माओवाद के खात्मे के लिए विकास जरूरी
२१ जुलाई २०१६माओवाद का इतिहास चार दशक से भी ज्यादा पुराना है. लेकिन इस दौरान किसी भी सरकार ने इस समस्या से निपटने के प्रति न तो सही रणनीति अपनाई है और न ही इसकी इच्छाशक्ति का परिचय दिया है. नतीजतन अब भी कहीं सुरक्षा बलों के हाथों माओवादी के नाम पर बेकसूर ग्रामीण मारे जाते हैं तो कहीं माओवादियों के हमलों में सुरक्षा बल के जवानों को जान से हाथ धोना पड़ता है. इसी सप्ताह बिहार में सीआरपीएफ के 10 जवानों की हत्या इसकी ताजा मिसाल है.
देश के महानगरों में लोग शरीर की चर्बी कम करने के लिए रोजाना मीलों लंबी दौड़ लगाते हैं. आदिवासी इलाकों में रहने वाले लोग भी रोजाना सुबह लंबी दूरी तय करते हैं. लेकिन उनकी यह दौड़ रोजी-रोटी की तलाश में होती है. आजादी के इतने लंबे अरसे बाद भी शहरी व ग्रामीण इलाकों का यही फर्क माओवाद के सुलगते रहने की प्रमुख वजह है. माओवाद की शुरूआत गरीबी और शोषण के खिलाफ हुई थी. लेकिन किसी भी सरकार ने समस्या की तह में जाने की जरूरत नहीं समझी. इसकी बजाय हथियारों के बल पर इस आंदोलन को कुचलने के प्रयास हुए. नतीजतन चिंगारी और भड़कती रही. सरकारों के अलावा उनकी शह पर बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी आदिवासी इलाकों में खनिजों से भरपूर जमीन पर कब्जे का प्रयास करती रही हैं. अपनी जमीन बचाने में नाकाम आदिवासी इसके खिलाफ माओवादी आंदोलन में शामिल होते रहे हैं. झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडीशा में ऐसे दर्जनों मामले मिल जाएंगे.
चरम पर भ्रष्टाचार
आदिवासी इलाकों में सरकारों और पुलिस की ओर से स्थानीय लोगों के शोषण की घटनाएं आम हैं. माओवाद से प्रभावित राज्यों में जमीनी स्तर पर भ्रष्टाचार भी चरम पर है. गरीब आदिवासी ही इस भ्रष्टाचार के सबसे बड़े शिकार हैं. इस शोषण से माओवादी उग्रवाद लगातार मजबूत होता रहा है. उन इलाकों में विकास के नाम पर कुछ नहीं हुआ है. इलाके में स्कूल और अस्पताल तो हैं लेकिन वहां न तो शिक्षक हैं और न ही डॉक्टर. हाल में छपी एक रिपोर्ट में कहा गया था कि माओवाद से प्रभावित देश के 106 जिलों में तैनात सीआरपीएफ जवानों की मौत की सबसे प्रमुख वजह माओवादी हमले नहीं बल्कि मलेरिया और दिल के दौरे जैसी बीमारियां हैं. इससे साफ है कि सरकारें जब उन इलाकों में सुरक्षाकर्मियों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने में नाकाम हैं तो आम आदिवासियों की हालत समझी जा सकती है. अक्सर सुरक्षा बलों की ओर से बेकसूर लोगों के साथ अत्याचार और बलात्कार की खबरें भी सामने आती रहती हैं.
यह सही है कि माओवादियों और उनके हिंसक तौर-तरीकों को किसी भी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन अमीरों व गरीबों के बीच लगातार बढ़ती खाई को पाट कर स्थानीय लोगों को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने में सरकार की नाकामी ही इस समस्या के फलने-फूलने की प्रमुख वजह है. आदिवासियों की सामाजिक और आर्थिक हालत बेहतर होने पर माओवादी आंदोलन खुद-ब-खुद कमजोर हो जाएगा. लेकिन किसी भी सरकार ने अब तक इस मामले में ठोस पहल करते हुए माओवादियों के साथ बातचीत की कवायद नहीं शुरू की है. सामाजिक-आर्थिक समस्या के तौर पर देखने की बजाय सरकारें माओवाद को कानून व व्यवस्था की समस्या के तौर पर देखती हैं. इस समस्या के राजनीतिक समाधान की बात तो तमाम राजनीतिक दल और सरकारें करती हैं. लेकिन इस पर कोई अमल नहीं करता.
बंगाल में कामयाबी
नक्सलवाद के जनक रहे पश्चिम बंगाल में यह समस्या काफी हद तक हल हो चुकी है. कभी जंगलमहल के नाम से कुख्यात रहे राज्य के झारखंड से लगे तीन जिलों में विकास और रोजगार मुहैया कराने वाली दर्जनों योजनाएं शुरू कर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी युवकों को माओवाद की ओर मुड़ने से रोकने में कामयाब रही हैं. लेकिन दूसरे किसी राज्य ने इस फार्मूले को नहीं अपनाया है. कुछ राज्यों में सरेंडर करने वाले माओवादियों के लिए पुनर्वास योजनाओं का एलान तो किया गया है. लेकिन हथियार डालने वालों को न तो इसके तहत कोई सुविधा मुहैया कराई जाती है और न ही रोजगार. नतीजतन हताशा में ऐसे लोग फिर माओवादी आंदोलन में शामिल हो जाते हैं.
सुरक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि माओवाद से निपटने की मौजूदा रणनीति काफी हद तक मुगलकालीन है. मुगल सम्राट भी विरोधियों और डकैतों से निपटने के लिए सेना की बड़ी टुकड़ियों को भेज देते थे. लेकिन उससे समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो पाता था. माओवादी इलाकों में तैनात सीआरपीएफ जवानों की तादाद पहले के मुकाबले बढ़ने के बावजूद माओवादी गतिविधियों पर अंकुश नहीं लगाया जा सका है. विशेषज्ञों की राय में केंद्र और राज्य सरकारों को मिल कर माओवाद की समस्या से निपटने के लिए एक ठोस रणनीति पर काम करना होगा. महज सुरक्षा बलों की तादाद बढ़ाने से कोई खास लाभ नहीं होगा. लेकिन लाख टके का सवाल यही है कि क्या कोई भी सरकार और राजनीतिक पार्टी ऐसी इच्छाशक्ति का परिचय देगी ?सही रणनीति और इच्छाशक्ति के अभाव में देश में माओवाद की समस्या का स्थायी समाधान फिलहाल संभव होता नहीं दिखता.