुओं में उम्र के हिसाब से कद में गिरावट दर्ज हुई है, 21 प्रतिशत में उम्र के हिसाब से वजन की गिरावट और करीब 36 प्रतिशत बच्चे सामान्य से कम वजन वाले यानी अंडरवेट हैं. और ये दर कम नहीं हो रही है. सबसे ज्यादा मामले एससी और एसटी परिवारों (अनुसूचित जातियों और जनजातियों) में पाए गए हैं. एक नमूने के तौर पर देखें तो गुजरात के अहमदाबाद शहर में हाल के कुछ अध्ययनों में पाया गया है कि माइग्रेंट बच्चों में स्टंटिंग के शिकार साढ़े 40 प्रतिशत बच्चे हैं और वैस्टिंग यानी गिरते वजन के शिकार 22 प्रतिशत बच्चे हैं. भारत की 48 फीसदी आबादी देश के जिन नौ सबसे गरीब राज्यों में बसर करती है वहां नवजात बच्चों की मौत के 70 फीसदी मामले होते हैं और 62 फीसदी मातृ मृत्यु दर है. मांओं, नवजातों और शिशुओं के पोषण को सुधारने के लिए निर्धारित वैश्विक लक्ष्यों के हिसाब से भारत के सरकारी कार्यक्रमों की गति धीमी और अभियान अपर्याप्त हैं.

तस्वीर: Getty Images/D. Berehulak

स्टेट ऑफ वर्ल्ड पॉपुलेशन रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की आधा से ज्यादा आबादी शहरी इलाकों में रहती है. भारत में भी शहरीकरण तेजी से बढ़ा है. 2001 में शहरीकरण की दर 27.81 प्रतिशत थी वहीं 2011 में 31.16 प्रतिशत हो चुकी थी. और ये भयंकर शहरीकरण सिर्फ आबादी के बढ़ने का नतीजा नहीं है. ये गरीबी से त्रस्त ग्रामीण इलाकों का शहरों की ओर पलायन का नतीजा भी है और ये भी सच है कि शहरों ने धीरे धीरे ग्रामीण इलाकों को निगला है. बड़े पैमाने पर हो रहे अंतरराज्यीय माइग्रेशन के बीच 2017 के आर्थिक सर्वे के मुताबिक 2011 और 2016 के बीच ये आंकड़ा हर साल नब्बे लाख का है.

2011 की जनगणना में आतंरिक माइग्रेंट्स की संख्या करीब 14 करोड़ आंकी गई. उत्तर प्रदेश और बिहार से सबसे ज्यादा पलायन होता है, इनके बाद मध्य प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, उत्तराखंड, जम्मू कश्मीर, पश्चिम बंगाल, ओडीशा, और पूर्वोत्तर राज्यों का नंबर आता है. और पलायन के सबसे प्रमुख ठिकानों में दिल्ली, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, गुजरात, आंध्रप्रदेश और केरल शामिल हैं. लेकिन कमोबेश सभी राज्यों से दलितों का माइग्रेशन बहुतायत में देखा गया है.

अब अगर ये माइग्रेशन आबादी की आर्थिक जरूरतों और तत्कालीन परिस्थितियों के लिहाज से अपेक्षित एक सामाजिक-आर्थिक परिघटना बन चुका है तो मजदूरों के लिए कोई नीति भी जरूर होनी चाहिए. काम के घंटे तो कमोबेश तय हैं और दिहाड़ी भी. लेकिन कई जगह काम के स्तर के लिहाज से दिहाड़ी कम है और अवधि ज्यादा है. मजदूर औरतों और उनके बच्चों के लालनपोषण, देखरेख, स्वास्थ्य सुविधा, खाने रहने और बच्चों की शिक्षा के इंतजामों को लेकर भी कानून न सिर्फ स्पष्ट और रेखांकित होने चाहिए बल्कि उन पर भ्रष्टाचार मुक्त, पारदर्शी अमल भी सुनिश्चित कराया जाना जरूरी होगा. अभी तो कानून इस मामले में लगभग अदृश्य ही है. 1979 में बना इंटर स्टेट माइग्रेन्ट वर्कर्स एक्ट जरूर बताया जाता है. दूसरी ओर एक सच ये भी है कि सीज़नल और चक्रीय माइग्रेशन को लेकर कोई नीति नहीं है और न कोई गिनती. बीपीएल सर्वे में भी ये लोग दर्ज हो पाते होंगे, कहा नहीं जा सकता. इनमें से कितने लोग अपने मताधिकार का प्रयोग कर पाते हैं- ये भी एक सवाल है.

आंकड़ों के मुताबिक निर्माण सेक्टर में चार करोड़, घरेलू काम में दो करोड़, कपड़ा उद्योग में एक करोड़ से कुछ अधिक, ईंट भट्टों में एक करोड़ मजदूर काम कर रहे हैं. इनके अलावा परिवहन, खदान और कृषि जैसे क्षेत्रों में भी मजदूर एक राज्य से दूसरे राज्य जा रहे हैं. इनके अलावा रंगाई, पुताई, ढलाई, कुली, माली, चौकीदारी जैसे कई काम ऐसे हैं जो अशिक्षित युवाओं और गरीब परिवारों को माइग्रेट करने पर विवश करते हैं. प्रवासी मजदूरों का शोषण तो होता ही है, वे बीमारियों और अन्य खतरों से भी घिरे रहते हैं. इधर पिछले दो चार साल में तो सोशल मीडिया की अफवाहों और आरोपों और नफरतों ने एक वहशी भीड़तंत्र बना डाला है.

प्रवासी मजदूरों के बारे में अध्ययन होते रहते हैं. शोध पत्र और थीसिस लिखी जाती हैं, सर्वे किए जाते हैं और सरकारें नीतियां भी बना लेती हैं और गाहेबगाहे कुछ निर्देश या राहत भी जारी कर देती हैं- लेकिन मजदूरों की दारुण स्थिति जितना ज्यादा अध्ययन और चिंता का विषय बनती जाती है उतना ही उनकी हालत और दुष्कर होती जाती है. इसका अर्थ यही तो है कि तमाम अकादमिक, सामाजिक, राजनीतिक, प्रशासनिक चिंताओं ने वास्तविक ठिकानों से दूरी बना कर रखी है. यानी वे लोग सिर्फ "सबजेक्ट” बन कर रह गए हैं या चुनिंदा स्वार्थों की पूर्ति के ऑब्जेक्ट?

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