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मिटती धरोहरों की ओर ध्यान दिलाने का मौका

१२ जुलाई २०१५

वर्ल्ड हेरिटेज कहलाना निसंदेह गौरव की बात तो है ही, पर्यटन के लिए संजीवनी बूटी भी है. लेकिन हमें अपनी विरासत और साझा विश्व धरोहरों को संजो के रखने के लिए और भी कदम उठाने की जरूरत है, बता रही हैं डीडब्ल्यू की ऋतिका राय.

तस्वीर: independent.co.uk

बीते महीनों में कट्टरपंथी आईएस आतंकियों को हमने कितनी ही बार विश्व धरोहरों को तबाह करते हुए देखा. वे जानबूझ कर इस तबाही के मंजर को वीडियो और फोटो में कैद करते हैं और उनका इस्तेमाल अपने मकसद के लिए करते हैं. देखते ही देखते इराक, सीरिया और यमन की ना जाने कितनी बेशकीमती विश्व धरोहरें नेस्तनाबूद कर दी गईं और इस पूरे तमाशे में हम सब केवल बेसहारा मूक दर्शक रह गए.

जब किसी स्थल को विश्व धरोहर का दर्जा दिया जाता है तो वह केवल किसी खास देश की जागीर नहीं रह जाती बल्कि पूरे विश्व और मानवता के इतिहास की साझा विरासत बन जाती है. हर बार जब ऐसी कोई धरोहर नष्ट की जाती है तो वह पूरे मानव इतिहास की एक अपूर्णनीय क्षति होती है. शायद यही सोचकर इस्लामिक स्टेट और उनसे पहले के कई आतंकी समूहों ने समय समय पर इन्हें अपनी नफरत का निशाना बनाया.

पूर्वी इराक और सीरिया में कितने ही ऐतिहासिक स्थलों को बुलडोजर तले रौंदा गया, वहीं की दूसरी इमारतों और मूर्तियों को हथौड़े मार मार कर धूल में मिला दिया. यह सब कुछ आतंकी समूहों के अपने प्रचार और आधिपत्य का संदेश फैलाने के काम आया. इसके अलावा पर्दे के पीछे इस बेशकीमती कला की लूट और तस्करी की बात भी पता चली है. विरासत से जुड़े और पुरातत्विक महत्व वाली धरोहरें बेचकर आतंकी अपने हथियार और गोले बारूद खरीद रहे हैं.

हाल ही में यूनेस्को ने 24 नए विश्व धरोहरों के अलावा कुछ ऐसी धरोहरों की भी पहचान की है, जो खतरे में हैं. इराक में हतरा, यमन में सना का पुराना शहर और शिबाम का पुरानी दीवारों वाला शहर इस सूची में रखे गए. संयुक्त राष्ट्र की सांस्कृतिक शाखा के सदस्यों ने इन सबके लिए गंभीर चिंता जताई.

डीडब्ल्यू की ऋतिका रायतस्वीर: DW/P. Henriksen

युद्ध या प्राकृतिक आपदा की स्थिति में भी इन धरोहरों की सुरक्षा के लिए प्रयास करने के लिए बॉन कॉन्फ्रेंस में एक घोषणा पत्र जारी हुआ. पहली बार इसमें यह भी तय हुआ कि किसी संकटग्रस्ट इलाके में यदि यूएन ने अपने शांतिदूत भेजे तो उन पर इन धरोहरों की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी होगी. इनकी सुरक्षा पर धन भी खर्च होता है जिसके लिए बजट का प्रावधान करना यूनेस्को की आम जनसभा का मामला है.

अब तक तो उनके कुल बजट का तीन चौथाई हिस्सा इन स्थलों का मूल्यांकन करने की प्रक्रिया में ही खर्च होता आया है. किसी भी तरह के बचाव कार्य के लिए मात्र एक चौथाई राशि ही बचती है जो कि मौजूदा परिस्थितियों में बिल्कुल नाकाफी लगती है. इन संस्थाओं के पास सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए जरूरी धनराशि की कमी का सवाल कोई नया नहीं है. ऐसे में इन अमूल्य धरोहरों के संरक्षण के लिए थोड़े और विचार और ठोस कदमों की आवश्यकता है, जिसकी जिम्मेदारी केवल यूनेस्को जैसी सांस्कृतिक संस्था को नहीं बल्कि पूरे मानव समाज को लेनी होगी.

ब्लॉग: ऋतिका राय

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