विश्व भर में जारी मिलेनियम विलेज प्रोजेक्ट के तहत अफ्रीका से एक अच्छी खबर आई है. लंबे समय तक तमाम बुनियादी चीजों की कमी से जूझ रहे केन्या के सौरी गांव में मिलेनियम प्रोजेक्ट वरदान सरीखा साबित हुआ.
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सौरी में अब जेनिफर ओवीनो को लगभग हर कोई जानता है. वे कामयाब हैं. उनकी कामयाबी मिलेनियम विलेज प्रोजेक्ट के वॉलंटीयर्स के साथ आई. वह बताती हैं, "मुझे पता चला कि सिर्फ एक फसल जरूरी नहीं है. यहां के लोग सिर्फ मक्का उगाते थे. मक्का और उसके बाद फिर मक्का. जब मैंने खेती करनी शुरू की तो उनसे सीखा कि आप दूसरी फसल भी उगा सकते हैं."
ट्रेनिंग के अलावा जेनीफर ओवीनो प्रोजेक्ट के शुरू में मुफ्त बीज और खाद भी मिला. इसके अलावा ग्रीनहाउस के लिए सस्ता कर्ज भी. अब वह मक्के के अलावा कई फल और सब्जियां उगाती हैं. इस तरह खराब फसल का जोखिम कम हो जाता है. साथ ही फल और सब्जियों से अनाज के मुकाबले ज्यादा कमाई होती है. जेनीफर ओवीनो का फार्म अब इतना बड़ा हो गया है कि उन्होंने चार लोगों को फुलटाइम काम पर लगाया है. बीज और खाद वह पिछले दो सालों से खुद खरीद रही हैं.
देखिए, कहां से आया कौन सा खाना
कहां से आया कौन सा खाना
हर दिन हमारी खाने की प्लेट में जो कुछ भी होता है, वो सब हमेशा से आसपास के खेतों में पैदा नहीं होता था. कई चीजें तो हजारों मील का सफर करके यहां पहुंचती हैं. तो देखिए कहां से आती है कौन सी चीज.
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आधी दुनिया का चावल
आज विश्व की आधी से भी अधिक आबादी का मुख्य आहार चावल है. भारत में भी पैदा होने वाला धान मूल रूप से चीन से आया. एक किलो चावल पैदा करने में 3,000 से 5,000 लीटर पानी लग जाता है.
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गेंहू की यात्रा
7,000 साल से पहले से पूर्वी इराक, सीरिया, जॉर्डन और तुर्की जैसे इलाकों में गेंहू उगाने के सबूत मिले हैं. इसको कई तरह की प्रक्रियाओं से कहीं ब्रेड, कहीं पास्ता तो कहीं रोटी की शक्ल दी जाती है. गेंहू के सबसे बड़े उत्पादक चीन, भारत, अमेरिका, रूस और फ्रांस हैं.
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मक्का - एज्टेक का सोना
मूल रूप से केंद्रीय मेक्सिको में पैदा होनेवाला मक्का अब विश्व के सभी महाद्वीपों में फैल चुका है. केवल 15 फीसदी मक्का इंसानों की थाली तक पहुंचता है बाकी जानवरों को खिलाने के काम आता है. ग्लोबल फूड इंडस्ट्री में इससे ग्लूकोज सीरप बनाया जाता है. अमेरिका में 85 फीसदी जीएम मक्का उगाया जाता है.
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आलू बिन सब सून
दक्षिण अमेरिका के एंडीज का मूल निवासी आलू आज विभिन्न किस्मों में हमारे लिए उपलब्ध हैं. 16वीं सदी में स्पेन के योद्धाओं ने जब पेरू पर कब्जा किया तब उन्होंने आलू का स्वाद चखा और उसे यूरोप ले आए. तब से स्पेन और जर्मनी, आयरलैंड जैसे कई यूरोपीय देशों में आलू उगाया जाने लगा. आज चीन, भारत और रूस आलू के सबसे बड़े उत्पादक हैं.
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चीनी - गन्ना या चुकंदर
गन्ना पूर्वी एशिया में कहीं से आया माना जाता है. इसकी मिठास के इस्तेमाल का इतिहास 2,500 साल से भी पुराना है. आज पूरे विश्व की जरूरतें पूरी करने के लिए इसे सबसे ज्यादा ब्राजील में उगाया जाता है. कुछ हिस्से से बायोइथेनॉल भी बनती है. इसे उगाना मुश्किल और कम कमाई वाला काम है. यह चीनी यूरोप में चुकंदर से बनने वाली चीनी से सस्ती होती है.
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कॉफी - काली लक्जरी
इथियोपिया से शुरु होकर दुनिया भर की पसंदीदा ड्रिंक बन चुकी कॉफी ने लंबा सफर तय किया है. एक कप कॉफी में 140 लीटर पानी छिपा है. इसे वर्चुअल वाटर कहते हैं. इसकी पैदावार पर विश्व के करीब 2.5 करोड़ कॉफी किसान निर्भर हैं. इनमें से करीब आठ लाख छोटे किसान अपने उत्पाद सहकारी समितियों के माध्यम से बेचते हैं.
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चीन से चाय
चाय चीन से आई और अब दुनिया में सबसे ज्यादा खपत वाला पेय पदार्थ है. हर सेंकड दुनिया भर में करीब 15,000 चाय के कप पिए जा रहे हैं. कॉफी के दीवाने यूरोप में भी इन दिनों चाय का क्रेज बढ़ता जा रहा है. ब्रिटिश शासन के दौरान केन्या से लेकर भारत और श्रीलंका में उगाई गई चाय को इंग्लैंड पहुंचाया जाता था. आज कई भारतीय चाय बागानों में काम करने वालों की हालत दयनीय है.
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केला - लोकप्रिय ट्रॉपिकल फल
अगर केले को विश्व का सबसे लोकप्रिय फल कहें, तो गलत नहीं होगा. दक्षिणपूर्ण एशिया से निकला केला आज जब जर्मनी के बाजारों में बिकता है, तो स्थानीय सेबों से भी सस्ता पड़ता है. इसके सबसे बड़े निर्यातक लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई देश हैं. इन्हें उगाने वालों के कामकाज की स्थितियां काफी कठिन होती हैं. इसके अलावा इसमें कीटनाशक दवाइयों के भारी इस्तेमाल के कारण भी समस्या होती है.
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खाने का ग्लोबलाइजेशन
सदियों से खाने पीने के मामले में भौगोलिक इलाकों के बीच हुई अदला बदली को वैश्वीकरण की पहली लहर माना जा सकता है. इंटरनेशनल सेंटर फॉर ट्रॉपिकल एग्रीकल्चर, सीआईएटी ने एक विस्तृत स्टडी में आज विश्व भर में प्रचलित मुख्य भोजन और पेय पदार्थों की जड़ें तलाशने का काम किया है.
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लेकिन मिलेनियम प्रोजेक्ट का फायदा सिर्फ किसानों को नहीं हुआ है. लंबे समय तक सौरी के स्कूल में हर चीज की कमी थी. अक्सर बच्चे क्लास में आते ही नहीं थे. मिलेनियम प्रोजेक्ट के साथ यहां टेक्स्ट बुक और कंप्यूटर आए और साथ ही बच्चों को रोजाना खाना भी मिलने लगा. यही वजह है कि पिछले दो सालों में स्कूली बच्चों की तादाद दोगुनी हो गई है. लेकिन साल के अंत में सहायता राशि मिलनी बंद हो जाएगी. तब शायद बच्चों को दोपहर का मुफ्त खाना भी बंद हो जाएगा. केन्या की सरकार से मिलने वाली मदद काफी नहीं है. स्कूल प्रिंसिपल फ्रांसिस ओकोको कहते हैं कि मेरी अपील होगी कि इस प्रोजेक्ट को और तीन साल के लिए बढ़ा दिया जाए. फिर वे इस संस्थान के साथ जुड़े अपने सपनों को पूरा कर पाएंगे.
मिलेनियम प्रोजेक्ट से जेनीफर ओवीनो जैसे किसानों की फसल तो बेहतर हुई ही है, बिक्री भी बढ़ी है. प्रोजेक्ट की पहल पर इलाके में एक सर्विस सेंटर बनाया गया है जहां किसान अपना माल कमीशन पर बेच सकते हैं. दस प्रतिशत कमीशन सेंटर के पास रह जाता है. जेनीफर का मानना है कि डील फिर भी फायदेमंद है. वह कहती हैं, "अब एक इंसान सारा काम कर रहा है. दस लोगों को बाजार में नहीं रहना पड़ता. एक ही व्यक्ति सारा सामान बेच सकता है."
देखिए, बढ रहे हैं रेगिस्तान
बढ़ रहे हैं रेगिस्तान
मिट्टी की उर्वरता घट रही है, मरुस्थल बढ़ते जा रहे हैं. फैलते मरुस्थल संयुक्त राष्ट्र के लिए भी चिंता का विषय है.
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बंजर धरती
पृथ्वी की सतह का एक तिहाई हिस्सा बंजर हो चुका है, और लगातार मरुस्थलों का विस्तार हो रहा है. तस्वीर में देखा जा सकता है कि अलजीरिया में हॉगर पहाड़ी इलाके में हजारों साल में किस तरह मरुस्थल चट्टानों का रूप ले चुके हैं.
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सूखा
एशिया, अफ्रीका और अमेरिका में मरुस्थलों का तेजी से विस्तार हो रहा है. 2011 में अमेरिका के टेक्सास में आए सूखे को गेहूं के खेत झेल नहीं सके.
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आबादी पर असर
हर साल करीब 70,000 वर्ग किलोमीटर नए मरुस्थल बन रहे हैं. पर्यावरण परिवर्तन में इंसानों का भी बड़ा योगदान है.
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पशुओं से नुकसान
पशुओं की बड़ी आबादी भी जमीन के सूखने का एक कारण है. वे छोटी घास को भी खा जाते हैं जिसके कारण जमीन खुद की तेज हवा और पानी से रक्षा नहीं कर पाती है. मिट्टी कमजोर पड़ जाती है और सूखे की स्थिति में मरुस्थलीकरण का शिकार हो जाती है.
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गैरजिम्मेदाराना खेती
किसानों के लिए भी मरुस्थलों का फैलना बड़ी समस्या है. जैसे कि मेक्सिको में मक्के की खेती बुरी तरह प्रभावित हो रही है. फसल की कटाई के बाद मिट्टी को दोबारा तैयार होने का ठीक समय नहीं दिया जाता और दोबारा बुआई कर दी जाती है. इससे मिट्टी के पोषक तत्व कम होते हैं और समय के साथ मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी घटती जाती है.
तस्वीर: Ofelia Harms
घटते जंगल
तेजी से जंगलों के काटे जाने से पेड़ों की संख्या घटती जा रही है. शहरों और औद्योगीकरण के विस्तार के साथ जंगल सिकुड़ रहे हैं. जंगलों के कटने से खाली होने वाले मैदान को नुकसान पहुंचने का खतरा बढ़ जाता है.
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पानी
बढ़ती आबादी के साथ पानी का इस्तेमाल भी बढ़ता जा रहा है. पिछले पचास सालों में पानी का इस्तेमाल दोगुना हो गया है. इस कारण पानी के स्रोत भी घटते जा रहे हैं.
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चेन रिएक्शन
मरुस्थलीकरण अकेला नहीं आता. इसके साथ और भी नुकसान किसी चेन की तरह होते हैं. पौधों का विकास प्रभावित होता है, पानी का ज्यादा वाष्पीकरण होता है और जमीन सूखती है. मिट्टी में नमक बढ़ता है और वह कठोर होती जाती है. मिट्टी को बचाना मुश्किल हो जाता है.
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दूरगामी प्रभाव
मरुस्थलों के विस्तार के साथ कई पशु प्रजातियों की विलुप्ति हो सकती है. गरीबी, भुखमरी और पानी की कमी इससे जुड़ी अन्य समस्याएं हैं.
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जमीन को दोबारा उर्वर बनाना
मिट्टी की उर्वरा शक्ति लौटाई जा सकती है लेकिन यह महंगा काम है. जैसे कि डॉमिनिकन रिपब्लिक में नए पेड़ लगाए जा रहे हैं. दुनिया भर में इस तरह के प्रोजेक्ट्स की विकास दर अभी ज्यादा नहीं है.
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सबसे बड़ी चुनौती
1996 में यूएन कंवेंशन टू कंबैट डिजरटिफिकेशन ने सामने आकर मोर्चा संभाला. तबसे वे मरुस्थलों के विस्तार को रोकने की मुहिम में लगे हैं.
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जेनीफर का कहना है कि उनके लिए मिलेनियम प्रोजेक्ट वरदान सरीखा था. लेकिन कुछ विकास विशेषज्ञ इसे अभिशाप मानते हैं. उनका कहना है कि अरबों की निजी मदद से नई निर्भरताएं पैदा की गई हैं और सरकारों को जिम्मेदारी से छूट मिल गई है. इसके विपरीत केन्या की प्रोजेक्ट लीडर का कहना है कि मदद का फायदा बाद में भी दिखेगा. मिलेनियम प्रोजेक्ट की प्रमुख जेसिका मासिरा कहती हैं, "मदद का स्तर इस समय के मुकाबले अलग रहेगा लेकिन मैं खुश हूं कि कम से कम कुछ तो हुआ है. लोगों का सशक्तीकरण हुआ है, वे अब सरकार से मांग कर सकते हैं. क्योंकि हमने सरकार का विकेंद्रीकरण किया है."
जेनीफर ओवीनो को पता है कि सौरी के सभी किसान उनकी तरह कामयाब नहीं हैं. उसके लिए मदद से ज्यादा जरूरी है सही रवैया और बहुत सारा अनुशासन. वह कहती हैं कि लोगों को सीखना होगा कि आप बैठकर सिर्फ ये नहीं कह सकते हैं, मुझे दो मुझे दो. आप सुस्त हो जाते हैं, बैठे रहते हैं और दिन बदलता है तो करने के लिए कुछ नहीं होता है जबकि मैं जब सुबह में तैयार होती हूं तो पता होता है कि दिन व्यस्त होगा.
सावधान, खतरे में है धरती
खतरे में है धरती
दुनिया भर में अनाज, चारे और ऊर्जा के लिए जैविक पदार्थों की जरूरत लगातार बढ़ रही है. भूस्खलन और जमीन के गलत इस्तेमाल से हर साल 24 अरब टन उपजाऊ मिट्टी बर्बाद हो रही है.
तस्वीर: eoVision/GeoEye, 2011, distributed by e-GEOS
जमीन के नीचे
मुट्ठी भर मिट्टी में उससे ज्यादा जीव रहते हैं जितने इंसान धरती पर रहते हैं. वे इस बात का ख्याल रखते हैं कि खाद की परत में पोषक तत्व और पानी जमा रहता है. समुद्र के बाद जमीन ही कार्बन डाय ऑक्साइड का सबसे बड़ा भंडार हैं. वे सारे जंगलों से ज्यादा कार्बन सोखती है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
ढक दी जमीन
दुनिया भर में शहर बढ़ रहे हैं. खेती की जमीन कंक्रीट और रोड के नीचे दबकर खत्म हो रही है. नकली चादर के नीचे छोटे छोटे जीवों का दम घुट रहा है. वर्षा का पानी जमीन के नीचे जाने और उसे नम बनाने के बदले बहकर दूर चला जा रहा है.
तस्वीर: imago/Jochen Tack
हवा के झोंके
धरती की संवेदनशील त्वचा इंसान की त्वचा की ही तरह सूरज, हवा और ठंड से सुरक्षा चाहती है. जमीन में पानी न रहने से, उसकी नमी खत्म होने से बड़े बड़े इलाके सूख सकते हैं और हल जोतने के बाद ढीली हुई मिट्टी को तेज हवाएं उड़ाकर ले जाती है.
तस्वीर: WWF/E. Parker
रेत बनती धरती
जमीन का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल भी अच्छा नहीं. जंगल काटने, बहुत ज्यादा खाद डालने और अत्यधिक घास चराने से कम पानी वाले इलाके रेगिस्तान में बदल जाते हैं. सूखे जैसे कारक इंसान द्वारा शुरू की गई इस प्रक्रिया को तेज कर देते हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
बहा ले गया पानी
पानी की तेज धार भी उपजाऊ मिट्टी को बहा ले जाती है. जब तेज बरसात का पानी कंक्रीट या सड़कों पर गिरता है, जब गर्मी के कारण गलने वाले बर्फ का पानी नदी का जलस्तर बढ़ा देता है, तो इसके साथ अच्छी फसल देने वाली मिट्टी भी बह जाती है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
फायदे के लिए चूसा खेत
बड़े इलाके में एक ही तरह की फसल के लिए अतिरिक्त खाद और कीटनाशकों की जरूरत होती है. फसल को फायदेमंद बनाने के लिए खाद का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है. दुनिया भर में करीब 40 फीसदी जमीन खाद के अत्यधिक इस्तेमाल से खतरे में है.
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अनुपयोगी होती जमीन
बड़ी झीलों में बहुत सारा पानी भाप बन जाता है, मौसम बदलने के कारण बहुत से इलाकों में पर्याप्त बरसात नहीं होती. इसकी वजह से पानी में मिला लवण ऊपरी सतह पर रह जाता है. इसका असर मिट्टी की उर्वरता पर पड़ता है और जमीन को अनुपयोगी बनाता है.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
दूषित जमीन
उद्योग का कचरा हो, दुर्घटना या युद्ध की वजह से हुआ प्रदूषण या खाद के सालों के नियमित उपयोग से, कोई जमीन एक बार दूषित हो जाए तो नुकसान को खत्म करना बहुत ही मुश्किल और खर्चीला होता है. चीन में 20 फीसदी जमीन के दूषित होने का अंदेशा है.
तस्वीर: Reuters
खनन की जरूरत
खनिज हासिल करने के लिए मिट्टी को हटाया जा रहा है. जर्मनी में भी भूरे कोयले के खनन के लिए उपजाऊ जमीन की बलि दी जा रही है. इस तरह जमीन का इस्तेमाल जैव विविधता की रक्षा, खेती या रिहाइश के लिए नहीं किया जा सकता.
तस्वीर: pommes.fritz123/flickr cc-by-sa 2.0
नया जीवन
प्रकृति को जमीन की सतह पर उर्वरक मिट्टी की परत डालने में दो हजार साल लगते हैं, जिस पर पेड़ पौधे उग सकें और पानी तथा पोषक तत्व जमा हो सकें. फसल लायक उपजाऊ जमीन की सुरक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र ने 2015 में अंतरराष्ट्रीय भूमि वर्ष मनाने का फैसला किया है.
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जेनीफर ने अपनी संभावनाओं का फायदा उठाया है. आम किसान से वह कृषि उद्यमी बन गई हैं.